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अस्पताल का बिल और मरीज का दिल

tarkeshkumarojha
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अस्पताल के बिल से मरीज का दिल घबराता है या मरीज के दिल से अस्पताल का बिल बढ़ता है सच पूछा जाए तो अपने देश में यह सवाल यक्ष प्रश्न है। हमारा देश सही मायनों में एक कार्ड प्रधान देश है। यहां नागरिकों को कार्ड पर कार्ड मिलता ही रहता है, जैसे जॉब कार्ड, हेल्थ कार्ड, आइ कार्ड , राशन कार्ड और आधार कार्ड वगैरह – वगैरह। इस नश्वर संसार में लैडिंग से लेकर वैकुंठगमन की फ्लाइट पकड़ने तक आदमी को कार्ड ही कार्ड बनवाते रहना पड़ता है। होश संभालने वाला बच्चा कार्ड बनवाते बनवाते कब बूढ़ा होकर परलोकगमन की तैयारी में जुट जाता है, खुद उसे भी इसका पता नहीं लग पाता। गनीमत है कि अभी तक ऐसा कार्ड बनवाने की नौबत नहीं आई है कि मुर्दों के डेथ सर्टीफिकेट पर मुहर तभी लग पाएगी जब उसके पास इसका कार्ड होगा या उसके कार्ड का लिंक आधार से होगा। लेकिन क्या पता कल को यह भी संभव हो जाए। हर कार्ड की अपनी विशेषता है । एक कार्ड वह जिससे पता लगता है कि आप आप ही हैं तो दूसरे कार्ड के जरिए आपको सेर – छटांक भर राशन मिलता है, ताकि आप भूख से मर न जाएं। इस कार्ड के बनने – बनाने को ले सरकारों के बीच भी लड़ाई – झगड़ा चलता ही रहता है। राज्य सरकार कहती है कि यह कार्ड उसकी बदौलत बन पाया, तो केंद्र सरकार कहती है कि इसका श्रेय उसे मिलना चाहिए, क्योंकि इस पर होने वाला खर्च वह वहन कर रही है।

इस कार्ड पुराण से विचलित होकर मेरे मन में अक्सर ख्याल आता है कि क्यों न सरकार हर आदमी को इस बात का कार्ड भी दे जिससे आदमी चैन से मर सके। हमारी सरकारें योजनाएं भी खूब बनाती है। नागरिकों को सेहतमंद बनाए रखने के लिए कभी आयुष्मान योजना बनती है तो कभी भाग्यवान योजना। लेकिन कभी नहीं सुना गया कि बीमार पड़े आदमी ने सरकारी अस्पताल के बेड पर अंतिम सांस ली। ज्यादा से ज्यादा यह सुनाई देता है कि बंदे को गंभीर हालत में अमुक सरकारी अस्पताल ले जाया गया था, लेकिन देखते ही चिकित्सकों ने उसे किसी बड़े अस्पताल के लिए रेफर कर दिया। या हालत गंभीर देख परिवार के लोग माजरा समझ गए और बोल पड़े कि … हे सरकारी अस्पताल के डॉक्टर साहब … हम जानते हैं आपसे नहीं होगा…। अपनों को बगैर इलाज के मार देने का इल्जाम हम नहीं सह सकते। सो लिए चलते हैं सेवा , सुश्रषा या मानवता – धड़कन जैसे किसी चमकते – दमकते नर्सिंग होम में। अब चाहे बिल चुकाने में मकान बिके या दुकान। इस दौरान भाग्यवान या आयुष्मान जैसे कार्ड ढूंढने की फुर्सत किसे होती है। सच पूछा जाए तो ये बड़े – बड़े नर्सिंग होम्स या यूं कहें तो गैर सरकारी अस्पतालें यमलोक से भेजे गए यमदूतों से लड़ने वाले मार्शल हैं जो मरीज को ले जाने आए यमदूतों से जम कर मुकाबला करते हैं ।

वर्ना ये यम के दूत तो पृथ्वी को इंसानों से खाली ही करा दें। अभी तक ऐसा कोई सर्वेक्षण सामने नहीं आया है जिससे पता लग सके कि ऐसे महंगे अस्पतालों में मरने वाले मरीजों में कितने फीसद महज इसका बिल चुकाने के टेंशन में टें बोल जाते हैं। मरीज अचेत हो तो ठीक , वर्ना बेड पर पड़े – पड़े भी टेंशन कि ये घर वाले कहां ले आए… अब इनका बिल कौन चुकाएगा। मैने कई परिवारों को देखा है ऐसी हालत में सालों कोल्हू का बैल बने। जाने वाला तो चला गया लेकिन बचने वाले की जिंदगी नर्क बन गई ऐसे महंगे अस्पतालों से पैदा हुए कर्ज को चुकाने में। भाग्यवान या आयुष्मान योजना हाथी के मुंह में सैंडविच भी साबित नहीं हो पाते।

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