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संबंधों की आभासी दुनियां

तकनीक-ए- जहॉ
तकनीक-ए- जहॉ
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खाली बैठना अब हमें नहीं सुहाता. किसी भी कार्य में अगर थोड़ा सा भी समय देना पड़ता है तो मन विचलित हो जाता है, ऐसा लगता है कि इतना खाली समय, इतनी देर में अगर कुछ काम हो जाता तो कितना मज़ा आता. ऐसे में समय काटने का सबसे अच्छा साधन है मोबाइल फोन और इंटरनेट. कुछ करने को नहीं है, ऐसे में हम अपना मोबाइल फोन उठाते हैं और लगा देते हैं फोन अपने किसी भी जानने वाले को और कट जाता है समय. इसके अलावा दूसरा जरिया है इंटरनेट. लोग इंटरनेट के साथ घंटों अपना समय काट सकते हैं और अब तो आप अपने मोबाइल फोन में भी इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं.

पहले ऐसा नहीं था, अगर पहले कहीं ऐसे खाली बैठना पड़ता था तो समय व्यतीत करने का सबसे अच्छा जरिया था दूसरे लोगों से बातचीत. किसी भी व्यक्ति से बातें करना शुरू कर दो फिर क्या है, पता ही नहीं चलता था कि कब वह अनजान आपका दोस्त बन जाता था और बन जाता था एक नया रिश्ता. आज भी ऐसा होता है. हम अपने तकनीक के ज़रिए अपने जानने वालों के करीब रहते हैं. लेकिन क्या हम नए रिश्ते बनाते हैं? शायद हाँ और शायद नहीं भी?

तकनीक विकास का एक नया चेहरा है सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक या ट्विटर इत्यादि. लोगों से जुड़ने का सबसे बड़ा ज़रिया. लोगों से जुड़ने के लिए बस इन साइटों पर रजिस्टर करने की ज़रूरत पड़ती है और फिर हो जाती है एक अनदेखी दुनिया आपकी. अनदेखी इसलिए क्योंकि इंटरनेट की दुनिया आभासी है जहां आप लोगों से जुड़ते तो हैं लेकिन अपने भावों को प्रकट नहीं कर सकते. सही मायनों में हम परंपरागत तरीकों को छोड़ सिर्फ एक आभासी जिंदगी की तरफ़ बढ़ रहे हैं. उस दुनिया की तरफ़ जिसे दूसरी दुनिया या सेकंड लाइफ कहना गलत नहीं होगा.

किसी भी सोशल नेटवर्किंग साइट के किसी भी ग्रुप का फलसफा एक अजीबोगरीब फिनॉमिना है. यहां हम अपना संसार बनाते हैं. इस संसार में हम हर वह कार्य कर सकते हैं जो हम असल जिंदगी में कर सकते हैं. पैसा कमाने से लेकर ऑफिस खोलने तक और खास बात यह है कि हम इस दुनिया में अकेले नहीं हैं बल्कि करोड़ों लोग हैं जो इस दुनिया में आपके साथ हैं. सही मायनों में यह एक तरह की मानसिक स्थिति है, जिसमें दिमाग तो जुड़ा है पर शरीर नहीं.

ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि तकनीकी विकास का सबसे बड़ा फायदा दिमाग को मिला. इसका सबसे बड़ा उदाहरण सोशल नेटवर्किंग साइट है जहां आप दिमाग के सहारे कुछ भी कर सकते हैं लेकिन शरीर इन सभी कार्यों से अंजान रहता है. कहना गलत नहीं होगा कि अब शरीर और दिमाग की दूरी बढ़ गई है, जहां दिमाग अपने आपको आगे समझने लगा है. यह दूरी धीरे-धीरे और बढ़ेगी. लेकिन यह सही नहीं है. क्योंकि प्रकृति का नियम कहता है कि जीवन में सामंजस्य ज़रुरी होता है. लेकिन क्या मौजूदा दौर इस सामंजस्य की गणना करता है? शायद नहीं…………!

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