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****माँ*****
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जीवन की थकान से
जब बोझल हुई पलकें मेरी
गम से भरपूर
जब मन मेरा तड़प उठा
जब जिम्मेदारियाँ संभालते
मैं निढाल हुई
किसी नेह की बरसात को
तब मेरा मन तरस उठा ॥
तब !तब! आँखें ढूंढ रही थी
किसी मेरे अपने को
जो रोते मन को सुकून दे
किसी ऐसे सपने को ।।
मैंने अपने साथी को
इसी उम्मीद से निहारा
मगर कुछ दुख अपनी पलकों में
फिर बंद कर लिए
मैंने अपने बच्चों को भी
इसी हसरत से पुकारा
पर उन्होने भी बयान अपने
सवाल चंद कर दिये ॥
पर जिन अपनों से ही शिकायत हो
उनसे कैसे कहें अपनी बात
जो ‘सपने’ चुभते हो पलकों में
उन्हे कैसे लगाएँ हाथ ॥
मैंने हर तरफ इस उम्मीद से देखा
कहीं तो कोई मेरा होगा
जिससे कह सकूँ मैं हर बात
पोंछ मेरे आँसू
जो रो लेगा मेरे साथ ॥
हिम्मत वाली थी मैं पर
हौसला अब टूटने वाला था
ज़िंदगी का साथ भी जैसे
बस छूटने वाला था ॥
पलकें बंद की कि
क्या छोडू क्या पाऊँ
मैं किसी को क्यूँ
अपनी बातें समझाऊँ॥
बंद आँखों में तभी
एक अपना दिखाई दिया
मुझे मेरी माँ का
सपना दिखाई दिया ॥
दौड़ कर जा पहुँची
अपनी माँ के पास
उसने एक मौन के साथ
फेरा सिर पर हाथ ॥
अश्रु एक निकला मेरा
जा गिरा माँ की गोद में
बिना पुछे ही माँ को
जैसे सब हो गया एहसास॥
अश्रु पोछे उसने मेरे
मुझको गले लगाया
धन्यवाद किया मैंने तभी प्रभु का
जिसने माँ को बनाया ॥ …. पूनम ‘मनु’
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