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बुज़ुर्ग मां तक को नहीं बख्सा गया…

ताहिर की कलम से
ताहिर की कलम से
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हम लोग अपने आप को सभ्य कहते हैं लेकिन इस सभ्य समाज में अगर इस तरह की रूह कंपकंपा देने वाली घटना हो जाये जैसी 28 सितम्बर को ग्रेटर नॉएडा के बिसाहड़ा गांव में हुई। लाउडस्पीकर से ऐलान हुआ। व्हाट्सऐप से किसी गाय के कटने का वीडियो वायरल हो गया। एक बछिया ग़ायब हो गई। लोग ग़ुस्से में आ गए। फिर कहीं मांस का टुकड़ा मिलता है। कभी मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने कोई फेंक जाता है। इन बातों पर कितने दंगे हो गए। कितने लोग मार दिए गए। हिन्दू भी मारे गए और मुस्लिम भी। हम सब इन बातों को जानते हैं फिर भी इन्हीं बातों को लेकर हिंसक कैसे हो जाते हैं। हमारे भीतर इतनी हिंसा कौन पैदा कर देता है। जाने वाले इस साम्प्रदायिकता की आग में झुलस कर इस दुनिया को छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए चले जाते हैं राजनेता अपनी रोटियां सेंक कर अपना उल्लू सिधा कर लेते हैं । इस जनता ने तो अपने पीएम साहब की भी एक न सुनी पीएम साहब कहते हैं “साम्प्रदायिकता एक ज़हर है ” अब सवाल ये है कि आख़िर ये ज़हर घोल कौन रहा है ? यदि बात की जाए पंचायत चुनाव की तो काफी क़रीब हैं लेकिन जब जब चुनाव का समय आता है तो साम्प्रदायिक तनाव बढ़ जाता है । अभी मात्र करीब 2 साल ही हुए होंगे हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच (27 अगस्त 2013 – 17 सितम्बर 2013 तक चली ये हिंसा करीब 21 दिन तक चली) मुज़फ्फरनगर में साम्प्रदायिकता के नाम पर भड़की हिंसा में करीब 43 लोगों से ज्यादा की जान चली गई और ना जाने कितने लोग गंभीर रूप से घायल हुए और कुछ मामूली रूप से भी ज़ख़्मी हुए। कितने ही बेगुनाह लोगों घरों से बेघर हो गए अपनों से दूर चले गए । आखिर हम और आप इतने वहशी और दरिंदगी पर उतर आते हैं मात्र एक छोटी सी अफ़वाह और शक़ पर मारने और मरने पर उतारू हो जाते हैं । बुज़ुर्ग मां तक को नहीं बख्सा गया बुरी तरह पिटाई कर दी गई बुज़ुर्ग मां असगरी की आँखे निर्मम हत्या का किस्सा बताते-बताते आंसुओं से भर आती हैं गले की आवाज़ बैठ जाती है ? माँ असगरी की आंखों पर आज भी गहरे निशान बाकी हैं वो दुःख और सदमे में रोती हुई कहती कौन लौटाएगा मेरे बेटे को ? एक बेटी कहती है की कौन लौटाएगा मेरे पापा को, कौन लौटाएगा मेरे भाई को ? सवाल जायज़ है । बिखरा हुआ सामान भी घटना को बयां कर रहा है कि मंज़र कितना भयावह रहा होगा? टूटी हुई सिलाई मशीन, कमरे की टूटी हुई विंडो की जाली, एक तरफ पड़ा हुआ फ्रिज़, टूटा हुआ कमरे का दरवाजा। whatsapp पर वीडियो वायरल हो गई जिसके चलते माहौल गरमा गया जिस की कीमत 55 वर्षीय अख़लाक़ ने अपनी जान देकर चुकाई । बिल्कुल इसी तरह का मामला मुज़फ़्फ़रनगर में भी देखने को मिला था किसी ने whatsapp पर इसी तरह की पोस्ट अपलोड की गई थी। आखिर हम लोग इन सब चीजों से सबक क्यों नहीं लेते ? आखिर इतने उग्र क्यों हो जाते हैं ? रांची में भी साम्प्रदायिक तनाव कई दिनों तक चलता रहा उसमे भी असामाजिक तत्वों ने मांस का टुकड़ा मंदिर और मस्ज़िद के सामने फैंक दिया जिससे बवाल बढ़ गया । ये लोकतंत्र नही बल्कि भीड़तंत्र है…जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं , चलो थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय की अख़लाक़ के पास गौमांस था तो क्या क़ानून अपने हाथ में लेने का अधिकार आम आदमी को है उस जनता को जो कहती है कि हम सभ्य समाज के हिस्सा या हम सभ्य है लेकिन मैं तो नहीं मान सकता ! बिसाहड़ा गांव के इतिहास में सांप्रदायिक तनाव की कोई घटना नहीं है। जब पूरा गांव कह रहा है की अख़लाक़ बहुत अच्छा आदमी था , सभी लोग उससे प्यार करते थे तो आखिर ऐसी क्या आन पड़ी की जनता उग्र हो गई ? फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि एक अफवाह पर उसे और उसके बेटे को घर से खींच कर मारा गया। ईंट से सिर कुचल दिया गया। बेटा अस्पताल में जिंदगी की लड़ाई लड़ रहा है। उसकी हालत बेहद गंभीर है। यदि ऐसा था तो ऐसा हश्र क्यों किया गया अख़लाक़ का? अख़लाक़ तो चला गया हमेशा-हमेशा के लिए ? अब चाहे कोर्ट का जो फैसला आ जाये लेकिन जनता तो अपना फैसला सुना चुकी है अख़लाक़ को कुचल-कुचल कर मौत के घाट उतार चुकी है। यही नहीं दरिंदों ने अख़लाक़ और बेटे को घर के बाहर तक घसीटा गया । लेकिन हम सब को सोचने की जरूरत है क्यों ना पहले मामले की पुष्टि की जाये फिर नज़दीकी पुलिस स्टेशन में शिकायत जाये । क़ानून का काम है सजा देना ना की हमारा और आपका ध्यान रखिये जान बहुत कीमती है ।
-ताहिर खान, मेरठ

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