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‘मीठा-मीठा गप्प, तीखा-तीखा थू’ यह कहावत आपने जरूर सुन रखा होगा। कुछ ऐसी ही स्थिति आजकल राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस में देखने को मिल रही है, जहां पार्टी के युवराज राहुल गांधी को लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी से बचाने के लिए पार्टी के सभी नेता एक ही सुर में बातें कर रहे हैं। दरअसल 16वीं लोकसभा चुनाव का शोर थम चुका है अब सभी की नजरें आने वाले 16 मई पर टिकी हुई हैं जब हार-जीत का फैसला सबके सामने आ जाएगा। सभी तरह के सर्वे में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए को विजेता घोषित किया गया है जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए को भारी नुकसान होता दिखाया गया है।
तमाम एक्जिट पोल में निराशाजनक तस्वीर सामने आने के बाद कांग्रेस ने राहुल को किसी भी दोषारोपण से बचाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं और कहा कि लोकसभा चुनाव के नतीजे चाहे जो भी हों, यह एक सामूहिक जिम्मेदारी होगी। पार्टी के महासचिव शकील अहमद ने कहा, “राहुल गांधी सरकार में नहीं हैं, वह पार्टी में दूसरे नंबर पर हैं। सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं और स्वाभाविक तौर पर यहां स्थानीय नेतृत्व भी है। लिहाजा यह सब सामूहिक है।“
राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस की यह आदत हो चुकी है। पार्टी या यूपीए सरकार जब भी कोई अच्छा काम करती है तो उसका श्रेय खुद-ब-खुद राहुल गांधी को दे दिया जाता है, वहीं जब पार्टी को शासकीय, प्रशासकीय और चुनावी स्तर पर नुकसान होता है तो इसकी जिम्मेदारी सामूहिक तौर पर या तो पार्टी पर लाद दी जाती है या मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, जबकि नुकसान में कहीं न कहीं राहुल गांधी का भी बड़ा हाथ रहता है। इस तरह की मिसाल 2012 में उस समय देखने को मिली जब राहुल गांधी ने पूरी जिम्मेदारी के साथ उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जोर-शोर से प्रचार किया। उम्मीद लगाई जा रही थी कि राहुल की मेहनत उत्तर प्रदेश में रंग लाएगी, लेकिन जब पार्टी को 400 सीटों में से महज 37 सीटें मिलीं तो इसकी सारी जिम्मेदारी राहुल की बजाय पार्टी की झोली में डाल दी गई।
आज का मुद्दा
क्यों नहीं राहुल को चुनावी हार का दोषी ठहराया जाता है?
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