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सोची-समझी रणनीति के तहत बिगड़ी है अन्ना की तबियत

सरोकार
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पहले भी अन्ना हज़ारे का पूरा आंदोलन शक के दायरे में था किंतु ऐन चुनाव के वक्त उनकी तबियत खराब हो गई जो ये बात साबित करने के लिए काफी है कि वे कांग्रेस की रणनीति पर काम कर रहे हैं.


anna hajareअन्ना हजारे, यह नाम आज किसी पहचान का मोहताज नहीं रह गया है. कुछ समय पहले भले ही यह नाम सुना-सुना सा लगता हो लेकिन आज लगभग हर आयु वर्ग का व्यक्ति समाजसेवी अन्ना हजारे को अपना आदर्श मानने लगा है. भारतीय लोगों के बीच उनकी क्या अहमियत है, यह उनके आंदोलन को मिला जनसमर्थन स्वत: ही बयां कर देता है. रामलीला मैदान और जंतर-मंतर में चले उनके अनशन में क्या बच्चे क्या बड़े सभी “मैं अन्ना हूं” की टोपियां पहने और अन्ना के समर्थन में नारे लगाते दिखाई दिए. वैसे भी अगर कोई व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था के लिए नासूर बन चुके और राजनीति की जड़ों को खोखला करने पर उतारू भ्रष्टाचार को समाप्त करने का प्रयास कर रहा है तो उसे चौतरफा समर्थन मिलना भी चाहिए.


लेकिन क्या अन्ना का मकसद और मुहिम इतने जनसमर्थन का हकदार है जबकि उनकी नीयत स्वयं शक के घेरे में है. एक तरफ तो वे कांग्रेस के विरोध में दिखाई देते हैं लेकिन सरकार और कांग्रेस के किसी भी धर्मसंकट की स्थिति में साफ-साफ उनका बचाव कर जाते हैं. बारह दिनों के अनशन के बाद जब सरकार और कांग्रेस दोनों भारी दुविधा में फंस गए तो अन्ना जी ने उन्हें संकट से उबार लिया भले ही उन्हें देश के साथ विश्वासघात करना पड़ा.


अनशन समाप्त होने के बाद अन्ना ने सरकार को इस चेतावनी के साथ एक अल्टिमेटम दिया कि अगर जल्द ही उनकी मांगे पूरी नहीं की गईं तो वह आगामी चुनावों में कांग्रेस के विरोध में प्रचार करेंगे. वह अपनी टीम के साथ हर उस राज्य में जाएंगे जहां चुनाव होने वाले हैं और मतदाताओं से कांग्रेस को वोट ना डालने की अपील करेंगे.


लेकिन चुनावी प्रचार का समय निकल गया और अन्ना की ओर से कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ और ना ही अपनी चेतावनी के अनुसार वह लोगों तक कांग्रेस को वोट ना डालने की अपील पहुंचा पाए. समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों की मानें तो अन्ना की तबियत बहुत ज्यादा खराब है. लेकिन हमें आंखें खोलकर देखने की जरूरत है कि आखिर क्यों अचानक अन्ना कांग्रेस के लिए संकटमोचक बन जाते हैं.


वैसे तो अन्ना के अनशन को भी कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. सरकार की ओर से उनकी मांगों को अलोकतांत्रिक करार दिया जा रहा था तो कुछ लोग अन्ना को कांग्रेस का सेफ्टी वॉल्व ही कह रहे थे. खैर उनकी मांगे अलोकतांत्रिक हों या ना हों लेकिन चुनाव के समय उनकी तबियत का बिगड़ जाना निश्चित तौर पर लाला लाजपत राय के सेफ्टी वॉल्व के सिद्धांत को ही प्रदर्शित कर रहा है. सेफ्टी वाल्व यानि कांग्रेस ने अपने ऊपर बिजली गिरने से बचाने के लिए अन्ना नाम का मोहरा तैयार किया और आज देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो माहौल तैयार होकर कांग्रेस के विरुद्ध क्रोध के रूप में फूटता उसे आंदोलन रूपी तड़ित चालक ने शांत कर दिया.


अन्ना पर प्रारंभ से ही यह आरोप लगते आए कि गुप्त रूप से वह कांग्रेस के ही साथी हैं, वह कभी भी कांग्रेस का विरोध नहीं कर सकते. अन्ना पर विश्वास करने वाले लोग इस कथन को निंदनीय बताकर अनदेखा कर रहे थे, लेकिन अब चुनावी समय में कांग्रेस का विरोध ना कर उन्होंने अपने ऊपर लगे उन सभी आरोपों को आधार दे दिया है. अब कथित रूप से तबियत खराब होने के कारण अन्ना विरोध प्रदर्शन कर नहीं सकते और उनके नेतृत्व के बिना टीम अन्ना कुछ कर नहीं सकती. दोनों ही हालातों में कांग्रेस के खिलाफ होते प्रदर्शन पर रोक लग गई और प्रचार का समय निकल गया.


anna movementअन्ना ने स्वयं यह बात सिद्ध कर दी कि वह कांग्रेस के खिलाफ जा ही नहीं सकते, अगर उन पर कांग्रेस से जुड़ाव होने के आरोप लगे हैं तो उनमें कुछ भी गलत नहीं है. हां कुछ समय पहले जब हरियाणा की हिसार सीट के लिए उपचुनाव हुए थे तो अन्ना जरूर कांग्रेस के विरोध में बोले थे. लेकिन ये भी सोची-समझी रणनीति थी.


अन्ना हजारे का कहना था कि जब तक कांग्रेस, संसद के शीतकालीन सत्र में प्रभावी लोकपाल विधेयक बनाने के लिए राज़ी नहीं होती तब तक हर चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशियों का विरोध किया जाएगा. अन्ना ने जनता से कांग्रेस को वोट ना डालने की अपील भी की थी.


लेकिन इसे उनकी नासमझी या सोची-समझी रणनीति ही कहेंगे कि जिस सीट के लिए अन्ना और उनकी टीम कांग्रेस का विरोध कर रहे थे उसमें कांग्रेस के उम्मीदवार की हार पहले से ही तय थी. एक तरफ बीजेपी के उम्मीदवार और पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के पुत्र कुलदीप बिश्नोई थे तो दूसरी तरफ लोकदल के अजय सिंह चौटाला. इन दो दिग्गजों के सामने कांग्रेस के उम्मीदवार जयप्रकाश को शायद कोई पहचानता भी नहीं था. उनकी हार तो होनी ही थी लेकिन अन्ना के विरोध ने उन्हें इस हार का सेहरा पहना दिया.


लेकिन अब जब वास्तविक और सशक्त विरोध होना चाहिए था तो उस समय अन्ना हजारे मैदान से नदारद हैं. हो सकता है उनकी तबियत सच में खराब हो लेकिन चुनाव के समय उनकी तबियत का बिगड़ना कई प्रकार की शंकाएं और संदेह भी विकसित कर रहा है. जनता को भ्रष्टाचार से मुक्त समाज की एक उम्मीद देकर कहीं अन्ना हजारे स्वयं उनके साथ विश्वासघात तो नहीं कर रहे?


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