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आजादी की दूसरी लड़ाई के नारे के साथ जिस आंदोलन का श्रीगणेश हुआ था उसका अंतिम मुकाम एक विखराव होगा, अपने काम काज को ठप्प करके पूरे जोश से देश भर में तिरंगा लहराने वाले समर्थकों को संभवतः ऐसी आशा नहीं रही होगी। काफी उतार चढ़ाव देखने के बाद टीम अन्ना का अन्तिम हश्र वही हुआ जो एक दूरदर्शी नजर देख सकती थी। अन्ना ने अब यह खुले शब्दों में स्पष्ट कर दिया है कि वो राजनैतिक पार्टी बनाने का समर्थन नहीं करते और केजरीवाल आदि अपनी मर्जी के अनुसार निर्णय करने को स्वतन्त्र हैं किन्तु वे उनके नाम अथवा फोटो का प्रयोग आगे से नहीं कर सकते!
इस बात के स्पष्ट संकेत काफी पहले से ही मिलने लगे थे कि टीम अन्ना में दो धड़े उभर चुके थे, एक तो वह धड़ा जो अन्ना में विश्वास रखता था और दूसरा वह जो अपने अन्ना के मंच पर तो था किन्तु वो अपने रास्ते चलना चाहता था। अरविन्द केजरीवाल इसी दूसरे धड़े के मुखिया थे और मनीष सिसोदिया, दोनों भूषण, व संजय सिंह जैसे चेहरे केजरीवाल के खास सहयोगी। हाँलाकि बींच बींच में दो धड़ों का यह विभाजन थोड़ा उभर भी जाता था किन्तु फिर भी एक समय ऐसा लगने लगा था कि अन्ना पर टीम अन्ना हावी है। हिसार चुनाव जैसे कई अवसर आए जब स्पष्ट हो रहा था कि केजरीवाल गुट के निर्णय अन्ना को चाहे अनचाहे मानने पड़ रहे थे। हिसार चुनाव में चुनाव प्रचार के लिए जाना टीम अन्ना का पहला आत्मघाती निर्णय था। यदि देखा जाये तो कहीं न कहीं यह अरविन्द केजरीवाल की महत्वाकांक्षा का ही परिणाम था कि या तो वे अपनी राजनैतिक शक्ति का प्रदर्शन करना चाहते थे अथवा स्थापना.! एक सीट के चुनाव से कॉंग्रेस लोकपाल लाने के लिए विवश हो जाएगी अथवा किसी बड़े दबाब में आ जाएगी, मुझे नहीं लगता केजरीवाल इतनी छोटी सी बात नहीं समझते होंगे! अन्ना तब भी राजनीति के समर्थन में नहीं थे और उस 4 अगस्त को भी नहीं जब अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी बनाने की घोषणा की थी। सूत्रों के अनुसार अन्ना ने तुरन्त ही मंच पर राजनीति समर्थक केजरीवाल गुट से अपना असंतोष व्यक्त कर दिया था। निश्चित रूप से अन्ना ने जो टीम बनाई थी उसे वो बिना किसी उद्देश्य सिद्ध हुए टूटते नहीं देखना चाहते थे यही कारण था कि अन्ना को कई बार अपनी आवाज़ दबानी पड़ रही थी, किन्तु टीम के एक गुट द्वारा राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं खुले रूप से व्यक्त कर देने के बाद अन्ना को शायद लगने लगा था कि अब और अधिक आवाज दबाना संभव नहीं होगा। थोड़े ही दिनों बाद टीम भंग करके अन्ना ने यह स्पष्ट भी कर दिया। टीम अन्ना आधिकारिक रूप से भले ही भंग हो गई हो किन्तु केजरीवाल गुट ने जहां आवश्यकता पड़ी अन्ना के नाम को भुनाने के प्रयास बंद नहीं किए, यह बात और है कि अपने प्रचार में टीम ने अन्ना को नेपथ्य में धकेलते हुए केजरीवाल को हाइलाइट करने की शुरुआत पहले से ही कर दी थी। केजरीवाल ने अन्ना को पार्टी बनाने के लिए भी राजी करने का पूरा प्रयास किया क्योंकि केजरीवाल यह बखूबी जानते हैं तमाम प्रचार के बाद भी अन्ना का टैग हटने के बाद उनके पास वो चमक और विश्वास नहीं रहेगा जिस पर पूरे आन्दोलन की नींव रखी गई थी। किन्तु अन्ना इस बार अटल रहे क्योंकि निश्चित रूप से यह आन्दोलन के सम्पूर्ण उद्देश्य व छवि का प्रश्न था। किरण बेदी और जस्टिस संतोष हेगड़े पहले ही अरविन्द केजरीवाल के विपरीत अन्ना के साथ खड़े थे। अन्ना द्वारा केजरीवाल खेमे को यह निर्देश अथवा चेतावनी दिया जाना कि वो अपने राजनैतिक अभियानों के लिए उनकी फोटो अथवा नाम भी प्रयोग नहीं कर सकते, इस बात को स्पष्ट करता है कि संभवतः इस घोषणा से पहले अन्ना ने केजरीवाल टीम को समझाने का भरपूर प्रयास किया होगा कि वो राजनीति में न फंसे, हाँलाकि केजरीवाल पहले कहते आए थे कि यदि अन्ना मना कराते हैं तो वो पार्टी नहीं बनाएँगे। यही बात जब पत्रकारों ने अन्ना से पूंछी तो उनका उत्तर था कि यदि ऐसा है तो पार्टी नहीं बननी चाहिए! केजरीवाल के खास सहयोगी बन चुके कुमार विश्वास ने फेसबुक पर यहाँ तक लिखा कि अन्ना ने कहा कि पार्टी बनाने व राजनीति करने वालों को वो अपने मंच पर चढ़ने भी नहीं देंगे!
अब चूंकि वह सब स्पष्ट हो चुका है जिस पर बहुत लोग पहले विश्वास नहीं कर पा रहे थे अतः अब प्रश्न यह है कि केजरीवाल अपनी राजनैतिक इच्छाओं को लेकर कितना आगे जा पाएंगे? निश्चित रूप से केजरीवाल के लिए आगे कोई सुखद संभावनाएं नहीं है। अब जबकि लोकसभा चुनाव कभी भी होने की संभावना लगातार बनी हुई है, यह निःसन्देह असंभव है कि इतने समय में केजरीवाल एक पार्टी खड़ी कर, अपने मानकों के अनुसार प्रत्याशी ढूंढकर आगे की जटिल प्रक्रियाओं व आवश्यकताओं को पूरा कर कुछ सीटें भी जीतने में सफल हो जाएंगे! एक राष्ट्रीय चुनाव और जन्तर-मन्तर के एक धरने में जमीन आसमान का अन्तर होता है। इसके बाद प्रश्न खड़ा होता है उस चेहरे का और उस विचारधारा एवं मुद्दों का जिन के बल पर चुनाव लड़ा जाता है! अब न तो केजरीवाल के पास अन्ना का चेहरा है और न कोई रणनीति! देश का चुनाव केवल जन-लोकपाल के नाम पर नहीं लड़ा जा सकता! अरविन्द केजरीवाल के पास जो चेहरे बचे हैं उनमें या तो भूषण जोड़ी है जिसके पास वकालत के पेशे अथवा कई बार राष्ट्रविरोधी बयानों के अतिरिक्त और कोई पहचान नहीं है अथवा फिर मनीष शिशोदिया या संजय सिंह जैसे लोग हैं जिन्हें टीवी पर कभी-कभार देखने वाले गिने चुने लोगों को भी शायद उनके नाम तक याद नहीं होंगे। धरातल पर यह चर्चा यहाँ तक भी ले जाने की आवश्यकता नहीं है किन्तु देखना यह होगा कि अन्ना व उनकी सलाह को किनारे करके राजनीति की जिद पकड़ने वाले केजरीवाल कितनी देर से यह हकीकत समझ पाते हैं.! फिलहाल अन्ना अपनी राह पर हैं और केजरीवाल गुट से मीटिंग के बाद उन्होने पत्रकारों से न सिर्फ अपनी पुरानी रणनीति दोहराई वरन स्वामी रामदेव व पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह के साथ बैठक करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी जंग जारी रखने का संदेश भी दिया। संतोषजनक यह है कि तमाम कयासों व आशंकाओं के बाद भी बाबा रामदेव राजनीति के मोह में नहीं फंसे और अब दोनों आसानी से साथ मिलकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध आगे बढ़ सकेंगे।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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