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गधों का ही नहीं! जनाब गधे के बच्चों का भी ध्यान रखियेगा !

ताहिर की कलम से
ताहिर की कलम से
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-ताहिर खान, मेरठ।
जब यूपी की सियासत लैपटॉप, स्मार्ट फ़ोन, प्रेशर कूकर, से होकर बिजली के साथ क़ब्रिस्तान और शमशान की तरफ जा कर गधों पर टिक जाये तो हमें गधों के बच्चों को बिलकुल नहीं भूलना चाहिए। बच्चे हैं बच्चों का क्या ? 1 बात सियासत की नहीं दरअसल बात तो अब विकास के मुद्दों की भी आ जाती है, दो जून की रोटी, कपड़ा, और मकान की भी आ जाती है जिस देश के प्रधानमंत्री ने साल 2014 लोकसभा चुनाव पूर्ण बहुमत के साथ गुजरात के विकास मॉडल के बल पर जीता हो तो उससे से इतर अब ये सियासत विकास के मुद्दों को छोड़ कर सिर्फ गधों पर जा कर टिक रही हो तो सवाल उठना तो लाज़मी हो जाता है साहब ! जी हां, आपको सुनने में तो बड़ा अटपटा सा लगा होगा ‘गधा’ शब्द । लेकिन ये एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग अमूमन अधिकतर लोग करते हैं। या यू कह सकते है कि थोड़ा गुस्सा शांत करने के लिए भी ‘गधे’ शब्द का उपयोग कर देते हैं। लेकिन यदि देखा जाए तो मनुष्य की ज़िंदगी में सबसे ज्यादा यदि पशु का नाम लिया जाता है तो वो फैमस नाम ‘गधे’ का ही है। जी हां दिन भर ‘कमर तोड़’ मेहनत के बाद भी उसे पूर्ण रुप से खाने के लिए नहीं मिल पाता मिलती है तो सिर्फ ‘सूखी हुई घास’ साथ में एक-दो डंडे और खाने के लिए मिल जाते हैं। वैसे किसी से कोई भी कार्य ना हो अथवा गलत हो या उसे समझदारी से ना करें तो उसे ‘गधा’ बोल दिया जाता है, लेकिन यदि वास्तव में देखा जाए तो ‘गधे’ जैसा समझदार भी पशु जाति में नहीं दिखता। यहां ईमानदार और समझदारी से मतलब ये है कि ‘गधे’ को केवल एक बार जगह दिखाने पर वह खुद-ब-खुद वहां से आता जाता रहेगा। लेकिन कार्य के प्रति उसका समर्पण वास्तव में काबिले तारिफ है। दिन भर कड़ी मेहनत के बाद भी अपना घर बहुत कम ‘गधों’ को नसीब हो पाता है। मालिक ‘गधों’ से दिन भर ‘कमर तोड़’ मेहनत करवाने के बावजूद भी उन्हें खुले आसमान के नीचे आवारा पशुओं की तरह छोड़ देते हैं। यदि उन्हें अच्छा चारा नहीं खिला सकते कम से कम ‘सूखी घास’ से भी तो परहेज करवांए, और हरी घास ही खिलवाएं ताकि उसके जीवन में भी हरियाली बनी रहे। मामला थोड़ा पुराना जरूर है लेकिन जब यूपी की सियासत गधों पर जा टिकी हो या यूँ कहें की चुनाव में अपने आपको साबित करने के लिए इस तरह की बयानबाजी करनी होगी तभी हम चुनाव जीत सकते हैं जी हां जहां एक तरफ यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव गुजरात के गधों पर निशाना साधते हैं तो भारत के प्रधानमंत्री भी इस बहस में पीछे नहीं रहना चाहते पीएम ने कहा मैं गर्व से गधे से प्रेरणा लेता हूं और देश के लिए गधे की तरह काम करता हूं, ये तो सही है, होना भी ऐसा ही चाहिए लेकिन राजनितिक पार्टियों की तरफ से तमाम वादें किये जाते हैं लेकिन धरातल पर कितने वादों पर काम किया जाता है ये हिंदुस्तान देख कर जान रहा है, खैर छोड़िये वादें हैं वादों का क्या। कहा जाता है राजनीति बिना आरोप-प्रत्यारोप के संभव नहीं है मोदी और अखिलेश के बीच छिड़ी इस जुबानी जंग का फायदा अब अन्य पार्टियां भी लेने से नहीं चूक रही हैं जाहिर सी बात है बहती गंगा में हाथ धोना कौन नहीं चाहता हर कोई चाहता है कुमार विश्वास ने भी अपने ही अंदाज में कह दिया ‘इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं, जिधर देखता हूं गधे ही गधे हैं, गधे हंस रहे हैं, आदमी रो रहा है हिंदुस्तान में यह क्या हो रहा है ?’ ये कुछ नहीं ! कुछ नहीं बस यूपी की राजनीति में भूचाल लाया जा रहा है. लेकिन अब जरूरी हो जाता है कि हम गधों के बच्चों की बात भी अवश्य कर लें । रात को मेरे ऑफिस से प्रतिदिन आने का समय लगभग 11 से 12 बजे के बीच का होता है, और आज भी इत्तेफाक से 11:20 का वक्त ऑफिस से निकलने का था घर पहुंचते-पहुंचते करीब 11:35 का वक्त हो चुका था। घर से ऑफिस की दूरी लगभग 5-6 किलो. की है। घर आने के बाद खाना हुआ। दिमागी रुप से थका हुआ जरूर था। लेकिन ‘गधे’ की तरह ‘कमर तोड़’ थकावट नहीं थी। थोड़ा टहलना हुआ। दिमागी रूप की थकावट आंखों में साफ दिखी जा सकती थी। आंखे भी शायद सोने के लिए ‘इशारा’ कर रही थी, खैर मैंने देखा सड़क पर ‘गधों’ का झुंड इधर-उधर आ जा रहे थे। उन्हीं ‘गधों’ के साथ एक छोटा ‘बच्चा’ भी था, जो खेलता हुआ इधर-उधर घूम रहा था, उसे नहीं पता था कि किधर सुरक्षित खेलने-कूदने की जगह है। उसी बचपन की तरह जिस तरह से हर किसी का बचपन होता है । अचानक ऐसी घटना घटी शायद किसी ‘गधे’ को पता नहीं था। बाज़ार से घर की तरफ लौट रहे ठेले वाले जिसमें स्कूटर का इंजन लगा हुआ था। सड़क पर किस तरह से गधे का छोटा नन्हा बच्चा उस ठेले के नीचे आ गया खुद ठेले वाले को भी आभास नहीं हुआ। पता तो उस वक्त चला जब ठेला ना आगे चले और ना पीछे। देखते ही देखते भीड़ जमा होने लगी। ‘गधे’ का बच्चा बारीक आवाज़ में ढ़ेचु-ढ़ेचु कर चिल्ला रहा था कुछ लोगों की मदद से उसे निकाला गया। थोड़ी आगे जा चुकी उसकी मां को एहसास हुआ शायद उसका जिगर का टुकड़ा किसी जगह मुसीबत में फंसा हुआ है। वो भी ढ़ेचु-ढ़ेचु करती हुई शायद उससे पूछ रही थी कि तू मुझ से दूर क्यों रहा। आखिर मां तो मां होती है। वो लंगड़ाता हुआ उसके साथ-साथ चल दिया। मैं भी आकर लेट गया उस ‘गधे’ के बच्चे के बारे में सोचते-सोचते कब मेरी आंखे लग गई कब मैं नींद के आगोश में चला गया मुझे पता नहीं चला।

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