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अंग्रेज़ियत के कबूतर-छाप रखवाले

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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(एक प्रतिक्रियात्मक फेसबुकिया लेख)

कल राजनाथ सिंह ने एक बयान दिया था कि हमारे देश में संस्कृत अच्छे से समझने वाले मात्र 15000 लोग ही बचे हैं। अंग्रेजी हमारे ऊपर हावी हो रही है, अंग्रेजी से कोई बुराई नहीं है लेकिन अंग्रेज़ियत से बड़ा नुकसान है।
ये बात न जाने कॉंग्रेस को क्यों चाट गयी जबकि भाषा तो हिन्दू-मुसलमान, सेकुलरिज़्म कम्यूनलिज़्म की सीमाओं में भी नहीं आती.?? मनीष तिवारी ने ट्वीट किया कि क्या येमध्यकालीन मानसिकता है.?? इसके बाद कॉंग्रेस के शशि थरूर जैसे नेता एक के बाद एक लगे अंग्रेजी झाड़ने.! कई विद्वान नेता-मंत्री कह रहे थे भाजपा विकास की बात करती है लेकिन अंग्रेजी के खिलाफ है..! भाजपाई भी आक्रामक बचाव की मुद्रा में आ गए कि हम अंग्रेज़ियत के खिलाफ हैं अंग्रेजी के खिलाफ नहीं.!

मैं तो कहता हूँ हद है सूचना प्रसारण मंत्री जैसे नेताओं की बुद्धि की जिन्हें आस-पास की दुनिया की कोई सूचना ही नहीं.!!
कई महानुभाव बता रहे थे कि आज कम्प्युटर का युग है इसलिए अंग्रेजी एक जरूरत बन चुकी है। मुझे आश्चर्य है कि इन विद्वानों (?) और गाँव के उन अनपढ़ गँवारों में कोई अन्तर ही नहीं, दोनों को लगता है कि कम्प्युटर अंग्रेजी भाषा पर चलता है.!
इन्हें पता ही नहीं कि विश्व के विकसित देशों में से अधिकांश, चाहे वो फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, इटली व जापान हों या फिर चीन व रूस जैसी विकासशील महाशक्तियाँ, पूर्णतः मातृभाषी हैं जहां अंग्रेजी नहीं चलती.! कुछ बुद्धिजीवी(?) तो राजनयिक और व्यापारिक सम्बन्धों का उलाहना देते नजर आए, लेकिन यथार्थ यह है कि राजनयिक सम्बन्धों में भारत के सबसे करीब रहा रूस अंग्रेजी भाषी नहीं है और न ही भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार चीन.! अमेरिका के आज के निकटतम सहयोगी फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि कहीं अंग्रेजी नहीं बोली जाती न अंग्रेजी कामकाज की भाषा है.!

अभी सलमान खुर्शीद आसियान की बैठक में ब्रुनेई गए थे, चीन के विदेश मंत्री के साथ वार्ता कर रहे थे जिसे मैं देख रहा था। चीनी पूरे बेधड़क अपनी बात चाइनिज मे बोल रहे, हमारे विदेश मंत्री साहब अङ्ग्रेज़ी अनुवादक की सहायता से अंग्रेजी मे समझ रहे थे। जब पूरी दुनिया अनुवादकों के साथ चल सकती है, पूरी वैश्विक राजनीति कर सकती है तो आपको क्या समस्या.? ?? जब चीन रूस जापान आदि के साथ अधिकांशतः आप अनुवादक पर ही निर्भर हैं तो तो वहाँ अंग्रेजी की क्या मजबूरी.??  वहाँ आप हिन्दी अनुवादक क्यों नहीं रख सकते.??

रूस के राजदूत अलेक्जेंडर कडाकिन ने पिछले महीने भारत में 25 वर्ष पूरे किया, उन्हें बोलते हुये सुन रहा था। मैं तो दंग रह गया उन्हें सुनकर जिस प्रवाह के साथ वो हिन्दी बोल रहे थे। सभी देशों के राजदूत और कम्पनियों के कर्मचारी उस देश की भाषा सीखते हैं जहां जाते हैं, चीनी कम्पनियों के कर्मचारियों को भी मैंने हिन्दी बोलते देखा है।

ऑस्ट्रेलियन प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने एक बयान में कहा था कि और देशों की तरह हमें भारत में अपने राजदूतों को हिन्दी सिखाने की अवश्यकता नहीं है, क्योंकि भारत तो एक अंग्रेजीभाषी लोकतन्त्र है.! फिर उनके एक विदेशी मामलों के विशेषज्ञ ने सलाह दी कि फिर भी हिन्दी सिखाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से भारत का सम्मान होगा.! वो विशेषज्ञ भारत के वैश्विक मामलों के निःसन्देह अच्छे जानकार व अनुभवी रहे होंगे तभी ऐसी सलाह दी, लेकिन उन बेचारे को क्या पता होगा कि भारत के संदर्भ में उल्टा है..!! हमारे प्रधानमंत्री ऑक्सफोर्ड जाते हैं तो अपने भाषण में कहते हैं हम आप अंग्रेजों के सदैव ऋणी रहेंगे कि आपने हमें अंग्रेजी सिखायी और सभ्य व विकसित बनाया.!!

भाजपा की तरह भिनभिना के हम अपनी अपनी बात नहीं कहना चाहते बल्कि सीधे दो टूक कहते हैं कि अंग्रेजी इस देश की सबसे बड़ी समस्या है क्योंकि उसे मातृभाषाओं के ऊपर जबरन थोपा जा रहा है। मेधावी से मेधावी छात्र इसलिए मात खा जाते हैं क्योंकि योग्यता की जगह अंग्रेजी में लबारियत को मापदंड बना के रखा गया है.! अंग्रेजी में महामूर्खता भरी बातें करने वाले बड़ी-बड़ी जगहों पर टाई पर हाथ फेरते ऐंठे खड़े होते हैं और मेधा हीनभावना से ग्रस्त होकर हकलाती खड़ी रहती है.! एक IITian श्याम रुद्र पाठक पिछले 225 दिनों से ज्यादा से धरने पर बैठा है कि अनुच्छेद 348 रद्द करके न्यायालयों में अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं में काम हो ताकि वो व्यक्ति, जो न्याय मांगने गया है, भी समझ सके कि आखिर वकील साहब क्या बोल रहे हैं और जज साहब ने क्या कहा है.! उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता है.! मुझे आश्चर्य है कि वहाँ बीजेपी वाले क्यों नहीं पहुंचे.??

मेरा मानना है कि अंग्रेजी व अन्य विदेशी भाषाएँ पाठ्यक्रम में अवश्य होनी चाहिए, लेकिन एक अतिरिक्त योग्यता के रूप में न कि विवशता के रूप में। यदि ऐसा होता तो मैं अंग्रेजी के स्थान पर जर्मन सीखता और काफी कुछ वास्तविक सीख पाता.! बाद में मैंने जर्मन पढ़ी भी, लेकिन वो बात कहाँ आ पाती है सीमित समय में.!!

कोंग्रेसियों में तो नेहरू के जमाने से अंग्रेजी और अंग्रेज़ियत की गुलामी है। मुझे याद है बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दीक्षान्त समारोह में वरिष्ठ कोंग्रेसी डॉ कर्ण सिंह गए थे और अपने भाषण में अंग्रेज़ियत का रौब झाड़ते हुये बोले, संस्कृत का जमाना चला गया है, कुछ करना है तो अंग्रेजी पढ़ो.! उन्हें शायद अन्य कोंग्रेसियों की भांति पता नहीं था कि दुनिया में संस्कृत सबसे वैज्ञानिक व कम्प्युटर युग की भाषा मानी गयी है। खैर.! ये बात बनारसी बाबुओं को भी शायद पता नहीं रही होगी, लेकिन उन्हें अंग्रेज़ियत रौब के जबाब में बनारसी अंदाज जरूर पता था, और इसके बाद कर्ण सिंह की ऐसी खातिरदारी की गयी ये मुझे बताने में भी कष्ट होता है।

मैं तो मुरीद हूँ बनारसी अल्हड़पन का..! किसी दूसरे की लव स्टोरी मे कोई रुचि न होने के बाद भी मैंने रांझड़ा बनारसी अल्हड़पन व मस्ती के कारण ही देख डाली..!! रंग बिरंगी भारतीयता के आगे पैंट-पॉलिस वाली अंग्रेज़ियत की औकात ही क्या है.???

-वासुदेव त्रिपाठी

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