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देश के चर्चित और जाने-माने विश्वविद्यालय गुरू गोबिंद सिंह इन्द्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी द्वारा स्नातक और स्नातकोत्तर दाखिलों के लिए हर वर्ष जो फॉर्म निकाले जाते हैं, उसमें हिंदूओं को ही अन्य श्रेणी में डाल दिया गया है. फॉर्म में ईसाई, मुस्लिम, सिख, जैन आदि सभी धर्मों को तो स्थान दिया गया है लेकिन हिंदूओं को ‘अन्य’ के कॉलम में टिक करके ही खुद को सांत्वना देनी पड़ रही हैं.
हम बड़े ही गर्व के साथ खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलवाते हैं. गर्व महसूस करते हैं जब अन्य सभी देशों की तुलना में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य का दर्जा दिया जाता है. लेकिन इस तथाकथित गर्व की भावना के बीच यह सोचने की फुरसत ही नहीं मिली कि क्या यह छद्म धर्मनिरपेक्षता उन्हीं लोगों के हित को तो कमतर नहीं कर रही जिनके आधार पर हिन्दुस्तान की नींव रखी गई है!!
गुरु गोबिंद सिंह इन्द्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के कुलपति से जब इन सब का कारण पूछा गया तो उनका यह साफ कहना था कि हमने तो केन्द्रीय सरकार द्वारा जारी आरक्षण की नीति के तहत यह प्रावधान किया गया है ताकि किसी भी अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्ग में शामिल लोगों के साथ अन्याय ना होने पाए. विश्वविद्यालय से जुड़े लोगों का यह स्पष्ट कहना है कि वर्गीकृत कॉलम बस उनके लिए है जिन्हें सरकार अल्पसंख्यक मानती है और बाकी सब के लिए तो ‘अन्य’ कॉलम है ही.
बहुत हास्यास्पद है कि जिस धर्मनिर्पेक्षता का हवाला देकर तथाकथित न्याय की परिभाषा गड़ी जाती है अब वही धर्मनिरपेक्षता धर्म के आधार पर ही लोगों के साथ न्याय करेगी.
कभी-कभार तो लगता है कि अगर हम खुद को धर्मनिरपेक्ष ना कहलवाते तो हमारे हालात बेहतर होते. कम से कम छद्म न्याय और समान अवसरों की आड़ में वोट बैंक की राजनीति से तो बचा जाता. अन्य देशों में जहां हिंदु धर्म से इतर एक विशिष्ट धर्म को अपनाया गया है वहां तो वैसे ही हिंदु धर्म का अनुसरण करने वाले लोग हाशिए पर जीने के लिए मजबूर है लेकिन जिस राष्ट्र को वे अपना कहते नहीं थकते अब तो वहीं उनके साथ परायों जैसा व्यवहार किया जाने लगा है. आरक्षण, अल्पसंख्यक हित, समान अवसर आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो सिर्फ हिंदु अनुयायियों के साथ.
हिंदू बहुसंख्यक आबादी वाले भारतवर्ष में अब ऐसी परिस्थितियां आन पड़ी हैं जब हिंदुओं को ही मुख्य धारा से हटाकर अन्य की श्रेणी में धकेल दिया गया है. वाह रे हिंदुस्तान और आरक्षण की भेंट चढ़ती हमारी स्वार्थी राजनीति.
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