लेख की शुरूआत मैं कुछ बयानों से करना चाहूँगा। हो सकता है कि ये बयान आपस में संबद्ध न हों, फिर भी कुछ साझा मतलब अवश्य निकलता है।
शुरूआत तस्लीमा नसरीन के ट्वीट से –
’’भारत के ज्यादातर सेक्युलर हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक हैं।’’
त्रिपुरा के गर्वनर श्री तथागत रॉय –
’’मैं काफी खुशकिस्मत हूँ कि मैं 70 साल का हो चुका हूँ और जब तक पश्चिम बंगाल इस्लामिक बनेगा, तब तक मैं ऐसा होता देखने के लिए जिंदा नहीं रहूँगा।’’
आज़म खान (सपा) पैरिस अटैक के संदर्भ में –
’’अगर यह घटना किसी एक्शन का रिएक्शन है, तो इसके बारे में सुपरपॉवर्स को सोचना चाहिए कि यह कहां का रिएक्शन था’’
अबू आज़मी (सपा) – ’’इस हमले के लिए पश्चिम दोषी है (सारे बयान का सार)।’’
सारे इस्लामी विद्वान – ’’इस्लाम एक शांति का मज़हब है, हिंसा के लिए इस्लाम में कोई जगह नहीं है, जो सारे विश्व में इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने का कार्य कर रहे हैं, उनका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है।’’
जमीयत-ए-उलेमा हिंद – ’’इस्लाम में क्रिया की प्रतिक्रिया की कोई जगह नहीं है और इस्लाम के नाम पर मासूमों की हत्या करना इस्लाम के नाम का दुरुपयोग करना है। इस्लाम किसी को मारने की इजाज़त नहीं देता।
डॉ. ज़ाकिर नाईक (एनडीटीवी पर एक कार्यक्रम में) – मैं अल-क़ायदा को आतंकवादी संगठन नहीं मानता।’’
शक़ील अहमद (कांग्रेस) – ’’यदि छोटा राजन और अनूप चेतिया मुसलमान होते तो मोदी सरकार का रवैया उनके प्रति अलग होता।’’
असद्दुदीन ओवैसी सहित सारे मुस्लिम प्रतिनिधि (आतंकी याक़ूब मेमन की फांसी के वक़्त) – ’’याक़ूब मेमन को मुसलमान होने की सज़ा मिली। यदि वह हिंदू होता तो उसे फांसी नहीं होती।’’
सारे स्वघोषित सेक्युलर (इस्लाम के नाम पर आतंकवाद पर)– ’’आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’’
भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी को पद से हटाने के लिए पाकिस्तान से मदद की गुहार लगाने वाले कांग्रेस नेता श्री मणिशंकर अय्यर – ’’9/11 के बाद से बिना सोचे-समझे मुसलमानों को मारोगे जैसा कि अमेरिका ने इराक़ और अफ़ग़ान में किया तो इसका रिएक्शन तो होगा ही, यह लाज़िमी है’’
श्री पी.के. अब्दु (शिक्षा मंत्री, केरल) – ’’उनसे व्यक्तिगत या शिक्षा मंत्री के तौर पर पूछा जाए तो वह इस बात से सहमत नहीं हैं कि क्लास में लड़के और लड़कियां एक साथ बैठें।’’
आज़म खान (रेप पीड़िता द्वारा शिक़ायत करने पर सार्वजनिक रूप से) – ’’ऐसे ही शोहरत बटोरेंगी तो ज़माने को शक़्ल कैसे दिखाएंगी?’’
अबु आज़मी (निर्भया रेपकांड के बाद) – ’’हमारे इस्लाम में बलात्कार की सज़ा केवल मौत है।’’
अहमद शहज़ाद (पाकिस्तानी क्रिकेटर) – ’’यदि आप नॉन-मुस्लिम हैं और बाद में ये धर्म अपना लें तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप ज़िन्दगी में क्या कर रहे हैं, आप सीधे जन्नत ही पहुँचेंगे।’’
अंतानिया लेइरिस (एक फ्रांसिसी नागरिक, पैरिस आतंकवादी हमले में अपनी पत्नी को खोने के बाद) – ’’शुक्रवार की रात को तुम लोगों ने मेरी ज़िन्दगी से असाधारण व्यक्ति को अलग कर दिया। मेरी ज़िन्दगी का प्यार और मेरे बेटे की मां…… लेकिन इसके बावजूद तुम मेरी नफ़रत के हक़दार नहीं हो…… मैं नफ़रत करने का ’उपहार’ तुम्हें नहीं दूँगा।’’
और भी कई हैं, पर अभी इतने ही।
हाल ही में परम सत्यवादी और भ्रष्टाचारियों के कट्टर दुश्मन श्री अरविंद केजरीवाल ने बिहार में शपथग्रहण के दौरान चारा घोटाले के सज़ायाफ़्ता मुजरिम लालू प्रसाद यादव को मन ही मन क्लीनचिट व ईमानदारी का सर्टिफिकेट देकर जीत के लिए बधाई दी।
स्वघोषित सेक्युलर नेता श्री असदुद्दीन ओवैसी ने कुछ दिन पहले किसी टीवी चैनल पर कई सारे इंटरव्यू दिए थे, जिनमें कही गई उनकी सारी बातें ही आपत्तिजनक थीं, किन्तु एक बात उन्होंने ऐसी कही जो हैरान करने के साथ ही बेहद चिंताजनक थी और जो उनका मूल चरित्र भी सामने लाती है, वह यह कि भारतीय जेलों में क़ैदियों का अनुपात धर्म के हिसाब से नहीं है। मुस्लिम क़ैदियों की संख्या उनकी जनसंख्या के हिसाब से ज़्यादा है यानि उनके अनुसार यदि भारत में मुस्लिम 14% हैं तो जेलों में कुल मुस्लिम क़ैदी भी 14% ही होने चाहिए। इसी प्रकार हिन्दू यदि 83% हैं तो जेलों में कुल हिन्दू क़ैदियों की संख्या भी कुल क़ैदियों की 83% ही होना चाहिए। उनके अनुसार यह मुस्लिमों के साथ ज़्यादती है। उनके अनुसार क़ैदियों की संख्या का आधार अपराध न होकर, धर्म होना चाहिए। उनकी बातें सुनकर मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि अपने आप को मुस्लिमों का हितैषी कहने वाले इन नेताओं में वह कौन-सा ज़हर व्याप्त है जो अंदर ही अंदर उनको तथा बाहर निकलने पर देश के सांप्रदायिक सद्भाव को जलाने का कार्य कर रहा है।
कुछ दिन पूर्व ओवैसी की पार्टी ने प्रवक़्ता के तौर पर वारिस पठान नामक एक बेहद ही जाहिल आदमी को नियुक्त किया था। वैसे तो उसने अपने जाहिलाना बयानों से ओवैसी का बेड़ाग़र्क़ ही किया, पर फिर भी एक बात उसने ऐसी कही जो भविष्य में कभी संभव नहीं लगते हुए भी डराने वाली थी। उसका कहना था कि जब असदुद्दीन ओवैसी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे तो वे …… …. वग़ैरह वग़ैरह।
भले ही यह एक ख़्याली पुलाव था, पर था बेहद डरावना।
कुछ दिन पूर्व सेक्युलरों और बुद्धिजीवियों को देश ’असहिष्णु’ लग रहा था जिसके तहत् इनके द्वारा भाजपा, आरएसएस और माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी को पानी पी-पीकर कोसा जा रहा था, किन्तु हाल ही की एक घटना ने इन सारे सहिष्णुता के पक्षधरों का असली रूप प्रकट किया है। ख़बरों के अनुसार तमिलनाडु में लोकगायक कोवन को केवल इसीलिए देशद्रोह के आरोप में क़ैद कर लिया गया कि उन्होंने तमिलनाडु की सरकार और जयललिता की आलोचना की थी।
मेरे मतानुसार यह अहिष्णुता की पराकाष्ठा है कि यदि कोई आपके विरोध में मत रखे तो उसे देशद्रोह के आरोप क़ैद करके मुक़दमा चलाया जाए। इतने असहिष्णु क़दम के बाद भी देश के सारे सेक्युलर विद्वान एवं सहिष्णुता के पक्षधर बुद्धिजीवी मौन धारण करके बैठे हैं। शायद वे इसे ही ’सहिष्णुता’ कहते हैं।
बिहार चुनाव के बाद देशभर से वैसे तो असहिष्णुता जा चुकी है, किन्तु कुछ सेक्युलर नेता संवैधानिक पद पर बैठकर भी देश में ’असहिष्णुता’ का माहौल महसूस कर रहे हैं तथा मोदी सरकार को बार-बार नसीहतें दिए जा रहे हैं।
आप अवश्य जानते ही होंगे कि डीएमके के एम.के. स्टालिन एवं एम. करूणानिधि नामक सेक्युलर नेता ईद, क्रिसमस एवं अन्य सभी ग़ैर-हिन्दू त्यौहारों पर बधाई अवश्य देते हैं, किन्तु हिन्दू धर्म को हेय दृष्टि से देखते हैं या यह कहें कि नफ़रत करते हैं। वे किसी भी हिन्दू त्यौहार पर देश के हिन्दुओं को बधाई या शुभकामनाएं देना ज़रूरी नहीं समझते तथा हिन्दू धर्म का खुलकर विरोध करते हैं, क्योंकि वे अपने आप को सेक्युलर सिद्ध करना चाहते हैं।
पिछली वर्ष एम.के.स्टालिन के ट्विटर अकांउट को हैंडल करने वाले अतिउत्साही व्यक्ति ने उनकी तरफ़ से गणेश चतुर्थी पर बधाई दी थी, जिसपर स्टालिन से खेद जताते हुए ट्वीट वापस ले लिया था और स्पष्टीकरण दिया था हम हिन्दू त्यौहारों पर बधाई नहीं देते और यह बधाई ग़लती से दी गई थी।
इस तरह के लोग भारत के लगभग 100 करोड़ हिन्दुओं की आबादी के प्रति दुर्भावनापूर्ण व षड़यंत्रपूर्वक विरोध करने के बावजूद यदि सुरक्षित हैं, तो निश्चित् ही हिन्दुओं की सहिष्णुता का इससे बड़ा उदाहरण कोई नहीं हो सकता।
अंत में – श्री नरेन्द्र मोदी जी ने हाल ही में आतंकवादी हमलों के मद्देनज़र सूफ़ी मत को लेकर एक बयान दिया था, जिससे सहमत नहीं हुआ जा सकता है। सूफ़ी मत के संदर्भ में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि अतीत में जितना धर्म परिवर्तन तलवार के ज़ोर पर किया गया था, उतना ही सूफ़ी फ़कीरों द्वारा भी किया गया। अतः इसे हम शांतिपूर्ण तरीक़े के करवाये जाने वाले धर्म परिवर्तन का नायाब तरीक़ा भी कह सकते हैं।
सूफ़ीवाद क्या है? क्या यह एक पंथ है, परंपरा है या पूजा की एक पद्धति है? जो भी हो, पर इसका धर्म परिवर्तन से क्या लेना-देना है, यह स्पष्ट होना चाहिए।
इसे हम एक उदाहरण से स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि पिछले कुछ समय से प्रसिद्ध सूफ़ी ग़ायक श्री हंसराज ’हंस’ के इस्लाम क़बूलने की चर्चा थी। हम मानते हैं कि उन्हें सूफ़ी ग़ायन पसंद है और पाकिस्तान में भी उनके काफ़ी प्रशंसक हैं, किन्तु क्या सिर्फ़ इसीलिए उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया कि वे सूफ़ी परंपरा का पालन करना चाहते थे? यहां प्रश्न उठता है कि क्या सूफ़ी परंपरा धर्म या पंथ निरपेक्ष है? साथ ही यह भी कि सूफ़ी परंपरा का पालन करने के लिए धर्म परिवर्तन करना क्यों ज़रूरी है? और ऐसा धर्म परिवर्तन कितना जायज़ है? क्या श्री हंसराज ’हंस’, हिंदू या सिख, जिस भी पंथ के वे मानने वाले हैं, रहते हुए भी सूफ़ी परंपरा/पंथ या पद्धति इत्यादि का पालन नहीं कर सकते थे।
बड़ा सवाल यह है कि क्या अपने मूल धर्म पर क़ायम रहते हुए हम किसी अन्य धर्म/मत/पंथ आदि का सम्मान नहीं कर सकते। धर्म परिवर्तन क्यों आवश्यक है?
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