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एक तरफ़ देश में जहाँ आम जनता महंगाई और गरीबी से त्राही-त्राही है वहीं दूसरी तरफ नेता जियों को अपनी सेहत का ख्याल तो है लेकिन बाकी जनता का नहीं । लेकिन देश की गरीब जनता प्रतिदिन कितनी भूखी सोती होगी शायद माननीयों को ये अंदाज़ा भी नहीं होगा ? लेकिन अब बड़ा सवाल ये खड़ा हो जाता है की क्या देश की आधे से ज्यादा गरीब जनता का तनिक भी फिक्र नहीं है या फिर मंत्रियों को लगता है की गरीब गरीब नहीं है? एक तरफ जहां सब्सिडी को समाप्त करने की कोशिश की जा रही है वहीं संसद की कैंटीनों को भारी सब्सिडी से नवाज़ा जा रहा है माननीयों की अच्छी सेहत के लिए कैंटीनों को पिछले पांच सालों में 60.7 करोड़ की भारी भरकम सब्सिडी दी गई है। यदि ये ही सब्सिडी की रक़म गरीबों के लिए दे दी जाती तो उनके लिए भी दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम हो सकता था । वहीं अगर एक नज़र सब्सिडी पर दौड़ाई जाये तो पूड़ी-सब्जी पर 88 फीसद रियायत सांसदों को पूड़ी-सब्जी खाने पर 88 फीसद की रियायत दी जा रही है। कैंटीन में चिप्स के साथ तली हुई मछली 25 रुपये प्रति प्लेट, मटन कटलेट 18, उबली सब्जियां 5, मटन करी 20 व मसाला डोसा 6 रुपये में मिलता है। इन सभी खानों पर क्रमश: 63, 65, 83, 67 व 75 प्रतिशत की सब्सिडी दी जा रही है। 33 रुपये में मांसाहारी थाली। अगर इन सब की बात संसद से बाहर की कि जाये तो कई गुणा दामों में मिलेगी? सांसदों को 90 फीसद सब्सिडी के साथ महज 4 रुपये प्रति प्लेट की दर से मसालेदार सब्जियां परोसी जाती है जबकि इन्हें तैयार करने में 41.25 रुपये की अनुमानित लागत आती है। इसी तरह मांसाहारी खाने की थाली को 66 फीसद सब्सिडी के साथ 99.5 की जगह मात्र 33 रुपये में उपलब्ध कराया जाता है। पापड़ की कीमत 1.98 रुपये है, जबकि इसे मात्र एक रुपये में दिया जाता है।
आये दिन तमाम टीवी चैनलों पर विभिन मुद्दों को लेकर जबरदस्त बहस और गहमागहमी देखने को मिलती है क्या गरीबों को लेकर कोई बहस देखने को मिलती है शायद बहुत कम? क्या देश के गरीबी कोई मुद्दा नहीं है? मुद्दा तो है लेकिन बात करना नहीं चाहते हमारे माननीय साहब! शायद कारण ये भी हो सकता है की कहींं कोई एंकर या कोई पत्रकार खुद संसद में मिलने वाले खाने पर सवाल न पूछ बैठे ? बात की जाए भ्रष्टाचार की वो भी कोई कम फैला हुआ नहीं है वह केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार का हर रोज सामना करता है यह सत्य है जब भी उनके लिए कोई अवसर तलाशा जाता है उसे अमीर या साधन संपन्न लोग छीन हैं। यानी योजनाओं का फायदा सिर्फ और सिर्फ अमीरों तक सिमट कर रह जाता है।
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