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उत्तर-प्रदेश समेत पांच राज्यों में हुए चुनावों के नतीजें देखकर बहुत से लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि यथार्थ के धरातल पर राहुल गांधी का करिश्मा समाप्त हो चुका है और 2014 में होने वाले संसदीय चुनावों में भी वह ऐसा ही लचर प्रदर्शन करेंगे.
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने जहां एक ओर गठबंधन सरकार के अस्तित्व में आने जैसे कयासों को निरर्थक प्रमाणित कर दिया वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की तमाम कोशिशों पर भी पानी फेर दिया. हांलाकि यह उम्मीद तो किसी को भी नहीं थी कि इस बार कांग्रेस बहुत भारी मात्रा में वोट अर्जित कर पाएगी लेकिन इतना अनुमान अवश्य लगाया जा रहा था कि उत्तर-प्रदेश के वर्तमान हालातों को देखते हुए किसी भी सरकार का पूर्ण बहुमत में आना बेहद मुश्किल हैं, लेकिन शायद वहां की जनता ने अपने लिए कुछ और ही सोच रखा था.
खैर, नतीजें आए और इन्हें देखकर बहुत से लोग आश्चर्यचकित रह गए. पूर्ण बहुमत से भी दो कदम आगे निकलकर समाजवादी पार्टी ने यह साबित कर दिया कि या तो वह इन चुनावों के बहाने जनता का विश्वास जीतने में सफल हुई हैं या फिर उत्तर-प्रदेश की जनता के पास क्षेत्रीय दल को दोबारा सत्ता पर बैठाने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा था.
वैसे तो राहुल गांधी जो अब मुख्य राजनीति का एक बड़ा और नामी चेहरा बन कर उभरे हैं, उनके प्रतिद्वंदी और विरोधी उनकी इस हार को लेकर अत्याधिक प्रसन्न हैं. यूं तो राहुल गांधी ने अनेक जनसभाएं की जिसमें लाखों की संख्या में लोग शामिल हुए लेकिन इसे दुर्भाग्य कहें या सत्ता की माया कि यह भीड़ वोटों में तब्दील नही हो पाईं.
इन चुनावों के बाद 2014 में होने वाले संसदीय चुनावों के संबंध में भी यह कयास लगाए जाने लगे है कि उस समय भी कांग्रेस इतना ही खराब प्रदर्शन करेगी. लेकिन यहां एक बात स्पष्ट करनी बेहद जरूरी हैं कि क्षेत्रीय और केन्द्रीय चुनावों में जो बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर होता है वो यह है कि विधानसभा चुनावों में जनता अपने क्षेत्र के विकास को महत्व देती हैं. वह एक ऐसा नेता चाहती हैं जो उनकी छोटी-छोटी समस्याओं को भी हल करें. इन सब के अलावा गौण रूप से ही सही लेकिन जातिवाद भी एक बेहद प्रभावी और सशक्त भूमिका निभाता है. लेकिन जब राष्ट्र की बात आती हैं तो क्षेत्रियता बहुत पीछे छूट जाती है. क्योंकि मुख्य ध्येय केवल राष्ट्र का हित ही रह जाता है. जनता ऐसे दल की अपेक्षा करती हैं जो राष्ट्र को एकीकृत रखकर चल सकें. एक ऐसे नेता की आवश्यक्ता महसूस की जाती है जो देश को विकास की ओर अग्रसर रख सकें, और ऐसे में कोई क्षेत्रीय दल नहीं बल्कि देश को अखंडित रखने वाले नेता और दल ही सामने आते हैं. मुझे नहीं लगता किसी क्षेत्रीय दल में इतनी काबिलियत होती हैं कि वह अपने क्षेत्र विशेष के आगे देश को महत्व देना बेहतर समझें.
पिछले कुछ समय से राहुल ने अपने प्रचार कार्यक्रम और जनता के बीच संवाद कायम करने में बड़ी सफलता हासिल की है. उसके लिए विधानसभा चुनाव के नतीजे कोई मानक नहीं समझे जाने चाहिए. यह नतीजें बस यह बयां करते हैं कि राहुल को अपने कार्यक्रम में निरंतरता और बीते कुछ समय में उन्होंने जनता से जुड़ने की जो मुहिल शुरू की है उसमें विस्तार होना चाहिए.
अज भारत वर्ष जिन परिस्थितियों और समस्याओं का सामना कर रहा है उनसे निपटने के लिए उसे एक ऐसे नेता की जरूरत हैं जो बहुमुक्ही प्रतिभा का धनी होने के साथ-साथ राष्ट्र और विदेशी मसलों पर भी गहरी पकड़ रखता हो. जो जनता की अपेक्षाओं को समझने के अलावा विकास के महत्व और उसके लिए जरूरी रणनीति को भी परख सके. यहीं कारण है कि समाजवादी पार्टी जैसी अन्य किसी क्षेत्रीय पार्टी के स्थान पर कांग्रेस जैसे राष्ट्रीर दल और उसके मुख्य चेहरे राहुल गांधी 2014 के चुनावों में देश के कर्णधार के रूप में उभरकर सामने आएं.
इन चुनावों से पहले अन्ना और रामदेव सरीखे आंदोलन भी बड़े लोकप्रिय रहें लेकिन नतीजों ने तो यह भी प्रमाणित कर दिया कि देश की जनता आंदोलन में शामिल होने और अपने लिए सरकार चुनने में मौजूद अंतर को बेहतर समझती हैं. इसीलिए जहां अन्ना हजारे और रामदेव कांग्रेस को वोट ना डालने की अपील कर रहे थें वहीं इस बार के चुनावों में कांग्रेस ने पहले से ज्यादा सीटें हासिल की है. अब ऐसे में सारे कयास और अनुमान बेमानी ही रह जाते हैं.
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