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संकट में गंगा; संकट में भविष्य

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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(प्रस्तुत लेख मैंने कुछ माह पूर्व एक मैगज़ीन के आग्रह पर उसकी “कवर स्टोरी” के लिए लिखा था, जागरण जंक्शन के सम्मानित ब्लॉगर श्री भरोदिया जी ने मुझसे व्यक्तिगत आग्रह किया कि मैं गंगा की दयनीय दशा पर कुछ लिखूँ, अतः मैं अपने उसी लेख को यहाँ अतिसूक्ष्म परिवर्तन के साथ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैगज़ीन की “कवर स्टोरी” होने के कारण लेख स्वभावतः कुछ अधिक विस्तृत है किन्तु विषय की गंभीरता व उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए मैं काट-छांट न करके सम्पूर्ण लेख रख रहा हूँ, आशा है पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।)


कोई भी मनुष्य अपने जीवन प्रवाह को नष्ट नहीं करना चाहता किन्तु हमारे भारत देश के विषय में ऐसा बिलकुल नहीं है। भारत के जीवन की रक्तवाहिनी गंगा की दिन प्रतिदिन दयनीय होती दशा को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है। 2506 किलोमीटर के बहाव में गंगा तटीय क्षेत्र में देश के 29 महत्वपूर्ण शहर, 48 बड़े कस्बों व लाखों गाँवों में देश की 40 करोड़ से अधिक जनसंख्या बसती है। 11 राज्यों में गंगा देश के 26.4% क्षेत्रफल में 40% से अधिक लोगों को पानी उपलब्ध कराती है किन्तु फिर भी करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केन्द्र माँ गंगा विश्व की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है।

पवित्र गंगा की विडम्बना ही है कि पर्यावरण के क्षेत्र में विश्व की प्रशिद्ध संस्था वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फ़ंड ने मार्च 2007 की अपनी रिपोर्ट में गंगा को विश्व की 10 सबसे अधिक संकटग्रस्त नदियों की सूची में पाँचवें स्थान पर रखा है। वर्तमान में लगभग 290 करोड़ लीटर प्रदूषित सीवेज़ प्रतिदिन टिहरी जैसे बांधों से मृतप्राय हो चुकी गंगा की कोख में डाला जा रहा है। गंगा किनारे बसती 40 करोड़ से अधिक जनसंख्या द्वारा उत्सर्जित प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से गंगा में पहुंचता घरेलू अपशिष्ट निश्चित रूप से प्रदूषण का एक बड़ा कारण है किन्तु इसके निस्तारण की व्यवस्था करने में अक्षम सरकारों की निकम्मई को खतरनाक प्रदूषण की स्रोत औद्योगिक कंपनियाँ जिस तरह अपने ढाल के रूप में प्रयोग करती हैं वह और भी अधिक गम्भीर है। आंकड़ों के आधार पर प्रायः यह बताने का प्रयास होता है कि गंगा के प्रदूषण में औद्योगिक अपशिष्ट का मात्र 20 प्रतिशत योगदान है किन्तु सच यह है कि यह 20 प्रतिशत औद्योगिक अपशिष्ट गंगा की हत्या के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। गंगा के औद्योगिक प्रदूषण की शुरुआत पवित्र तीर्थ हरिद्वार से ही हो जाती है जहां वर्तमान में लगभग एक हजार औद्योगिक इकाइयां काम कर रही हैं। भारत हैवि इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड जैसी विशाल कंपनियों से लेकर कागज, कपड़ा, ऊन, इलेक्ट्रॉनिक्स, रासायनिक खाद व कीटनाशकों की हजारों छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयों द्वारा जिंक, निकिल, कैडमियम, कॉपर, लेड जैसी भारी धातुएं व अन्य पचासों रासायनिक पदार्थ गंगा में छोड़ दिये जाते हैं। एक आंकलन के अनुसार 60 लाख टन रासायनिक खाद व नौ हजार टन कीटनाशक गंगा में प्रतिवर्ष डाले जाते हैं। कानपुर आते ही गंगा भीषण जहरीले प्रवाह में बदल जाती है जहां गंगाजल का रंग तक पानी के स्वाभाविक रंग को छोड़कर रासायनिक लाल-भूरा पड़ जाता है। चमड़ा व्यापार के केंद्र इस शहर में लगभग चार सौ टेनरी चल रही है जिनसे क्रोमियम के साथ साथ सल्फाइड़ अमोनिया जैसे घातक रसायन गंगा में सीधे छोड़े जा रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय तथा उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कई टेनरियों को बंद करने के आदेश भी दिये थे किन्तु दलाली व राजनीति के चलते उससे गंगा की सेहत कितनी सुधर पायी यह बताने के लिए आज की गंगा की हालत खुद पर्याप्त है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि दैहिक दैविक भौतिक तापों के नाश की क्षमता रखने वाली गंगा आज स्वयं गंभीर बीमारियों का कारण बन गई है!

पानी की गुणवत्ता के आधार पर उसे A, B, C, D व E पाँच श्रेणियों में रखा जाता है। B श्रेणी का पानी नहाने योग्य माना जाता है जिसके लिए केंद्रीय प्रदूषण नियामक संस्था द्वारा फेयकल कोलिफोर्म काउंट (FCC), pH, डिजॉल्वड ऑक्सिजन (DO) व बायोलॉजिकल ऑक्सिजन डिमांड (BOD) इन चार मानकों को आधार माना गया है। मुख्यतः देखे जाने वाले pH, BOD व DO हैं, नहाने योग्य पानी के लिए pH 6.5 से 8.5 मिलीग्राम प्रति लीटर, BOD 3 मिलीग्राम प्रति लीटर या उससे कम तथा DO 5 मिलीग्राम प्रति लीटर या अधिक होना चाहिए। सीपीसीबी की 2009 की उपलब्ध रिपोर्ट के अनुसार गंगाजल की BOD ऋषिकेश तक सीमा में है किन्तु हरिद्वार पहुँचते ही 5.6 पहुँच जाती है। कानपुर में गंगाजल की BOD 8.5 व वाराणसी में 10.3 के खतरनाक स्तर पर आँकी गई है। कई बार वाराणसी में ये 16 के आस पास तक पहुँचती देखी गई है। डिजॉल्वड ऑक्सिजन कानपुर में 5.6 तक रेकॉर्ड की गई है। 2012 में वाराणसी में बायोलॉजिकल ऑक्सिजन डिमांड 7.6 तक आँकी गई जबकि फेयकल कोलिफोर्म काउंट 100 गुना तक अधिक देखी गई। कानपुर में गंगाजल का pH 9 से 10 तक नापा जा चुका है जोकि इसे सिंचाई योग्य जल अर्थात श्रेणी E से भी बदतर कर देता है।

गंगाजल की यह घातक स्थिति इसके बावजूद बनी हुई है कि गंगा में ऑक्सिजन संवहन व स्वयं अपने जल को स्वच्छ करने की वह अद्भुत क्षमता विद्यमान है जोकि विश्व की किसी भी नदी में नहीं है। माना जाता है कि गंगा में विशेष बैक्टीरियोफाज़ पाये जाते हैं जोकि बीमारियों को जन्म देने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। हाँलाकि गंगाजल का यह गुण अभी भी शोध का विषय बना हुआ है अतः कई बार इसे अज्ञात कारक या unknown factor का नाम भी दिया जाता है। गंगाजल ऑक्सिजन संवहन की असाधारण क्षमता का कारण भी अभी तक पूरी तरह ज्ञात नहीं हो पाया है जिसके कारण गंगा विश्व की किसी भी नदी की अपेक्षा अपने पानी को शुद्ध करने की 25 गुना अधिक क्षमता रखती है। साथ ही गंगा में किसी भी नदी की अपेक्षा 15 से 20 गुना तेज अपने जल शोधन की क्षमता है यही कारण है कि कानपुर जैसे शहरों में भयानक रूप से प्रदूषित कर दिये जाने पर भी गंगा कुछ ही आगे चलकर सभी मानकों पर अपने आपको अपेक्षाकृत शुद्ध कर लेती है। 1927 में एक फ्रेंच माइक्रोबायोलॉजिस्ट फ्लिक्स डिहेरेले ( Flix dHerelle) ने गंगा मे एक स्थान पर पड़ी लाशों को देखा जो कॉलरा से मरे थे, उन्होने उसके आस पास से पानी का नमूना ले लिया। उन्हें उम्मीद थी कि इसमें कॉलरा के जीवाणुओं की भारी संख्या मिलेगी किन्तु जाँच ने उन्हें आश्चर्य में डाल दिया क्योंकि उस पानी में उन्हें बीमारी का एक भी जीवाणु नहीं मिला। वस्तुतः गंगाजल कॉलरा के लिए उत्तरदायी जीवाणु विब्रिओ कॉलरा को मात्र तीन घण्टे में मार देता है। एक अन्य प्रयोग में सामने आया कि ई-कोलाइ बैक्टीरिअम ताजे, 8 वर्ष पुराने व 16 वर्ष पुराने गंगाजल में क्रमशः 3, 7 व 15 दिन में अपने आप नष्ट हो जाता है। शायद इसी कारण हिन्दू धर्मग्रंथों में गंगा को जीवनदायिनी एवं गंगाजल को अमृत कहा गया है। मृत शरीरों को गंगा में प्रवाहित करने के पीछे पराभौतिक आध्यात्मिक कारण भले ही कुछ और हो किन्तु भौतिक दृष्टि से विभिन्न बीमारियों के जीवाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता के कारण गंगा मे लाशों को प्रवाहित किया जाता रहा होगा। दुर्भाग्य से आज गंगा इतनी अधिक विकृत हो चुकी है कि गंगा में वह क्षमता नहीं रही अतः आज प्रवाहित की जाने वाली लाशें भी प्रदूषण का बड़ा कारण बन चुकी हैं।

गंगा स्वच्छता के नाम पर देश के हजारों करोड़ रुपए अब तक पानी में बहाये जा चुके हैं किन्तु जमीनी हकीकत में गंगा की हालत दिन प्रतिदिन दयनीय होती जा रही है। गंगा स्वच्छता के लिए सबसे पहले 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी द्वारा विस्तृत सर्वेक्षण की शुरुआत की गई थी जिसके आधार पर 1985 में राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान-I प्रारम्भ किया था। गंगा एक्शन प्लान के नाम पर बर्बाद किए गए सैकड़ो करोड़ रुपये गंगा के प्रदूषण को बढ्ने से भी नहीं रोक पाये। कैग (CAG) द्वारा 2000 में साफ की गई तस्वीर के अनुसार गंगा स्वच्छता के नाम पर इस प्लान में कुल 901.71 करोड़ रुपयों को पानी में बहाया गया। 1993 में शुरू किए गए गंगा एक्शन प्लान फेज़ II भी वास्तव में गंगा के नाम पर लूट का एक जरिया मात्र बनकर रह गया और गंगा एक स्वस्थ डुबकी लगाने योग्य भी नहीं बन सकी। 2010 में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आगे शपथपत्र प्रस्तुत करते हुए 2020 तक 15,000 करोड़ रुपयों के खर्च से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का वायदा किया, अप्रैल 2011 में कैबिनेट कमेटी द्वारा नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी के लिए गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए पुनः 7000 करोड़ रुपयों की स्वीकृति दी गयी। जून 2011 में गंगा स्वच्छता के लिए विश्व बैंक से 1 अरब डॉलर के ऋण के लिए भारत सरकार ने सन्धि की है। प्रश्न यह उठता है कि यदि दो साल बीत जाने पर भी गंगा की स्थिति में दो प्रतिशत का भी सुधार नहीं किया जा सका है तो शेष आठ सालों में गंगा को 100 प्रतिशत प्रदूषण मुक्त कैसे किया जा सकेगा? अब तक गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए लगभग 20,000 करोड़ रुपए से अधिक व्यय किए जा चुके हैं जबकि औद्योगीकरण व विकास की दुहाई देकर जिन दो शहरों, हरिद्वार व कानपुर, से गंगा को जहरीला बनाया जा रहा है उनका कुल निवेश भी इतना नहीं है। हरिद्वार में कुल निवेश लगभग 14,580 करोड़ है।

गंगा के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण मानी जाने वाली यमुना नदी की स्थिति भी गंगा से बेहतर नहीं है। गंगा एक्शन प्लान की तरह यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर यमुना एक्शन प्लान के भी तीन चरण चलाये जा चुके हैं, प्रथम चरण 1993 में जापानीज़ बैंक फॉर इंटरनेशनल कॉपरेशन की 17.7 अरब येन की सहायता पर शुरू किया गया था। दो चरणों में 1272.74 करोड़ बहाने के बाद तृतीय चरण के लिए जेआईबीसी द्वारा 1656 करोड़ रुपए व 1357 करोड़ जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूवल मिशन के अंतर्गत यमुना प्रदूषण मुक्ति के स्वीकृत कराये गए किन्तु सच यह है कि यमुना आज दिल्ली आगरा व मथुरा जैसी जगहों पर किसी बड़े नाले से बेहतर नहीं है।

गंगा-यमुना भारतीय संस्कृति की रुधिरवाहिनियाँ हैं जिन्हें हिन्दुओं की आस्था ईश्वर के जीवंत स्वरूप की भांति पूजती है। गंगा का हिन्दू धर्म, हिन्दू दर्शन व हिन्दू जीवन में मुसलमानों के मक्का तथा यहूदियों ईसाइयों के येरूशलम से कम स्थान नहीं है। हिन्दुओं के अधिकांश तीर्थों को गंगा के कारण महत्व मिला है, गंगा यमुना व अदृश्य सरस्वती के संगम के कारण प्रयाग को तीर्थराज की उपाधि से विभूषित किया गया है। महाभारत अनुशासन पर्व में उल्लेख है कि जिन जनपदों, देश, पर्वत एवं आश्रमों से होकर गंगा निकलती है वे सभी महान पुण्यफल देने वाले हैं। गंगा भारतीय सभ्यता, संस्कृति, साहित्य व विज्ञान के विकास का आधार रही है। गंगा के किनारों ने पूरे भारत को सदियों से एक सूत्र में बांधे रखा है। गंगा के किनारे ही ऋषियों ने आध्यात्म व लोक चिन्तन की अनन्त ऊंचाइयों को छुआ जिसके कारण भारत के ज्ञान के सम्मुख विश्व की सभी सभ्यताएं सदैव से नतमस्तक होती आयीं है। उपनिषदों का गम्भीर दर्शन आज भी विश्व के महान दार्शनिकों व वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणापुञ्ज की भांति प्रज्वलित है। गंगा के प्रति समर्पण की भावना भारतीय मानस में इस सीमा तक है कि गंगा स्तोत्र में ऋषि प्रार्थना करता है; “वरमिह नीरे कमठो मीनः, किं वा तीरे सरट: क्षीण:। अथवा स्वपचो मलिनों दीनः, तव नहि दूरे नृपति कुलीनः॥“ अर्थात माँ गंगा अगले जन्मों में तुम्हारे जल में मछली या कच्छप भी बनकर रहना अथवा तुम्हारे तट पर कृशकाय गिरगिट या मलिन दीन मृतकर्म करने वाला चांडाल बनकर भी रहना श्रेष्ठ है किन्तु तुमसे दूर मैं महान राजा बनकर भी रहना नहीं चाहूँगा।

भारतीय आध्यात्म का शायद ही कोई ऐसा ग्रन्थ हो जो गंगा के सन्दर्भ व इसकी महानता की प्रशंसा के बिना पूरा होता हो। ऋग्वेद 3/58/06 में कहा गया है कि हे वीरों तुम्हारे प्राचीन घर, तुम्हारी सम्पदा व पवित्र मित्रता जान्ह्वी अर्थात गंगा के तटों पर हैं। ऋग्वेद नदी सूक्त में पवित्र नदियों के साथ गंगा व यमुना का नाम प्रमुखता से आया है। शतपथ व ऐतरेय ब्राम्हण में गंगा का उल्लेख है। विष्णु पुराण, नारद पुराण, ब्रम्हाण्ड पुराण, मत्स्य महापुराण, पद्म्हपुराण, महाभारत व रामायण आदि पौराणिक ग्रन्थ तो सर्वत्र गंगा की महिमागान से परिपूर्ण हैं। भविष्य पुराण के अनुसार: दर्शनार्त्स्शनात्पानात् तथा गंगेति कीर्तनात्। स्मरणदेव गंगाया: सद्य: पापै:प्रमुच्यते।।“ अर्थात गंगा के दर्शन, स्पर्श, कीर्तन व जलपान से पापों का नाश होता है। गीता के दसवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं कि “स्रोतसामस्मि जान्ह्वी” अर्थात- हे अर्जुन नदियों में गंगा मैं ही हूँ। इसी प्रकार भारतीय साहित्य में चंद्रबरदाई से लेकर तुलसीदास, सूरदास, रसखान, रहीमदास व आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, सुमित्रानंदन पंत आदि अधिकतर साहित्यकारों की रचनाओं में कहीं न कहीं गंगा की कलकल ध्वनि गूँजती है।

भारतीय आस्था व संस्कृति की इस महान जननी गंगा को प्रकृति की अवहेलना कर जिस तरह औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में संकट में डाल दिया गया है और जिस तरह सरकारें इस गम्भीर विषय पर उदासीन हैं वह वास्तव में देश के लिए बड़े संकट का संकेत है। गंगा के नाम पर जारी होने वाले हजारों करोड़ रुपए भ्रष्ट तन्त्र द्वारा निगल लिए जाते हैं और निगमानन्द जैसे सन्त निस्वार्थ भाव से गंगा की रक्षा के लिए संघर्ष करते करते उपेक्षित मौत मर जाते हैं। निगमानन्द के महान बलिदान पर कुछ देर राजनीति होती है और उसके बाद मीडिया में थोड़ी बहस के बाद मामला ठंडा हो जाता है। देश के विख्यात पर्यावरणविद स्वामी सानन्द उर्फ प्रोफेसर जी डी अग्रवाल जैसे गंगा की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हिन्दू संत लगतार देश की सरकार द्वारा छले जा रहे हैं। वाराणसी में मणिकर्णिका स्थित महाश्मशान पीठ के योगी स्वामी नागनाथ व साध्वी पूर्णाम्बा व साध्वी शारदाम्बा सहित औघढ़ ब्रम्हरंध्र, के. एस. अलमेलु, गंगाप्रेमी, ब्रम्हचारी कृष्णप्रियानन्द एवं योगेश्वरानन्द आदि कुछ अन्य संत गत मार्च महीने से तीन महीने के निर्जल अनशन पर रहे किन्तु जब तक आंदोलन प्रचण्ड नहीं हो गया सरकार उपेक्षा करती रही और बाद में आश्वासन रूपी छलावे से उस आंदोलन का कुटिल अंत कर दिया गया। प्रश्न यह उठता है कि गंगा रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे रहे इन साधु संतो का क्या कोई व्यक्तिगत स्वार्थ है अथवा व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी? सरकारों की राजनीति व देश की आम जनता की उदासीनता आखिरकार क्या संकेत करती है?

विकसित देशों के अंधानुकरण से हमने अपने जीवन को मौत के मुंह में धकेल तो दिया है किन्तु हम उन देशों का अनुसरण आँखें खोलने में नहीं करना चाहते। अपनी नदियों व वातावरण को लेकर सभी देश गम्भीर हो रहे हैं, यहाँ तक कि यूएसए की मिसीसिपी जैसी नदियां भी भारत की गंगा यमुना की अपेक्षा बेहतर स्थिति में हैं। इंग्लैंड की टेम्स नदी का पिछले 140 वर्षों का रेकॉर्ड इकट्ठा किया गया तो स्पष्ट हुआ कि नदी के जल व जैव विविधता के वापस लौटने में आश्चर्यजनक सुधार हुआ है। जबकि हमारी गंगा के संदर्भ में आईआईटी रुड़की द्वारा प्रस्तुतु की गई अभी की एक रिपोर्ट स्पष्ट करती है गंगा पर प्रस्तावित परियोजनाएं पूर्ण होने के बाद 84% गंगाजल रोककर उद्योगों को दे दिया जाएगा व गंगा में मात्र 16% जल ही मिल सकेगा। इसके बाद सरकार द्वारा गंगा की रेटिंग घटाकर “C” कर दी जाएगी। क्या यह पश्चिम के अनुकरण की विडम्बना नहीं है अथवा क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि हमारे प्राकृतिक संसाधन सब जानबूझ कर भी किसी षड्यंत्र के शिकार हैं?

हमें यदि अपनी प्रकृतिक सम्पदा को पुनर्जीवित करना है तो नदियों के किनारे उद्योगों को लगाने तथा आधुनिकता के अंधानुकरण से बाज आना होगा। उदाहरण के रूप में सदियों से इस देश में मूर्ति पूजा व प्रवाह की परम्परा रही है किन्तु मिट्टी व प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रसायनों के प्रयोग के प्रारम्भ ने जहां एक ओर देश के लाखों मूर्तिकारों को बेरोजगार बना दिया वही दूसरी ओर नदियों के जल को जहरीला कर उसके अंदर के जीव वनस्पतियों को विलुप्ति की सीमा पर पहुंचा दिया। कभी काली मिट्टी की मूर्तियाँ जल की प्रकृतिक शोधक हुआ करती थीं। सरकार मूर्तियों के नदियों में जलप्रवाह की परंपरा के विरुद्ध लाखों रुपए विज्ञापन में खर्च कर रही है किन्तु मूर्ति प्रवाह की स्वदेशी परम्परा के पुनर्जीवन व जनजागरण के लिए कुछ नहीं करना चाहती जिससे प्रदूषण पर्यावरण संरक्षण में बदल सकता है, उल्टे चीन से रासायनिक मूर्तियों की आपूर्ति धड़ल्ले से जारी है। इन्हीं घातक रसायनों के कारण अपनी जैव विविधता के लिए विख्यात गंगा की आज अधिकतर जीव जातियों का अस्तित्व संकट में पड़ चुका है, गंगा डॉल्फ़िन अदृश्यता की सीमा पर है।

गंगा भारतीय आस्था संस्कृति का केंद्र व पर्यावरण का आधार होने के साथ साथ इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी है। गंगा व अन्य नदियों के प्रदूषण ने उस देश में साफ पानी 15 रुपये लीटर बिकने की स्थिति पैदा कर दी है जहां 28 रुपये में व्यक्ति से दिन भर का पूरा खर्च निकालने की आशा की जाती है। इन परिस्थितियों में आज अनिवार्य हो गया है कि देश के सांस्कृतिक आध्यात्मिक व आर्थिक जीवन को साँसे देने के लिए गंगा को स्वस्थ प्रवाह दिया जाए। “गंगे तव दर्शनात् मुक्तिः” के गान को पुनः सत्य के साथ स्थापित करने के लिए गंगा को मुक्त करना ही होगा॥

-वासुदेव त्रिपाठी

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