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“पिछले चार महीने से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक धड़ा उनके तथा उनकी पार्टी के बारे में खबरों में छेड़छाड़ कर रहा है। अगर तत्काल इस तरह की खबरों को नहीं रोका गया तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कुचलदिया जाएगा”।
आपको लग रहा होगा कि धमकीनुमा अंदाज में दिया गया यह बयान पाकिस्तान के किसी दूरदराज इलाके में तालिबानी आतंकवादी गुट का है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि यह बयान विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के केंद्रीय गृहमंत्री और शोलापुर से कांग्रेस नेता सुशील कुमार शिंदे ने दी है। हालांकि इस बयान के बाद शिंदे ने साफ किया कि उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में कुछ भी नहीं कहा। साथ ही सफाई दी कि मैंने जर्नलिज्म पत्रकारिता के बारे में भी कुछ नहीं कहा है। मेरा मतलब सोशल मीडिया से था।
वैसे भारतीय मीडिया के खिलाफ इस तरह के तीखे तेवर केवल कांग्रेस पार्टी में ही देखने को नहीं मिलते। सत्ता की उम्मीद लगाई बैठी भारतीय जनता पार्टी और देश की कई क्षेत्रीय पार्टियों में भी मीडिया के खिलाफ भड़ास निकालने के लिए बहुत कुछ है। अगर खबरों की मानें तो भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के पक्ष में खबर चलवाने के लिए मोदी के समर्थक मीडिया के संपादकों पर दबाव बना रहे हैं। यह नहीं विभिन्न राजनीतिक गुटों द्वारा मीडिया को धमकाना, उन पर लांछन लगाना आज के इस दौर में आम चलन हो चुका है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की आजादी खतरे में है? क्या आने वाले वक्त में विभिन्न राजनीति गुट मीडिया की आजादी पर प्रतिबंध लगाने के लिए कोई कानून बना सकते हैं?
यह तो बात हुई मीडिया को निशाना बनाने वाले उन लोगों की जिन्हें लगता है कि कहीं न कहीं मीडिया की वजह से उन्हें काफी नुकसान हो रहा है. लेकिन एक दूसरा गुट भी है जो मीडिया के कामकाज को लेकर हमेशा सवाल उठाता रहा है। इनका मानना है कि बाजार ने मीडिया के कलेवर को पूरी तरह से बदल दिया। इनके लिए न्यूज एक खबर नहीं बल्कि पैसे कमाने का जरिया है। आज निष्पक्षता और पारदर्शिता का दावा करने वाली भारतीय मीडिया बाजार के इशारे पर सब कुछ तय करती है। पेड न्यूज इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
आज का मुद्दा
क्या लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की आजादी खतरे में है?
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