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tarkeshkumarojha
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पशिचम बंगालः कांग्रेस या भाजपा – दोराहे पर ममता बनर्जी
किसी भी तरह की चुनावी वैतरणी पार करने के लिए वक्त की मांग को समझना तो जरूरी है ही, एक भरोसेमंद साथी की भी बड़ी जरूरत होती है। 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी इस कड़वे सत्य से दो- चार हो चुकी है। भाजपा नीत राजग सरकार में रेल मंत्री रह चुकी ममता बनर्जी इस चुनाव में महज अकेले जीत पाई थी। उनके सभी उम्मीदवार चुनाव हार गए थे। गठबंधन की महत्ता और वक्त की मांग को समझने की भूल की कीमत 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद सुप्रीमो 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव को चुकानी पड़ी। संप्रग-1 के मनमोहन सिंह सरकार में उनकी हैसियत अच्छी – भली थी। लगातार पांच साल तक रेल मंत्री रहने के बाद लालू यादव का आत्म विश्वास इस कदर बढ़ गया था, कि वे खुलेआम प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर करने लगे थे। कांग्रेस से अपने नजदीकी संबंधों के बावजूद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले द लित और अल्पसंख्यक वोटों की चिंता ने लालू को इस कदर म ति भ्रम का शिकार बनाया , कि उन्होंने गठबंधन के लिए अपने कटु आचोलक राम विलास पासवान की पार्टी लोक जन श क्ति को चुना। हर तरह के विकल्प खुला रखने की चाल के तहत लालू ने चुनावी सभाओं में उस कांग्रेस पर आरोपों के तीर बरसाने शुरू कर दिए। जिसकी बदौलत वे लगातार पांच साल तक रेल मंत्री रहे। आखिरकार उन्हें इसका खामियाजा चुनाव बाद लगातार राजनैतिक निर्वासन भुगत कर चुकाना पड़ा। अरसे बाद प शिचम बंगाल में इसी प्रकार की परिस्थिति में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी फंसी नजर आ रही है। एफडीआई के मुद्दे पर कांग्रेस व संप्रग का साथ छोड़ चुकी ममता बनर्जी अब दोहारे पर नजर आ रही है। वे समझ नहीं पा रही है कि मिशन 2014 यानी लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के साथ रहें, या भाजपा के। फिलहाल वे दोनों विकल्प खुले रखना चाह रही है। हालांकि सच्चाई यह भी है कि प शिचम बंगाल में सीमित ही सही जनाधार व वोटबैंक कांग्रेस का ही है। इसके मुकाबले भाजपा का आधार अत्यंत सीमित है। फिलहाल तो ममता बनर्जी कांग्रेस और संप्रग पर हमले जारी रखे हुए हैं। लेकिन कहना मुशिकल है कि 2014 में होने जा रहे चुनाव तक वे कांग्रेस से दूरी बनाए रख पाएंगी। क्योंकि भाजपा के साथ जाने में उनके सामने सबसे बड़ी कठिनाई अल्पसंख्यक वोटों की है। इस वर्ग की नाराजगी का भय काफी अहम है। क्योंकि माना जाता है कि प श्चिचम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाने में अल्पसंख्यक वोटों का बड़ा महत्व रहा है। वैसी अतीत पर नजर डालें तो वर्ष 1998 में अपने स्थापना काल से ही उस साल हुए पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का भाजपा के साथ गठबंधन हुआ था। हालांकि 2001 में तहलका कांड के बाद ममता बनर्जी राजग से अलग हो गई, और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ा। यद्य पि नतीजे संतोषजनक नहीं रहे। 2006 के विधानसभा चुनाव में टीएम सी और भाजपा के बीच फिर गठबंधन हुआ। लेकिन सफालता इस बार भी नहीं मिल सकी। लेकिन इसके बाद शुरू हुए सिंगुर और नंदीग्राम कांड ने तृणमूल कांग्रेस की श कित में लगातार इजाफा करना शुरू किया। जिसका फायदा पार्टी को अपने बलबूते 2008 के पंचायत चुनाव में मिला। इसके बाद जंगल महल में शुरू हुए नक्सली समस्या ने वाममोर्चा के आधार को कमजोर करना शुरू किया। 2009 में कांग्रेस के साथ फिर गठबंधन कर तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा की 9 सीटें जीत ली, तो 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा,कि आने वाले दिनों में ममता बनर्जी का राजनैतिक रूख क्या होगा।

किसी भी तरह की चुनावी वैतरणी पार करने के लिए वक्त की मांग को समझना तो जरूरी है ही, एक भरोसेमंद साथी की भी बड़ी जरूरत होती है। 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी इस कड़वे सत्य से दो- चार हो चुकी है। भाजपा नीत राजग सरकार में रेल मंत्री रह चुकी ममता बनर्जी इस चुनाव में महज अकेले जीत पाई थी। उनके सभी उम्मीदवार चुनाव हार गए थे। गठबंधन की महत्ता और वक्त की मांग को समझने की भूल की कीमत 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद सुप्रीमो 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव को चुकानी पड़ी। संप्रग-1 के मनमोहन सिंह सरकार में उनकी हैसियत अच्छी – भली थी। लगातार पांच साल तक रेल मंत्री रहने के बाद लालू यादव का आत्म विश्वास इस कदर बढ़ गया था, कि वे खुलेआम प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर करने लगे थे। कांग्रेस से अपने नजदीकी संबंधों के बावजूद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले द लित और अल्पसंख्यक वोटों की चिंता ने लालू को इस कदर म ति भ्रम का शिकार बनाया , कि उन्होंने गठबंधन के लिए अपने कटु आचोलक राम विलास पासवान की पार्टी लोक जन श क्ति को चुना। हर तरह के विकल्प खुला रखने की चाल के तहत लालू ने चुनावी सभाओं में उस कांग्रेस पर आरोपों के तीर बरसाने शुरू कर दिए। जिसकी बदौलत वे लगातार पांच साल तक रेल मंत्री रहे। आखिरकार उन्हें इसका खामियाजा चुनाव बाद लगातार राजनैतिक निर्वासन भुगत कर चुकाना पड़ा। अरसे बाद प शिचम बंगाल में इसी प्रकार की परिस्थिति में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी फंसी नजर आ रही है। एफडीआई के मुद्दे पर कांग्रेस व संप्रग का साथ छोड़ चुकी ममता बनर्जी अब दोहारे पर नजर आ रही है। वे समझ नहीं पा रही है कि मिशन 2014 यानी लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के साथ रहें, या भाजपा के। फिलहाल वे दोनों विकल्प खुले रखना चाह रही है। हालांकि सच्चाई यह भी है कि प शिचम बंगाल में सीमित ही सही जनाधार व वोटबैंक कांग्रेस का ही है। इसके मुकाबले भाजपा का आधार अत्यंत सीमित है। फिलहाल तो ममता बनर्जी कांग्रेस और संप्रग पर हमले जारी रखे हुए हैं। लेकिन कहना मुशिकल है कि 2014 में होने जा रहे चुनाव तक वे कांग्रेस से दूरी बनाए रख पाएंगी। क्योंकि भाजपा के साथ जाने में उनके सामने सबसे बड़ी कठिनाई अल्पसंख्यक वोटों की है। इस वर्ग की नाराजगी का भय काफी अहम है। क्योंकि माना जाता है कि प श्चिचम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाने में अल्पसंख्यक वोटों का बड़ा महत्व रहा है। वैसी अतीत पर नजर डालें तो वर्ष 1998 में अपने स्थापना काल से ही उस साल हुए पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का भाजपा के साथ गठबंधन हुआ था। हालांकि 2001 में तहलका कांड के बाद ममता बनर्जी राजग से अलग हो गई, और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ा। यद्य पि नतीजे संतोषजनक नहीं रहे। 2006 के विधानसभा चुनाव में टीएम सी और भाजपा के बीच फिर गठबंधन हुआ। लेकिन सफालता इस बार भी नहीं मिल सकी। लेकिन इसके बाद शुरू हुए सिंगुर और नंदीग्राम कांड ने तृणमूल कांग्रेस की श कित में लगातार इजाफा करना शुरू किया। जिसका फायदा पार्टी को अपने बलबूते 2008 के पंचायत चुनाव में मिला। इसके बाद जंगल महल में शुरू हुए नक्सली समस्या ने वाममोर्चा के आधार को कमजोर करना शुरू किया। 2009 में कांग्रेस के साथ फिर गठबंधन कर तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा की 9 सीटें जीत ली, तो 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा,कि आने वाले दिनों में ममता बनर्जी का राजनैतिक रूख क्या होगा।

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