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राजस्थान की शेरनी वसुंधरा बेबस क्यों?

the third eye
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सुराज संकल्प यात्रा के जरिए लोगों के विश्वास कायम करने वाली श्रीमती वसुंधरा राजे ने मोदी लहर के सहारे राजस्थान में प्रचंड बहुमत तो हासिल कर लिया, मगर सत्ता संभालने के आठ माह बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल का गठन न कर पाने को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं। यह पहला मौका है कि वसुंधरा इतनी ताकतवर होने के बाद भी कमजोर दिखाई दे रही हैं, वरना विपक्ष में रहते हुए तो उन्होंने हाईकमान को इतना नचाया था कि उन्हें भी मुलायम, ममता, मायावती, जयललिता की तरह खुद के दम पर राजनीति करने वाली क्षत्रप के गिना जाने लगा था।
आपको याद होगा कि पिछली बार जब उनके नेतृत्व में भाजपा हार गई थी तो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम माथुर के साथ उन्हें भी नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने को कहा गया था, प्रदेश अध्यक्ष माथुर ने तो तुरंत हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, मगर वसुंधरा अड़ गईं। विधायकों पर उनकी इतनी जबदस्त पकड़ थी कि उनके दम पर वे हाईकमान से भिड़ गईं। काफी दिन तक नाटक होता रहा और बमुश्किल उन्होंने पद छोड़ा। छोड़ा भी ऐसा कि उनके बाद किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। आखिरकार हाईकमान को झुकना पड़ा और देखा की वे बहुत ताकतवर हैं और संगठन बौना तथा उनकी उपेक्षा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता तो फिर नेता प्रतिपक्ष बनने का आग्रह किया। एकबारगी तो उन्होंने इंकार कर दिया, मगर पर्याप्त अधिकार देने और उनके मामले में हस्तक्षेप न करने के आश्वासन पर ही मानीं। चुनाव नजदीक आते देख जब लगा कि उनके मुकाबले को कोई भी नेता नहीं है जो भाजपा की वैतरणी पार लगा सके, तो प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया। वे पार्टी के भरोसे पर पूरी तरह से खरी उतरीं भी। न केवल विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलवाया, अपितु लोकसभा चुनाव में भी पच्चीसों सीटें जितवा कर दीं। यानि कि वे पहले के मुकाबले और अधिक ताकतवर हो गई हैं। मगर अब जब मंत्रीमंडल का विस्तार करने की जरूरत है तो ऊपर से हरी झंडी नहीं मिल पा रही। सत्ता संभालते ही उन्होंने न्यूनमत जरूरी 12 मंत्रियों का मंत्रीमंडल बनाया, मगर बाद में उसका विस्तार नहीं कर पाई हैं। यानि कि इन 12 मंत्रियों के सहारे ही सरकार के सारे मंत्रालयों का कामकाज किया जा रहा है, जबकि कुल 30 मंत्री बनाए जा सकते हैं। हालत ये है कि नसीराबाद के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट के अजमेर का सांसद बनने के बाद भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही हैं, जबकि वे विधायक पद से इस्तीफा दे चुके हैं। अभी वे बिना विधायकी के मंत्री हैं। इसको लेकर कांग्रेस ने हंगामा मचा रखा है कि सांसद रहते नियमानुसार उन्हें मंत्री नहीं माना जा सकता, मगर विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने कांग्रेस की आपत्ति को नजरअंदाज कर रखा है।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि मंत्रीमंडल के विस्तार की सख्त जरूरत है, विवाद से बचने के लिए और सरकार को ठीक से काम करने के लिए भी, मगर विस्तार नहीं हो पा रहा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो इस मुद्दे को लेकर हमला भी बोला है कि भारी बहुमत के बावजूद आठ माह से केबिनेट तक नहीं बना पा रही हैं। इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है। इसको लेकर लोगों में इस सरकार के प्रति निराशा उत्पन्न हो रही है। मगर वसुंधरा मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहीं तो शंका होती ही है कि आखिर बात क्या है? विस्तार लगातार टलता जा रहा है। समझा जाता है कि यह स्थिति केन्द्र से तालमेल के अभाव में उत्पन्न हुई है। उनकी पसंद के सांसद, विशेष रूप से अपने सांसद बेटे को मंत्री को मंत्री नहीं बनवा पायी हैं। पच्चीस सांसदों पर एक ही मंत्री निहाल चंद मेघवाल बनाए गए हैं, मगर वे भी उनकी पसंद के नहीं हैं। माना जाता है कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल के विस्तार की गुत्थी के साथ राजस्थान मंत्रीमंडल का विस्तार अटका हुआ है। यूं कहा तो ये जा रहा है कि लिस्ट फाइनल है, मगर उसे स्वीकृति नहीं मिल पा रही। पहले राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष रहते उसे अटकाया और अब नए अध्यक्ष अमित शाह पेच फंसाए हुए हैं। समझा जा सकता है कि अमित शाह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ की कठपुतली हैं और नरेन्द्र मोदी जब चाहेंगे, जैसा चाहेंगे, उसी के अनुरूप मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। खैर, राजस्थान की शेरनी वसुंधरा की मोदी के सामने जो हालत है, उसे देखते तो यही लगता है कि दोनों के बीच ट्यूनिंग कुछ गड़बड़ है। वैसे उम्मीद यही है कि अगस्त माह में मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। केन्द्र का भी और राज्य का भी। तभी पता लगेगा कि वसुंधरा में कितना दमखम है और उनकी पसंद कितनी चल पाई है। वैसे संभावना यही है कि उन्हें स्थानीय संघ लॉबी से मिल कर ही चलना होगा।
-तेजवानी गिरधर

vasundhara-3-300x213सुराज संकल्प यात्रा के जरिए लोगों के विश्वास कायम करने वाली श्रीमती वसुंधरा राजे ने मोदी लहर के सहारे राजस्थान में प्रचंड बहुमत तो हासिल कर लिया, मगर सत्ता संभालने के आठ माह बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल का गठन न कर पाने को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं। यह पहला मौका है कि वसुंधरा इतनी ताकतवर होने के बाद भी कमजोर दिखाई दे रही हैं, वरना विपक्ष में रहते हुए तो उन्होंने हाईकमान को इतना नचाया था कि उन्हें भी मुलायम, ममता, मायावती, जयललिता की तरह खुद के दम पर राजनीति करने वाली क्षत्रप के गिना जाने लगा था।

आपको याद होगा कि पिछली बार जब उनके नेतृत्व में भाजपा हार गई थी तो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम माथुर के साथ उन्हें भी नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने को कहा गया था, प्रदेश अध्यक्ष माथुर ने तो तुरंत हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, मगर वसुंधरा अड़ गईं। विधायकों पर उनकी इतनी जबदस्त पकड़ थी कि उनके दम पर वे हाईकमान से भिड़ गईं। काफी दिन तक नाटक होता रहा और बमुश्किल उन्होंने पद छोड़ा। छोड़ा भी ऐसा कि उनके बाद किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। आखिरकार हाईकमान को झुकना पड़ा और देखा की वे बहुत ताकतवर हैं और संगठन बौना तथा उनकी उपेक्षा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता तो फिर नेता प्रतिपक्ष बनने का आग्रह किया। एकबारगी तो उन्होंने इंकार कर दिया, मगर पर्याप्त अधिकार देने और उनके मामले में हस्तक्षेप न करने के आश्वासन पर ही मानीं। चुनाव नजदीक आते देख जब लगा कि उनके मुकाबले को कोई भी नेता नहीं है जो भाजपा की वैतरणी पार लगा सके, तो प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया। वे पार्टी के भरोसे पर पूरी तरह से खरी उतरीं भी। न केवल विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलवाया, अपितु लोकसभा चुनाव में भी पच्चीसों सीटें जितवा कर दीं। यानि कि वे पहले के मुकाबले और अधिक ताकतवर हो गई हैं। मगर अब जब मंत्रीमंडल का विस्तार करने की जरूरत है तो ऊपर से हरी झंडी नहीं मिल पा रही। सत्ता संभालते ही उन्होंने न्यूनमत जरूरी 12 मंत्रियों का मंत्रीमंडल बनाया, मगर बाद में उसका विस्तार नहीं कर पाई हैं। यानि कि इन 12 मंत्रियों के सहारे ही सरकार के सारे मंत्रालयों का कामकाज किया जा रहा है, जबकि कुल 30 मंत्री बनाए जा सकते हैं। हालत ये है कि नसीराबाद के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट के अजमेर का सांसद बनने के बाद भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही हैं, जबकि वे विधायक पद से इस्तीफा दे चुके हैं। अभी वे बिना विधायकी के मंत्री हैं। इसको लेकर कांग्रेस ने हंगामा मचा रखा है कि सांसद रहते नियमानुसार उन्हें मंत्री नहीं माना जा सकता, मगर विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने कांग्रेस की आपत्ति को नजरअंदाज कर रखा है।

बहरहाल, मुद्दा ये है कि मंत्रीमंडल के विस्तार की सख्त जरूरत है, विवाद से बचने के लिए और सरकार को ठीक से काम करने के लिए भी, मगर विस्तार नहीं हो पा रहा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो इस मुद्दे को लेकर हमला भी बोला है कि भारी बहुमत के बावजूद आठ माह से केबिनेट तक नहीं बना पा रही हैं। इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है। इसको लेकर लोगों में इस सरकार के प्रति निराशा उत्पन्न हो रही है। मगर वसुंधरा मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहीं तो शंका होती ही है कि आखिर बात क्या है? विस्तार लगातार टलता जा रहा है। समझा जाता है कि यह स्थिति केन्द्र से तालमेल के अभाव में उत्पन्न हुई है। उनकी पसंद के सांसद, विशेष रूप से अपने सांसद बेटे को मंत्री को मंत्री नहीं बनवा पायी हैं। पच्चीस सांसदों पर एक ही मंत्री निहाल चंद मेघवाल बनाए गए हैं, मगर वे भी उनकी पसंद के नहीं हैं। माना जाता है कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल के विस्तार की गुत्थी के साथ राजस्थान मंत्रीमंडल का विस्तार अटका हुआ है। यूं कहा तो ये जा रहा है कि लिस्ट फाइनल है, मगर उसे स्वीकृति नहीं मिल पा रही। पहले राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष रहते उसे अटकाया और अब नए अध्यक्ष अमित शाह पेच फंसाए हुए हैं। समझा जा सकता है कि अमित शाह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ की कठपुतली हैं और नरेन्द्र मोदी जब चाहेंगे, जैसा चाहेंगे, उसी के अनुरूप मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। खैर, राजस्थान की शेरनी वसुंधरा की मोदी के सामने जो हालत है, उसे देखते तो यही लगता है कि दोनों के बीच ट्यूनिंग कुछ गड़बड़ है। वैसे उम्मीद यही है कि अगस्त माह में मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। केन्द्र का भी और राज्य का भी। तभी पता लगेगा कि वसुंधरा में कितना दमखम है और उनकी पसंद कितनी चल पाई है। वैसे संभावना यही है कि उन्हें स्थानीय संघ लॉबी से मिल कर ही चलना होगा।

-तेजवानी गिरधर

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