हालांकि जल्द ही भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा, मगर पार्टी के अंदर चर्चा ही है कि उस पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हावी रहेंगे। इस बात की सुगबुगाहट पहले से ही है कि नए अध्यक्ष की नियुक्ति मोदी की सहमति से ही होगी। यानि अध्यक्ष कहने मात्र का होगा, जबकि सारे निर्णयों पर मोदी ही मुहर लगवानी होगी। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर भी बहस छिड़ी हुई है।
असल में यह मुद्दा इस कारण उठा क्योंकि मोदी ने प्रधानमंत्री आवास में पार्टी महासचिवों की बैठक बुला ली। उन्होंने महासचिवों से विमर्श किया और उन्हें भी सांगठनिक निर्देश दिए। इसमें भी पेच ये रहा कि इसके बारे में अध्यक्ष राजनाथ सिंह को कोई सूचना नहीं थी। राजनाथ सिंह ने तो बाद में बैठक में मौजूद महासचिवों से फोन करके जानकारी ली। जाहिर तौर पर वे सकते में आ गए होंगे। हालांकि वे अब मंत्री बन चुके हैं, मगर जब तक नया अध्यक्ष मनोनीत नहीं हो जाता, तब तक वे ही अध्यक्ष हैं। इस घटना को इस रूप में लिया गया कि मोदी यह साफ कर देना चाहते थे कि उनके नाम से मिले जनसमर्थन को वे कमजोर नहीं होने देंगे। मोदी ने एक और हरकत भी की। वो यह कि पार्टी आफिस जाकर वहां काम करने वाले कर्मचारियों से मिले और उन्हें बोनस दिया।
ऐसे में सवाल उठने लगे कि क्या पार्टी का पृथक अध्यक्ष होने के बावजूद उनका इस प्रकार संगठन में दखल देना उचित है। इस बारे में कुछ का कहना रहा कि चूंकि संगठन को दिशा देने की जिम्मा अध्यक्ष का है, तो प्रधानमंत्री को संगठन के मामले में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोई बात करनी भी तो पार्टी अध्यक्ष की जानकारी में ला कर संयुक्त बैठक करनी चाहिए। अगर इस प्रकार अध्यक्ष को जानकारी में लाए बिना पार्टी पदाधिकारियों की बैठक लेंगे तो अध्यक्ष का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा। उसकी सुनेगा भी कौन? या फिर असमंजस में पड़ेगा कि मोदी को राजी करे या अध्यक्ष को? किसकी मानें? यदि अध्यक्ष किसी मुद्दे पर पृथक राय रखता होगा तो टकराव होगा, जो कि संगठन के लिए ठीक नहीं होगा। इससे तो बेहतर है कि पार्टी और संघ बैठ कर तय कर लें कि पार्टी के एजेंडे को ठीक से लागू करने के लिए प्रधानमंत्री व अध्यक्ष दोनों ही पद मोदी के पास रहेंगे।
दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है जो कि यह मानता है कि मोदी को पार्टी पदाधिकारियों को दिशा निर्देश देने का पूरा अधिकार है क्योंकि उन्हीं के बलबूते पर ही पार्टी सरकार में आई है। अगर मोदी का चेहरा न होता तो भाजपा को कभी इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिलता। पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही तो इस मुकाम पर पहुंची है, इस कारण उन्हें पूरा अधिकार है कि वे सरकार चलाने के साथ-साथ संगठन को भी मजबूत करें। उनका तर्क ये है कि चूंकि देश में अच्छे दिन लाने के लिए मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने का मौका मिला है, इस कारण जनता की अपेक्षाएं सीधे तौर पर मोदी से हैं। वे तभी अच्छी सरकार चला पाएंगे जबकि संगठन भी उनके कहे अनुसार चले। वैसे भी सरकार को बेहतर चलाने के लिए बेहतर ये है कि सत्ता के दो केन्द्र न हों।
वस्तुत: देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में पहुंची भारतीय जनता पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर हैं। मोदी के करिश्माई नाम पर भाजपा ने वह हासिल कर लिया है, जो इसके संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी हासिल न हो सका था। पार्टी के दूसर शीर्ष पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी को भी रथयात्रा के जरिए सफलता मिली, मगर वे भाजपा को सत्ता के नजदीक भी नहीं ला सके। यहां तक कि आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने पर भी सफलता हाथ नहीं आई। ऐसे में पूर्ण बहुमत दिलाने वाले मोदी की हैसियत पार्टी अध्यक्ष से भी ऊंची हो गई है।
हालांकि मोदी समर्थकों का कहना है कि मोदी का संगठन में सीधे दखल देना गलत अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पार्टी को मां के समान मानते हैं। उसे मजबूत बनाए रखना चाहते हैं। दूसरे पक्ष को इस पर संदेह है। वो यह कि कहीं मां की सेवा के बहाने कहीं ये पूरी पार्टी पर कब्जा करने की नियत तो नहीं है।
कुल मिला कर मोदी की वर्किंग स्टाइल और ताजा हालत से तो यही लगता है कि पार्टी अध्यक्ष नाम मात्र का होगा और वह मोदी के कहे अनुसार ही चलेगा। वजह साफ है। मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब उनक सामने खड़ा बराबर के दर्जे से कोई भी बात नहीं कर पाएगा। मोदी की हैसियत कितनी बड़ी हो गई है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि जिन नेताओं पर अध्यक्ष का भार था, वे ही अब मोदी के मंत्रीमंडल में शामिल हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
हालांकि जल्द ही भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा, मगर पार्टी के अंदर चर्चा ही है कि उस पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हावी रहेंगे। इस बात की सुगबुगाहट पहले से ही है कि नए अध्यक्ष की नियुक्ति मोदी की सहमति से ही होगी। यानि अध्यक्ष कहने मात्र का होगा, जबकि सारे निर्णयों पर मोदी ही मुहर लगवानी होगी। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर भी बहस छिड़ी हुई है।
असल में यह मुद्दा इस कारण उठा क्योंकि मोदी ने प्रधानमंत्री आवास में पार्टी महासचिवों की बैठक बुला ली। उन्होंने महासचिवों से विमर्श किया और उन्हें भी सांगठनिक निर्देश दिए। इसमें भी पेच ये रहा कि इसके बारे में अध्यक्ष राजनाथ सिंह को कोई सूचना नहीं थी। राजनाथ सिंह ने तो बाद में बैठक में मौजूद महासचिवों से फोन करके जानकारी ली। जाहिर तौर पर वे सकते में आ गए होंगे। हालांकि वे अब मंत्री बन चुके हैं, मगर जब तक नया अध्यक्ष मनोनीत नहीं हो जाता, तब तक वे ही अध्यक्ष हैं। इस घटना को इस रूप में लिया गया कि मोदी यह साफ कर देना चाहते थे कि उनके नाम से मिले जनसमर्थन को वे कमजोर नहीं होने देंगे। मोदी ने एक और हरकत भी की। वो यह कि पार्टी आफिस जाकर वहां काम करने वाले कर्मचारियों से मिले और उन्हें बोनस दिया।
ऐसे में सवाल उठने लगे कि क्या पार्टी का पृथक अध्यक्ष होने के बावजूद उनका इस प्रकार संगठन में दखल देना उचित है। इस बारे में कुछ का कहना रहा कि चूंकि संगठन को दिशा देने की जिम्मा अध्यक्ष का है, तो प्रधानमंत्री को संगठन के मामले में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोई बात करनी भी तो पार्टी अध्यक्ष की जानकारी में ला कर संयुक्त बैठक करनी चाहिए। अगर इस प्रकार अध्यक्ष को जानकारी में लाए बिना पार्टी पदाधिकारियों की बैठक लेंगे तो अध्यक्ष का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा। उसकी सुनेगा भी कौन? या फिर असमंजस में पड़ेगा कि मोदी को राजी करे या अध्यक्ष को? किसकी मानें? यदि अध्यक्ष किसी मुद्दे पर पृथक राय रखता होगा तो टकराव होगा, जो कि संगठन के लिए ठीक नहीं होगा। इससे तो बेहतर है कि पार्टी और संघ बैठ कर तय कर लें कि पार्टी के एजेंडे को ठीक से लागू करने के लिए प्रधानमंत्री व अध्यक्ष दोनों ही पद मोदी के पास रहेंगे।
दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है जो कि यह मानता है कि मोदी को पार्टी पदाधिकारियों को दिशा निर्देश देने का पूरा अधिकार है क्योंकि उन्हीं के बलबूते पर ही पार्टी सरकार में आई है। अगर मोदी का चेहरा न होता तो भाजपा को कभी इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिलता। पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही तो इस मुकाम पर पहुंची है, इस कारण उन्हें पूरा अधिकार है कि वे सरकार चलाने के साथ-साथ संगठन को भी मजबूत करें। उनका तर्क ये है कि चूंकि देश में अच्छे दिन लाने के लिए मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने का मौका मिला है, इस कारण जनता की अपेक्षाएं सीधे तौर पर मोदी से हैं। वे तभी अच्छी सरकार चला पाएंगे जबकि संगठन भी उनके कहे अनुसार चले। वैसे भी सरकार को बेहतर चलाने के लिए बेहतर ये है कि सत्ता के दो केन्द्र न हों।
वस्तुत: देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में पहुंची भारतीय जनता पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर हैं। मोदी के करिश्माई नाम पर भाजपा ने वह हासिल कर लिया है, जो इसके संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी हासिल न हो सका था। पार्टी के दूसर शीर्ष पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी को भी रथयात्रा के जरिए सफलता मिली, मगर वे भाजपा को सत्ता के नजदीक भी नहीं ला सके। यहां तक कि आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने पर भी सफलता हाथ नहीं आई। ऐसे में पूर्ण बहुमत दिलाने वाले मोदी की हैसियत पार्टी अध्यक्ष से भी ऊंची हो गई है।
हालांकि मोदी समर्थकों का कहना है कि मोदी का संगठन में सीधे दखल देना गलत अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पार्टी को मां के समान मानते हैं। उसे मजबूत बनाए रखना चाहते हैं। दूसरे पक्ष को इस पर संदेह है। वो यह कि कहीं मां की सेवा के बहाने कहीं ये पूरी पार्टी पर कब्जा करने की नियत तो नहीं है।
कुल मिला कर मोदी की वर्किंग स्टाइल और ताजा हालत से तो यही लगता है कि पार्टी अध्यक्ष नाम मात्र का होगा और वह मोदी के कहे अनुसार ही चलेगा। वजह साफ है। मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब उनक सामने खड़ा बराबर के दर्जे से कोई भी बात नहीं कर पाएगा। मोदी की हैसियत कितनी बड़ी हो गई है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि जिन नेताओं पर अध्यक्ष का भार था, वे ही अब मोदी के मंत्रीमंडल में शामिल हैं।
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