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बचपन के दिनों में सावन के महीने में अपने शहर के नजदीक से बहने वाली नदी से जल भरकर प्राचीन शिव मंदिर में बाबा भोलेनाथ का जलाभिषेक किया करता था। कुछ बड़े होने पर शिवधाम के तौर पर जेहन में बस दो ही नाम उभरते थे। मेरे गृहप्रदेश पश्चिम बंगाल का प्रसिद्ध तारकेश्वर और पड़ोसी राज्य में स्थित बाबा वैद्यनाथ धाम। बाबा तारकनाथ की महिमा पर इसी नाम से बनी बांग्ला फिल्म ने मेरे राज्य में हजारों ऐसे लोगों को भी कांवड़ लेकर तारकेश्वर जाने को प्रेरित किया, जो तकलीफों का ख्याल कर पहले इससे कतराते थे।
बाबा वैद्यनाथ धाम की यात्रा को ज्यादा महत्व इसी कथानक पर बनी फिल्म से मिला, जिसमें प्रख्यात फिल्म अभिनेता स्व. सुनील दत्त ने डाकू का यादगार किरदार निभाया था। हालांकि बाबा बैद्यानाथ धाम जाने का अवसर मुझे कभी नहीं मिल पाया। अलबत्ता एक दशक पहले तक हर सावन में तारकेश्वर तक की कांवड़ यात्रा जरूर कर लेता था। पिछली अंतिम यात्राओं में बाबा तारकनाथ धाम जाने वाले रास्तों पर अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद का प्रचार करते बैनरों व पोस्टरों को देखकर मुझे इस बात का आभास हो गया था कि राजनीति और बाजार की पैनी नजर अब कांवड़ यात्रा पर भी पड़ चुकी है।
इसके बाद तो हर साल किसी न किसी बहाने कांवड़ यात्रा पर राजनीतिक विवाद और बयानबाजी सुनी ही जाती रही है। कभी हुड़दंग, तो कभी डीजे बजाने को लेकर विवाद का बवंडर हर साल सावन से पहले ही शुरू हो जाता है। निस्संदेह कांवड़ यात्रा में अगंभीर किस्म के भक्तों के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता, जो महज मौजमस्ती के लिए ऐसी यात्राएं करते हों। मगर विगत वर्ष संसद में एक माननीय का यह कथन कि केवल बेरोजगार लोग कांवड़ यात्रा करते हैं, मुझे काफी उद्वेलित किया। क्योंकि कांवड़ यात्रा का मेरा लंबा अनुभव रहा है।
बचपन से लेकर युवावस्था तक, मैंने बाबा तारकनाथ धाम की कांवड़ यात्रा पर निकलने वाले भक्तों में अधिकांश को श्रद्धा-भक्ति से ओतप्रोत पाया है। मेरा निजी अनुभव है कि सावन की कांवड़ यात्रा छोटे–बड़े औऱ अमीर–गरीब के भेद को मिटाने का कार्य बखूबी करती आई है। पिछले अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि कांवड़ यात्रा में मैने अनेक धनकुबेरों को देखा, जो शायद ही कभी अपने पैर जमीन पर रखते हों, लेकिन वे भी श्रद्धापूर्वक बोल बम के जयकारे के साथ भगवान शिव के जलाभिषेक को जा रहे हैं। रास्ते में संन्यासी की तरह दूसरों के साथ मिल-बैठकर कुछ भी खा–पी रहे हैं या अन्यान्य कांवड़ियों के साथ रास्ते में बनने वाले अस्थायी शिविरों में आराम कर रहे हैं।
बेशक कांवड़ यात्रा में ज्यादा तादाद गरीब और निम्न-मध्य वर्गीय लोगों की ही होती थी, जिनकी जिंदगी में तीर्थ या सैर–सपाटे के लिए कोई स्थान नहीं है। यह कांवड़ यात्रा उन्हें श्रद्धा–भक्ति के साथ संक्षिप्त तीर्थयात्रा का आभास कराती थी। पूरे रास्ते मानो कांवड़िये का भगवान शिव से मौन संवाद चल रहा हो, क्योंकि हर भक्त के होठों पर बुदबुदाहट साफ नजर आती थी। कांवड़ यात्रा पर विवाद य़ा राजनीति के लिए तब कोई स्थान ही नहीं था। बाबा धाम को जाने वाले रास्तों पर जो कुछ अस्थायी कैंप बनते थे, उन्हें असीम श्रद्धा-भक्ति व समर्पण वाले भक्त आयोजित करते थे। जिनके लिए कांवड़ियों की सेवा-सुश्रुषा से बड़ा पुण्य अर्जन का कोई माध्यम नहीं हो सकता था। वे मिट्टी और कीचड़ से सने कांवड़ियों के पैरों को सहलाने को आतुर रहते थे। ताकि वे थोड़े सुस्ताकर आगे बढ़ सकें।
शिविरों के सामने रास्ते पर ही वे हाथों में चाय–शिंकजी का गिलास थामे खड़े रहते, जिससे कोई कांवड़िया संकोच के चलते इसे स्वीकार करने से वंचित न रह जाए। घने अंधकार में आयोजक रोशनी का प्रबंध करते, जिससे कांवड़ियों को रास्ता देखने में किसी प्रकार की परेशानी न हो। राजनीतिक लाभ की मंशा में किसी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। हर शिविर के पास एक दानबॉक्स रखा होता था, जिसने श्रद्धापूर्वक कुछ डाल दिया तो डाल दिया। तब सोचा भी नहीं जा सकता था कि यह धार्मिक यात्रा कभी राजनीतिक वाद–विवाद का हथियार बन जाएगी।
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