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मोदी बनाम कॉंग्रेस के चुनावी समीकरण

RASHTRA BHAW
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2014 के लोकसभा चुनाव यदि अपने नियत समय पर होते हैं तो उनमें अभी पर्याप्त समय है किन्तु फिर भी इन आम चुनावों को लेकर जितनी उथल-पुथल मच रही है व राजनैतिक सरगर्मियाँ जिस कदर परवान चढ़ गयी हैं वो इस चुनाव को भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में कई मायनों में अलग बनाता है। हाँलाकि इस चुनाव की अपेक्षा पिछले सभी लोकसभा चुनाव या तो मेरे जन्म के पहले हुये या तो अनुभव व समझ के मामले में मैं उतना परिपक्व नहीं था व राजनीति के प्रवाह को उतने करीब से नहीं देखा था जितना कि अब देख रहा हूँ। 2009 के चुनाव पहले आम चुनाव थे जब मैंने वोट डाला था और विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में सक्रिय भागीदार बना था। अतः हो सकता है कि ये चुनाव मेरे लिए ज्यादा ही महत्वपूर्ण हों लेकिन फिर भी बहुत से ऐसे अभूतपूर्व कारण हैं जिनके चलते ये आम चुनाव कई मायनों खास बन जाते हैं।

अगर हम गौर करें तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कई तात्कालिक कारणों के चलते 1977 तक सत्ता पर कॉंग्रेस का एकछत्र राज्य रहा। मार्च 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की पहली गैर-कॉंग्रेस सरकार बनी लेकिन अपने पाँच साल भी पूरे नहीं कर पायी और भारत के लोकतन्त्र पर किसी एक पार्टी के एकाधिकार को दी गयी पहली चुनौती तीन साल से भी कम समय में ढेर हो गई। किन्तु यह समय भारतीय लोकतन्त्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण, क्रान्तिकारी और दूरगामी प्रभाव डालने वाला रहा। जयप्रकाश आंदोलन के परिणाम स्वरूप बनी इस पहली गैर-कॉंग्रेस सरकार ने एकाधिकार की राजनीति द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल की प्रतिक्रिया को संसद तक पहुंचाने का काम किया था और देश में एक वैकल्पिक मानसिकता व विश्वास को जन्म दिया था। आज के भारत की राजनीति का प्रत्येक पहलू प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस तीन साल की सरकार से प्रभावित है।

भारतीय राजनीति का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कालखण्ड नब्बे के दशक का था जब जनता पार्टी के राजनैतिक पतन के बाद भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और कॉंग्रेस विरोधी विकल्प की कवायत एक बार फिर शुरू हुई। राम मंदिर आंदोलन के उद्देश्यों व परिणामों की वैसे बहुत सी आलोचक व समर्थक व्याख्याएँ होती रहती हैं किन्तु सांप्रदायिक असांप्रदायिक की बहस से हटकर यह एक तथ्य है कि इस आंदोलन के चलते ही लोगों को विश्वास हो पाया कि कॉंग्रेस का एक वास्तविक विकल्प हो सकता है। बुद्धिजीवियों व विश्लेषकों का एक वर्ग प्रायः तर्क देता है कि राममंदिर आंदोलन जैसे सांप्रदायिक मुद्दे की राजनीति के कारण भाजपा अपनी राष्ट्रीय स्वीकार्यता स्थापित नहीं कर पा रही है और सेकुलर राजनीति में एक अछूत बन गई है। लेकिन कड़वा तथ्य यह है कि इसी सांप्रदायिक मुद्दे ने भाजपा को न केवल 2 सीटों से 184 के आंकड़े तक पहुंचाया बल्कि कॉंग्रेस की एकछत्र राजनीति को हमेशा के लिए विदा कर दिया। जयप्रकाश नारायण का पूर्ण लोकतान्त्रिक आंदोलन, जिसमें जाति सम्प्रदाय से परे हर तबके के लोग जुड़े थे, भी कॉंग्रेस को तीन साल से ज्यादा सत्ता से बेदखल नहीं कर पाया था। भाजपा 2009 में बुरी तरह मात खाने के बाद भी न केवल 116 सीटों पर काबिज है बल्कि उसने कॉंग्रेस को उस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया जहां कॉंग्रेस ज्यादा सीटें जीतने की बजाय ज्यादा पार्टियों से गठबंधन की संभावना को अपनी ताकत मानती है। यही लोकतन्त्र की विशेषता है कि जहां जन खड़ा हो गया वहीं जनतन्त्र बन जाता है, सांप्रदायिकता और सेकुलरिज़्म तो अधकचरी सोच के अवसरवादी मुहावरे मात्र हैं जिनका परिपक्व लोकतन्त्र में कोई स्थान नहीं होता।

सांप्रदायिकता और सेकुलरिज़्म की जुबानी उठापटक के बींच भारत की 21वीं सदी का ये राजनैतिक दौर मेरे दृष्टिकोण से भारतीय लोकतन्त्र का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कालखण्ड है जिसमें दूरगामी प्रभाव की संभावनाएं छिपी हो सकती हैं। आज बदले हुये समय में ये पहला चुनाव होगा जब भारतीय मतदाता इतनी बड़ी संख्या में सोशल मीडिया और मोबाइल फोन जैसे माध्यमों से इतना अधिक जानकारी से भरा है। दूसरी ओर रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर सरकार बुरी तरह बेआबरू हो चुकी है। सरकार की बड़े पैमाने पर असफलताएं संचार क्रांति के इस युग में जंगल में आग की तरह किस कदर फैलीं ये यूपीए सरकार की सोशल मीडिया को लेकर बेचैनी खुद ही बताती है। और भी महत्वपूर्ण है कमजोर और नेतृत्वहीन विपक्ष के रूप में भटकती भाजपा को मोदी के रूप में एक खेवनहार मिल गया है। मोदी यूपीए सरकार में मनमोहन से लेकर सोनिया तक सीधा और तीखा निशाना साधते हैं और अपनी लोकप्रियता के चलते उन्होने अकेले ही एक कमजोर विपक्ष को बेहद आक्रामक विपक्ष में बदल डाला है। आज पूरी कॉंग्रेस और यूपीए सरकार के लिए अकेले मोदी ही विपक्ष बन चुके हैं और और कॉंग्रेस की मोदी को लेकर बौखलाहट से ऐसा लगता भी है।

उपरोक्त कारण या परिस्थितियाँ अकेले अपने आप में कोई ऐसा परमाणु बम नहीं हैं जो पूरे नक्से को एक झटके में बदल देंगे किन्तु संगठित रूप से ये भारतीय राजनीति को बहुत गहरे तक प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं! लेकिन इन सब परिस्थितियों को अपने पक्ष में प्रयोग कर पाने का पूरा दारोमदार सीधे मोदी के ऊपर ही है क्योंकि उन्होने स्वयं को एक ऐसे सम्मोहक राजनेता के रूप में उभारा है जोकि सीधे कॉंग्रेस मुक्त भारत की बात करता है, वह भी एक ऐसे समय में जब कॉंग्रेस भ्रष्टाचार व असफलता के दागों से पूरी तरह सनी है। दूसरी बात कि भाजपा ने भी अपना पूरा दांव मोदी के ऊपर खेल दिया है। सबसे महत्वपूर्ण है कि मोदी एक ऐसे चेहरे हैं जो एक तरफ भाजपा व संघ की विचारधारा में पूरी तरह सटीक बैठते हैं और दूसरी तरफ विकास, सुशासन व प्रगतिशील एजेंडे के पोस्टर बॉय बन चुके हैं। विपक्षी पार्टियों व आलोचकों के इल्जाम बिलकुल अलग भी हो सकते हैं अथवा आंकड़ों के ग्राफ कहीं कहीं ऊपर नीचे जाते भी दिख सकते हैं लेकिन आम जनमानस में मोदी की छवि का सच आज यही है।

मोदी के सहारे भाजपा यदि हालातों को अपने पक्ष में भुनाने में सफल हो जाती है और पुराने रेकॉर्ड को तोड़कर 200 का आंकड़ा पार कर जाती है तो ये भारतीय राजनीति का एक अभूतपूर्व पड़ाव होगा। इसका कारण है कि ऐसा करने के लिए भाजपा को दो बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश एवं बिहार, में बड़ी विजय करनी होगी जहां क्षेत्रीय राजनीति का दबदबा है। यदि ऐसा होता है तो क्षेत्रीय दलों का केंद्र में हस्तक्षेप का दंभ टूटेगा और क्षेत्रीय राजनीति और केंद्र की राजनीति के बींच स्वाभाविक विभाजन पर जनता की मुहर लग जाएगी। दूसरी ओर कॉंग्रेस का मिथक टूटेगा जोकि गठबंधन के दौर में अपने आपको एकमात्र विकल्प बताती है। लेकिन सत्ता तक पहुँचने के लिए फिर भी मोदी को कम से कम पचास सीटों की जुगाड़ और करनी होगी यदि कोई बहुत बड़ा चमत्कार न हुआ तो.! भाजपा के लिए सबसे बेहतर विकल्प होगा उन राज्यों से साथी तलाशना जहां उसकी अपनी हालत कमजोर है, जैसे कि तमिलनाडू में जयललिता मोदी के लिए संभावित विकल्प हैं। इससे भाजपा को तीन लाभ होंगे- कॉंग्रेस की संभावनाएं सिमटेंगी, उत्तर प्रदेश बिहार जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से कमजोर पड़ेंगे और दक्षिण भारत में भाजपा की संभावनाओं को बल मिलेगा जहां मोदी भाजपा के अब तक के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता बन चुके हैं।

यदि मोदी को आगे कर भाजपा ऐसा कर पाती है और केंद्र की की कुर्सी पर काबिज हो जाती है तो आगे का रास्ता वर्तमान सरकार की नाकामियों के कारण थोड़ा सरल हो जाएगा। मसलन कॉमनवैल्थ, 2G, कोलगेट जैसे घोटाले नहीं होते हैं तो जनता के लिए यही भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी कामयाबी होगी, कुछ कॉंग्रेसी नेताओं को अगर जेल भेजने का बंदोबस्त करने का साहस कर पाया गया तो ये बड़े बोनस जैसा होगा। पिछले दस सालों में दोगुने से ज्यादा हो चुके पेट्रोल-डीजल के दामों में 5-10 रुपए की भी कमी सरकार की जय-जयकार करा देगा जोकि कॉंग्रेस के लिए आने वाले समय में संभावनाएं सीमित कर सकता है.! कॉंग्रेस के लिए और बुरी बात यह होगी कि सेकुलरिज़्म-कम्युनलिज़्म की आड़ उसके पास से छिन जाएगी क्योंकि मोदी की जीत के मायने होंगे कि विकास के साथ जनता को उस हिन्दुत्व से कोई परहेज नहीं होगा जिसे कॉंग्रेस ने सांप्रदायिक करार दे रखा है। गुजरात में कॉंग्रेस ने यही गलती की थी।

आज के इन हालातों को यदि भाजपा और मोदी भुना पाते हैं और आगे इस मुकाम तक पहुँच पाते हैं तो कुल मिलाकर ये कॉंग्रेस के पतन की एक बड़ी कहानी होगी। कॉंग्रेस के कमजोर पड़ने पर आगे के समीकरण क्या होंगे और देश की राजनीति किधर जाएगी ये कहना तो अभी जल्दबाज़ी होगा लेकिन इतना तो तय है कि जो भी होगा वो भारतीय राजनीति के प्रांगड़ का बड़ा फेरबदल होगा.!!

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-वासुदेव त्रिपाठी

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