Menu
blogid : 5095 postid : 216

मुस्लिम आरक्षण: विघटन को आमंत्रण

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
  • 68 Posts
  • 1316 Comments

भारतीय राजनीति यदि अभी तक उसी मार्ग पर बढ़ रही हो जिस पर चलकर भारत को लगभग हजार वर्षों की गुलामी के बाद प्राप्त होने वाली स्वतन्त्रता की पहली सुबह से पूर्व ही दो टुकड़ों में बाँट दिया गया था तो इसे भारत के सनातन अस्तित्व के दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जाना चाहिए? इतिहास साक्षी है यदि स्वतन्त्रता पूर्व मुस्लिम तुष्टीकरण की विषवेल को सींचा न गया होता तो शायद देश विभाजन की त्रासदी से बच जाता। मुस्लिम आरक्षण तुष्टीकरण की उसी आत्मघाती परिपाटी का आज एक विस्फोटक रूप है जिसे कॉंग्रेस ने अपने जन्मकाल से पाला पोषा है। भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 14% होने के बाद भी मुसलमान भारत में अल्पसंख्यक है, भारत की ये अल्पसंख्यक परिभाषा से विश्व की किसी भी परिभाषा से अलग अपनी अनोखी परिभाषा है। वैचित्र्य यह है कि मुसलमान देश के उन हिस्सों में भी अल्पसंख्यक ही है जहां उसकी आबादी 50-60-70% अथवा उससे भी अधिक है तथा बढ़ती जनसंख्या के साथ मुसलमानो को मिलने वाले स्पेशल पैकेज व सहूलियतें भी बढ़ती जाती हैं। देश के नेताओं व राजनैतिक पार्टियों को ताल ठोंकर ये कहने में भी शर्म नहीं आती कि अल्पसंख्यक आरक्षण अथवा अन्य सहूलियतों में मुसलमानों के अतिरिक्त किसी और का हक नहीं देने दिया जाएगा।
4.5% मुस्लिम आरक्षण के साथ एक ऐसे राक्षस को जन्म दिया गया है जिसका आकार और भूंख दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाएगी जब तक एक और दारुल इस्लाम इस देश से अलग न कर लिया जाए, इतिहास स्वयं इसका पुष्ट प्रमाण है। आरक्षण के इस दैत्य ने पैदा होते ही अपना मुंह फैलाना आरम्भ कर दिया है और 9%, 13% से होते हुये 18% की दावेदारी तक जा पहुंचा है। लालची कुतर्कों की नींव पर फैलता तुष्टीकरण आरक्षण के पक्ष में मुसलमानों के पिछड़ेपन की बात करता है तथा साथ ही एक और निर्लज्ज तर्क देने का दुष्प्रयास किया जाता है कि इस देश में मुसलमान बहुसंख्यक हिंदुओं के द्वारा भेदभाव का शिकार है। प्रश्न यह है कि जिस समुदाय ने देश पर 700 वर्षों तक मनमाने तरीके से शासन किया हो वह आज भी क्यों पिछड़ा हुआ है? संविधान में आरक्षण की व्यवस्था उस वर्ग के लिए की गयी थी जिसे सामाजिक रूढ़ियों, जिनमें अधिकाश मध्यकाल में पैदा हुई थीं, के कारण सामाजिक भेदभाव व अन्याय का शिकार होना पड़ा था। लंबे समय तक शोषित रहे वर्ग के लिए दी गयी सुविधाओं पर लंबे समय तक शासन करने वाले वर्ग को डाका कैसे डालने दिया जा सकता है? यदि 700 वर्षों तक हिंदुओं पर मनमानी करते हुए देश पर बादशाहत करने के बाद भी यदि मुसलमान पिछड़ा और गरीब है तो इसका प्रतिफल देश का हिन्दू क्यों भुगते?
Graphic1जिन हिन्दुओं ने सदियों तक खूनी अत्याचार झेलने और इस्लाम के नाम पर देश के टुकड़े किए जाने के बाद भी मुसलमानों को देशभाई के रूप में स्वीकार किया उन्हीं हिन्दुओं पर मुसलमानों के साथ भेदभाव का आरोप निर्लज्जता की पराकाष्ठा के साथ-साथ सनातन संस्कृति की महान उदारता को एक घृणित गाली है। सच तो यह है कि हिन्दुओं की इस महान उदारता व सहनशीलता का इस्लाम ने सदैव अनुचित लाभ उठाया है। 1947 में मुसलमानों ने हिन्दू-मुसलमान के नाम पर देश का विभाजन करा लिया, कश्मीर समस्या भी दारुल इस्लाम की भूंख के कारण ही पैदा की गयी क्योंकि सीमा के उस पार के षड्यन्त्रों को इस्लामी एकता के नाम पर इधर से पूरी शह मिलती है, कश्मीरी पण्डितों को भगाये जाने के बाद भी भारत मौन है और जनमत संग्रह की पाकिस्तानी बलबलाहट के सामने मुंह छिपाना पड़ता है। मुस्लिम जनसंख्या बढ्ने के साथ ही आज केरल जैसे दक्षिणी राज्य व बंगाल के कुछ भाग उसी कगार पर खड़े हैं। बंगाल और असम में बढ़ती मुस्लिम आक्रामकता ने कई स्थानों पर हिन्दुओं का जीना दूभर कर दिया है। ईदगाह पर तिरंगे को इजाजत नहीं मिलती है और एक हिन्दू सन्त स्वामी पुण्यानंद को सरे आम पेंड़ से बांधकर पीटा जाता है। आंध्र प्रदेश हैदराबाद में प्रशिद्ध भाग्यलक्ष्मी मन्दिर में मुसलमानों ने मिलकर घण्टी बजाने पर रोक लगवा दी क्योंकि बगल में मस्जिद होने के कारण उन्हे इस पर आपत्ति थी। साथ ही मजलिस पार्टी के एक मुस्लिम नेता अकबरुद्दीन ने प्रशासन से रामनवमी शोभायात्रा बन्द किए जाने की मांग की है। केरल में मंदिरों पर अतिक्रमण, मंदिरों के सामने मांस की दुकाने खोलना, मन्दिर के सामने गाय काटना और मन्दिर की आरती में भैंसे का सिर लटका देना कोई बड़े घटनाक्रम नहीं रह गए हैं। कर्नाटक में यदि करोड़ों हिन्दुओं की आस्थाओं व सनातन भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए भाजपा सरकार गोहत्या निरोधक कानून बनाती है तो मुसलमान संगठन इसे फासीवादी कदम बताते हुए अपने हक के नाम पर खुले विरोध पर उतर आते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चाहे चाहे मुरादाबाद रामपुर अलीगढ़ हो या पूर्वांचल में आजमगढ़, कहीं सिमी की जन्मभूमि है तो कहीं इंडियन मुजाहिद्दीन का गढ़! अंतर्राष्ट्रीय स्तर से संचालित एक संगठन ने shariah4hind.com नामक वैबसाइट के माध्यम से हिन्दू देवताओं की तोड़ी गयी मूर्तियों की तस्वीरों के साथ भारत को दारुल-इस्लाम बनाने की घोषणा भी कर दी है। इस संगठन ने 3 मार्च को नई दिल्ली में एक कार्यक्रम की भी घोषणा कर दी थी जिस पर अभी दिल्ली हाइकोर्ट ने रोक लगाने का आदेश दिया है। क्या ऐसे बड़े-बड़े षड्यन्त्र भारतीय मुसलमानों के सहयोग के बिना ही चल रहे हैं? इन सबके बाद भी हिन्दू अभी तक शांत है अथवा सुप्त, भले ही निर्धारित करना कठिन हो किन्तु क्या हिन्दुओं की उदारता और सहनशीलता में भी सन्देह होना चाहिए? स्वतन्त्रता के 64 वर्षों में मुसलमान बढ़कर दो गुना हो गया क्या ये हिन्दुओं के भेदभाव के रहते हो पाया है? मुसलमानों में पिछड़े व दलित वर्ग के आधार पर आरक्षण मांगने वाले मुल्लाओं को यह भी बताना चाहिए कि इस्लाम में समानता एकता के बाद भी वे सदियों बाद तक वे पिछड़े कैसे रह गए? सच तो यह है इस्लाम की जन्मभूमि सऊदी अरब ने भी अन्य मुसलमानों को बराबरी का स्थान नहीं दिया है और अशरफ और अजलफ में बांट रखा है।
700 वर्षों की निर्मम लूट के बाद भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले दिन से ही समानता के नाम पर मुसलमानों का तुष्टीकरण प्रारम्भ हो गया था, चाहे वह गांधी द्वारा कंगाली की हालत में भी पाकिस्तान को 56 अरब रुपये की सहायता के लिए भारत सरकार पर डाला गया दबाब हो अथवा नाजुक मुस्लिम आस्थाओं की चिन्ता में दिल्ली की जामा मस्जिद में शरण लिए हिन्दुओं को सर्दियों की आधी में बाहर निकाल फिकवाने की जिद या फिर नेहरू की तुष्टीकरण की अनवरत नीतियाँ.! बहुसंख्यक जनता की खून-पसीने की कमाई से प्रतिवर्ष लाखों मुसलमानों को हजयात्रा कराई जाती है जिसे कि 1959 में पहली बार नेहरू के द्वारा प्रारम्भ किया गया था। आज प्रति मुसलमान लगभग 60000-70000 रु. हज सब्सिडी के नाम पर खर्च किए जा रह हैं, 2011 में इस सुविधा पर 125000 मुसलमानों को हजयात्रा कराई गयी। इन्दिरा गांधी ने भी नेहरू की तुष्टीकरण परम्परा का पूर्णतः पालन किया तथा मुसलमानों के लिए 20 सूत्री योजना का सूत्रपात किया। आज कॉंग्रेस सरकार की 15 सूत्री प्रधानमन्त्री अल्पसंख्यक कल्याण योजना उसी का एक स्वरूप है। इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक संबन्धित मंत्रालय को अपने कुल बजट का 15% अल्पसंख्यक योजनाओं के लिए देना होता है। इस 15 सूत्री कार्यक्रम का 1 बिन्दु बाल विकास पर, 2 बिन्दु आवास सुविधा पर, 3 बिन्दु साम्प्रदायिक दंगों में अल्पसंख्यकों को एकतरफा तरीके से पीड़ित मानते हुए उनकी क्षतिपूर्ति आदि पर, 4 बिन्दु रोजगार पर व 5 बिन्दु शिक्षा पर हैं। इसके अतिरिक्त मौलाना आज़ाद एजुकेशन फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं के माध्यम से मुसलमानों के लिए अरबों रुपये स्कॉलर्शिप व NGOs के नाम पर आवंटित होते हैं। दारुल-उलूम-देओवंद, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया हमदर्द एवं जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे बड़े शिक्षण संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में आरक्षित हैं। राज्यों द्वारा अलग से अल्पसंख्यक कल्याण के नाम पर सैकड़ों योजनाएँ चलाई जा रही हैं। NUEPA की रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक शिक्षा में सतत भागीदारी बढ़ाते हुए मुस्लिमों बच्चो का प्रवेश प्रतिशत 13.48 हो गया जोकि मुस्लिम आबादी के लगभग बराबर है। किन्तु क्या इस सब के बाद भी कहा जाना चाहिए इस देश में मुसलमान उपेक्षित और भेदभाव का शिकार है.??
मुस्लिम आरक्षण को इस्लाम के शरीयती शिकंजे में भारत को पुनः दबोचने के स्वप्न के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग करने का प्रयास है। आज मुस्लिम आरक्षण एक मांग न होकर एक धमकी बन चुका है और इस बीज को मजहब की जिस जमीन पर बोया गया है उसमें पाँचवी-छठी से लेकर सत्रहवीं-अठारवी शताब्दी तक की धर्मांध इस्लामी भूंख अभी भी जिंदा है। यह वस्तुतः मुसलमानों का विकास नहीं बल्कि उस रूढ इस्लाम का पोषण है जो विश्व पर केवल शरीयत का शासन देखना चाहता है। मिश्र और ईरान जैसे राष्ट्र अपना अतीत इसी अन्धेरे में खो चुके हैं। विश्व की महाशक्ति सोवियत रूस भी अपने आपको टुकड़े-टुकड़े होने से नहीं बचा पाया था क्योंकि उसकी अपनी ही जमीन पर ऐसी विचारधारा मजबूत हो चुकी थी जिसकी आस्थाएं कहीं दूर रेगिस्तान में अपने मूल को खोज रहीं थीं। मजबूत चीन भी अपने उरुगई क्षेत्र में उसी अन्धेरे से घिरा है सुदूर में जिससे अमेरिका ब्रिटेन और फ्रांस लड़ रहे हैं। वही विचारधारा आजादी के समय पाकिस्तानी आबादी का 20% रखने वाले हिन्दुओं को आज वहाँ 2% पर सिमेट देती है और बांग्लादेश में, जहां 1971 में पाक सेना के सामने हिन्दू-मुसलमान एक होकर बांग्ला के नाम पर लड़ रहे थे, हिन्दुओं की दुर्गति पर ‘लज्जा’ जैसी किताबें लिखवा देती है। कश्मीर से लेकर पूरे भारत में फैले जिहादी आतंकवाद के खूनी छींटे हमारे सामने प्रत्यक्ष गवाह हैं किन्तु दुर्भाग्य से हम फिर भी देखना नहीं चाहते! यदि विशेष सहूलियतों से मुसलमानों का विकास सम्भव होता तो अफगानिस्तान-पाकिस्तान से लेकर सोमालिया तक तमाम मुस्लिम देश आज भयंकर दुर्गति में न जी रहे होते जहां सारी सहूलियतें मुसलमानों के लिए ही आरक्षित हैं! तेल की अकूत संपत्ति पर पल रहे अरब, लीबिया, सीरिया जैसे देश भी शान्ति स्थिरता को नहीं पा सके क्योंकि प्रगतिशील विश्व के साथ रूढ बेड़ियाँ उन्हें कदम नहीं मिलाने देती हैं, इसके लिए भारतीय उलेमा और राजनेता किसे दोषी ठहराएँगे?
आरक्षण से न भारत का ही भला होने वाला है और न मुसलमानों का उल्टे यह धारा 370 की भांति गले की फांस ही बनकर रह जाएगा। यदि मुसलमानों का वास्तविक हित देश के उलेमा और नेता करना चाहते हैं तो मदरसों और आरक्षण के नाम पर जहरीली खुराक देने के स्थान पर नयी पीढ़ी को शिक्षा की मूलधारा और राष्ट्रीय संस्कृति से जोड़ना होगा अन्यथा एक ओर भाईचारे की खोखली दलीलें यूं ही चलती रहेंगी और दूसरी ओर इस्लामी उम्मह का पाठ पढ़ाने वाली जिहादी नर्सरी अरब के पैसों व पाकिस्तानी आतंकी ढांचे की साँठ-गांठ से भारत की धरती को लहूलुहान करते रहेंगे, एक दिन जब हमारी आँखें खुलेंगी तब हम भारत माँ को एक और विभाजन की दहलीज पर खड़ा पाएंगे। यदि किसी को यह सच अतिशयोक्ति लगे तो उसे भारत और विश्व के अतीत और वर्तमान को एक बार पढ़ने की आवश्यकता है। शिकारी को सामने देखकर शुतुरमुर्ग रेत में चोंच घुसेडकर यह सोचता है कि अब उसे कोई नहीं देख रहा, वह सुरक्षित है और मारा जाता है। सत्य को पहचानना और उसे स्वीकारना ही एकमात्र मार्ग है।
.
-“वासुदेव त्रिपाठी”

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh