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इकॉनमी का डिजिटाइज़्ड कल

RASHTRA BHAW
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एक समय था जब धन प्रत्यक्ष उपयोग की वस्तुओं के रूप में हुआ करता था, फिर सोने चाँदी आदि की मुद्राओं को उपयोग की सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व दे दिया गया। लेकिन प्रतिनिधित्व की यह मानक व्यवस्था भी काफी हद तक स्पष्ट थी क्योंकि इन धातुओं को प्रकृति ने इनके गुणों व सीमित उपलब्धता के चलते बहुमूल्य बना रखा था। ये अर्थ का ऐसा स्वरूप था जिसके मूल्यन का सम्पूर्ण नियंत्रण मनुष्य के हाथ में नहीं था किन्तु इसका स्वामित्व प्रत्यक्ष हुआ करता था। बाद में हमारी आवश्यकताएं बढ़ीं और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी बढ़ा, प्रतिनिधिक अर्थ की आवश्यकता भी बढ़ी अतः विश्व के अलग-अलग भाग में अपेक्षाकृत अधिकता में उपलब्ध ताँबा आदि धातुओं ने मुद्राओं का रूप लेना प्रारम्भ कर दिया। मुद्रा की मात्रा और इस प्रकार उसका नियंत्रण अब अपेक्षाकृत अधिक मनुष्य (शासक वर्ग) के हाथ में आ गया।

इसके बाद आधुनिक काल में अर्थ का प्रतिनिधित्व कागज को दे दिया गया; एक ऐसा पदार्थ जिसे जितना चाहे जैसे चाहे बनाया जा सकता था। सोने को मानक बनाया तो अवश्य गया किन्तु ये व्यवस्था इतनी अपारदर्शी थी कि आम आदमी के लिए उसमें झांक पाना तो दूर उसे समझ पाना भी कठिन हो गया.!! अब जनसामान्य का अर्थ पर से सीधा नियंत्रण समाप्त हो गया और परिणाम स्वरूप अपारदर्शी व्यवस्थाओं के पीछे अर्थशास्त्र का ऐसा पाखण्ड रचा गया कि सबसे अधिक प्राकृतिक सम्पदा वाले देश सबसे अधिक गरीब हो गए.!! पहले जिस किसी भी वस्तु से पेट भर जाता था वही संपत्ति होती थी, लेकिन अब संपत्ति कागज के वे रंगे हुये टुकड़े हैं जिनका मूल्य एक मानकीकृत व्यवस्था तय करती है लेकिन वो व्यवस्था कैसे मानकीकृत होती है इसे विश्व के 99 प्रतिशत लोग नहीं जानते, हाँलाकि यह व्यवस्था आम लोगों के लिए ही है और उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है.!!!

समय एक बार फिर परिवर्तन की ओर है, अब कागज के रुपयों को कंप्यूटर के अंदर डिजिटाइज़्ड करके बंद कर दिया गया है। आज हमें अपनी अधिकांश आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कागज के स्पृश्य नोटों की आवश्यकता नहीं रह गई है.! हमारी पीढ़ी के वेब नेटिव युवाओं लिए रुपयों के मायने बदल चुके हैं! उदाहरण के लिए मुझे अपने एक महीने में खर्च किए गए रुपयों का उतना ही हिस्सा कागज के नोटों के रूप में खर्च करना पड़ता है जितना फुटकर खरीददारी में खर्च होता है। अन्यथा चाहे ऑनलाइन शॉपिंग हो, मॉल या शोरूम से खरीददारी हो, होटल में पेमेंट करना हो, टिकिट बुक करना हो या फिर कोई और खर्चा या तो बस कंप्यूटर पर बटन दबाने होते हैं या फिर जेब से कार्ड निकालकर एक मशीन में रगड़ना भर होता है.! कागज के रुपयों का, जो हमारी जेब का वजन बढ़ाते हैं और खर्च होते हैं तो जेब को हल्का करते हैं, उपयोग समाप्त सा होता जा रहा है.! पैसा वेतन या आय के रूप में सीधे खाते में आता है और अधिकांश बिना देखे छूए जहां जाना होता है चला जाता है! अब मुझे यदि कुछ पैसा फिक्स करना है या किसी और खाते में जमा करना है तो भी केवल कंप्यूटर पर बस दो मिनट खटपट करने की आवश्यकता होती है.! अर्थात हमारी अर्थव्यवस्था कागज के युग से डिजिटल युग में आ गई है। इसके कई मायने हैं.!

अर्थव्यवस्था के कागज के युग में अर्थ के मूल्यन अवमूल्यन व समूची व्यवस्था पर हमारा नियंत्रण नहीं रहा था लेकिन अर्थ पर भौतिक स्वामित्व हमारा ही था। अर्थात हमारे पास यदि 1 लाख रुपया हैं तो वे भौतिक रूप से हमारे पास ही रहेंगे जब तक कि हम उन्हें रखें, हाँलाकि उनकी कीमत कितनी रह जाएगी ये बेहद अनिश्चितता भरा हो गया। पहले सीधा हिसाब था, पेट भर अनाज के बदले पहनने भर कपड़े आपको मिल जाते थे, लेकिन अब पेट भर अनाज के बदले पतलून मिलना कठिन हो गया.! अब हर चीज की तरह पैसा डिजिटल हो रहा है, ये विचित्र भी है और स्वाभाविक भी.! अर्थ के युग में पैसे ने सब कुछ डिजिटाइज़ किया तो पैसा बिना डिजिटाइज्ड हुये कैसे रह सकता था.?

लेकिन इस डिजिटाइज्ड इकॉनमी ने आम आदमी के पास से संपत्ति के भौतिक स्वामित्व को भी छीन लिया.! चूंकि आने वाले समय में इकॉनमी का लगभग पूरी तरह से डिजिटाइज़्ड होना तय है अतः अब न पैसे की कीमत आम आदमी तय करेगा न उसका भौतिक स्वामित्व उस पर होगा। अर्थात किसी भी व्यक्ति की संपत्ति पूरी तरह आभासी हो जाएगी.! जीवन पूरी तरह ऐसी व्यवस्था पर निर्भर होगा जिसकी न एक आम आदमी को समझ होगी न उस पर उसका नियंत्रण होगा.! प्रश्न ये है कि आधुनिक और आरामदेह दिखने वाली ये व्यवस्थाएं कितनी सही होंगी और इनके परिणाम दुष्परिणाम क्या होंगे.! निश्चित रूप से मैं इस पर कोई निष्कर्ष जल्दबाज़ी में नहीं निकालना चाहता लेकिन मेरा इतना अवश्य मानना है कि जो व्यवस्थाएं तथाकथित रूप से मानव समुदाय के लिए हैं उनमें प्रत्येक व्यक्ति की सीधी भागीदारी अवश्य होनी चाहिए। यही लोकतान्त्रिक तरीका भी है और ईमानदार पारदर्शी प्रणाली भी.! जिस व्यवस्था में नागरिकों की जितनी सीमित भागीदारी व नियंत्रित हस्तक्षेप होता है वो उतनी ही अधिक भ्रष्ट होती है। भ्रष्टाचार मनुष्य को उसके मौलिक अधिकार से वंचित करता है और सामाजिक असमानता को जन्म देता है। सामाजिक असमानता ही अत्याचार की जड़ है जो मनुष्यों में विभाजन की दरार डालती है, विभाजन टकराव को और टकराव सामाजिक, राष्ट्रीय व वैश्विक अशांति को जन्म देता है। विकास को तो वैश्विक शांति लेकर आना चाहिए।

मैं नई तकनीकी ऊंचाइयों या बदलती व्यवस्था के खिलाफ बिलकुल नहीं हूँ क्योंकि मैं परिवर्तन को स्वाभाविक और अपरिहार्य मानता हूँ, इसके अतिरिक्त मैं खुद आधुनिक व्यवस्था और तकनीक का सबसे अधिक प्रयोग करता हूँ। मेरे अनुसार विषय यही है कि हमें अपने प्रत्येक नए कदम को लेकर केवल इसीलिए खुश नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि ये एक नया कदम है, प्रश्न ये होना चाहिए कि नया कदम सही है या गलत.?? प्रश्न मेरे मन में एक बार फिर से इसलिए आया क्योंकि आज जब मैं यूं ही एक शॉपिंग मॉल चला गया और शॉपिंग ट्रॉली भर ली, बाद में याद आया कि मेरा डेबिट कार्ड जोकि जेब में रहता है कुछ दिन पहले ही गुम हो गया था.! जेब में बमुश्किल दो हजार रुपए थे और इतने में एक ठीक-ठाक जींस मिल पाती है.! चुपके से ट्रॉली को खाली किया और एक जींस लेकर चला आया.! कागज के नोट देकर खरीददारी करनी होती है ये बात अब दिमाग से उतरने लगी है, अतः आने वाले समय में क्या होगा इसका अनुमान कुछ सवालों के साथ लगा रहा था और वही सवाल यहाँ रख दिये.!!

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-वासुदेव त्रिपाठी

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