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‘वो गधे का बच्चा’

ताहिर की कलम से
ताहिर की कलम से
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सुनने में तो बड़ा अटपटा सा लगा होगा। लेकिन ये एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग अमूमन अधिकतर लोग करते हैं। या यू कह सकते है कि थोड़ा गुस्सा शांत करने के लिए भी ‘गधे’ शब्द का उपयोग कर देते हैं। लेकिन यदि देखा जाए तो मनुष्य की ज़िंदगी में सबसे ज्यादा यदि पशु का नाम लिया जाता है तो वो फैमस नाम ‘गधे’ का है। जी हां दिन भर ‘कमर तोड़’ मेहनत के बाद भी उसे पूर्ण रुप से खाने के लिए नहीं मिल पाता मिलती है तो सिर्फ ‘सूखी हुई घास’ साथ में एक-दो डंडे और खाने के लिए मिल जाते हैं। वैसे किसी से कोई भी कार्य ना हो अथवा गलत हो या उसे समझदारी से ना करें तो उसे ‘गधा’ बोल दिया जाता है, लेकिन यदि वास्तव में देखा जाए तो ‘गधे’ जैसा समझदार भी पशु जाति में नहीं दिखता। यहां ईमानदार और समझदारी से मतलब ये है कि ‘गधे’ को केवल एक बार जगह दिखाने पर वह खुद-ब-खुद वहां से आता जाता रहेगा। लेकिन कार्य के प्रति उसका समर्पण वास्तव में काबिले तारिफ है।

दिन भर कड़ी मेहनत के बाद भी अपना घर बहुत कम ‘गधों’ को नसीब हो पाता है। मालिक ‘गधों’ से दिन भर ‘कमर तोड़’ मेहनत करवाने के बावजूद भी उन्हें खुले आसमान के नीचे आवारा पशुओं की तरह छोड़ देते हैं। यदि उन्हें अच्छा चारा नहीं खिला सकते कम से कम ‘सूखी घास’ से भी तो परहेज करवांए, और हरी घास ही खिलवाएं ताकि उसके जीवन में भी हरियाली बनी रहे। रात को मेरे ऑफिस से प्रतिदिन आने का समय लगभग 11 से 12 बजे के बीच का होता है, और आज भी इत्तेफाक से 11:20 का वक्त ऑफिस से निकलने का था घर पहुंचते-पहुंचते करीब 11:35 का वक्त हो चुका था। घर से ऑफिस की दूरी लगभग 5-6 किलो. की है। घर आने के बाद खाना हुआ। दिमागी रुप से थका हुआ जरूर था। लेकिन ‘गधे’ की तरह ‘कमर तोड़’ थकावट नहीं थी। थोड़ा टहलना हुआ। दिमागी रूप की थकावट आंखों में साफ दिखी जा सकती थी। आंखे भी शायद सोने के लिए ‘इसारा’ कर रही थी, खैर मैंने देखा सड़क पर ‘गधों’ का झुंड इधर-उधर आ जा रहे थे। उन्हीं ‘गधों’ के साथ एक छोटा ‘बच्चा’ भी था, जो खेलता हुआ इधर-उधर घूम रहा था, उसे नहीं पता था कि किधर सुरक्षित खेलने-कूदने की जगह है। उसी बचपन की तरह जिस तरह से हर किसी का बचपन होता है।

अचानक ऐसी घटना घटी शायद किसी ‘गधे’ को पता नहीं था। बाज़ार से घर की तरफ लौट रहे ठेले वाले जिसमें स्कूटर का इंजन लगा हुआ था। सड़क पर किस तरह से गधे का छोटा नन्हा बच्चा उस ठेले के नीचे आ गया खुद ठेले वाले को भी आभास नहीं हुआ। पता तो उस वक्त चला जब ठेला ना आगे चले और ना पीछे। देखते ही देखते भीड़ जमा होने लगी। ‘गधे’ का बच्चा बारीक आवाज़ यानी पतली आवाज़ में ढ़ेचु-ढ़ेचु कर चिल्ला रहा था कुछ लोगों की मदद से उसे निकाला गया। थोड़ी आगे जा चुकी उसकी मां को एहसास हुआ शायद उसका जिगर का टुकड़ा किसी जगह मुसीबत में फंसा हुआ है। वो भी ढ़ेचु-ढ़ेचु करती हुई शायद उससे पूछ रही थी कि तू मुझ से दूर क्यों रहा। आखिर मां तो मां होती है। वो लंगड़ाता हुआ उसके साथ-साथ चल दिया। मैं भी आकर लेट गया उस ‘गधे’ के बच्चे के बारे में सोचते-सोचते कब मेरी आंखे लग गई कब मैं नींद के आगोश में चला गया मुझे पता नहीं चला।

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