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यह सोचने का विषय है कि एक तरफ जहां भारतीय लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया को पूरे विश्वभर में तारीफ मिलती है, वहीं दूसरी तरफ इसी लोकतंत्र में आज भी राजनीतिक पार्टियों के बीच धर्म और जाति से ऊपर उठकर कुछ माना ही नहीं गया। पार्टियां इसी के ईर्द-गिर्द रहकर राजनीति साधने से बाज नहीं आ रही हैं। हर कोई किसी खास वर्ग और समुदाय को लुभाने में ही लगा है। इसके लिए वह राष्ट्रविरोधी भाषा बोलने में भी नहीं हिचकता। मुद्दा यह है कि क्या आज की भारतीय राजनीति तिलक, टोपी और पगड़ी तक ही सिमटकर रह गई है?
इस मुद्दे पर राजनीतिक जानकारों का एक पक्ष मानता है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में पार्टियों और राजनेताओं को सबको साथ लेकर चलना होगा। यहां टोपी भी पहननी होगी तथा तिलक भी लगाना होगा।
वहीं दूसरा पक्ष यह मानता है कि जो पार्टी धर्म की बात करती है उसका मकसद वोट बैंक के रूप में केवल चुनावी लाभ लेना है। वह टोपी और तिलक की तो बात करती है लेकिन उस समुदाय में रह रहे गरीब और वंचित लोगों के विकास के बारे में नहीं सोचती।
आज का मुद्दा
क्या आज की भारतीय राजनीति तिलक, टोपी तक ही सिमटकर रह गई है?
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