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आपदा और त्रासदी की दोहरी मार

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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उत्तराखण्ड में आई प्राकृतिक महाविपत्ति एक ऐसी राष्ट्रीय आपदा है जिसकी चोट से उबरने में व्यवस्थाओं एवं नागरिकों दोनों को लंबा समय लगेगा, यह बात और है कि राष्ट्र की लोकतान्त्रिक सरकार इसके बाद भी वैधानिक रूप इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने को तैयार नहीं हुई.! धरातलीय स्थिति, जनपीड़ा व जनभावना को देखते हुये हाँलाकि सरकार की ये नैतिक ज़िम्मेदारी बनती थी। वास्तविक अर्थों में ज़िम्मेदारी नैतिकता से ही जन्म लेती है, नैतिकता के अभाव में ज़िम्मेदारी के अवसर भी स्वार्थपूर्ति के संसाधन के रूप में हथिया लिए जाते हैं.!! उत्तराखण्ड की विभीषिका पर हो रही राजनीति इसका जीता जागता प्रमाण है। मानवीय स्वार्थ की संवेदनाहीन जमीन में जड़ें जमाये ऐसे ही अनगिनत कारण हैं कि उत्तराखंड की सम्पूर्ण दुर्घटना को प्राकृतिक आपदा और मानवीय त्रासदी के रूप में दो तरीकों से विभाजित व परिभाषित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है।

आपदा तो एक क्षणिक घटना थी जो आई और तबाही का एक भयानक मंजर छोड़कर चली गयी किन्तु उसके बाद शुरू हुई त्रासदी की चीत्कारें अभी भी पूरे भारत में सुनी जा सकती हैं। भारत के हर हिस्से में, लगभग हर छोटे बड़े शहर में हजारों परिवार अभी भी दिन प्रतिदिन धूमिल होती जा रही उम्मीद के बींच भी पथराई आँखों से टकटकी लगाए एक चमत्कार की आशा में बैठे हैं कि अचानक उनके अपने लौट आयें अथवा कहीं से कोई उनकी खबर पहुंचा दे.!! परिवार के एक सदस्य का दुख पूरे परिवार को तोड़ देता हैं लेकिन प्रकृति के इस कहर के बाद न जाने कितने ही इकलौते लोग बचे हैं जिन्हें पूरे परिवार को खोने की पीड़ा झेलनी है.!! समूचे राष्ट्र के लिए यह एक भयावह स्थिति है।

इस कठिन परिदृश्य में भी हमें इस विनाशकारी आपदा के लिए जबाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। इसीलिए मैंने आपदा और त्रासदी दो शब्दों को दो अलग-अलग अर्थों में प्रयोग किया है। त्रासदी मनुष्य की असंयमित-असंतुलित क्रिया है और आपदा प्रकृति की प्रतिक्रिया है। प्रतिक्रिया क्रिया के परिणामस्वरूप घटती है अतः त्रासदी को हमने प्राकृतिक आपदा के पहले ही जन्म दे दिया था, यह बात और है कि आपदा के बाद भी त्रासदी बेलगाम है।

हमें जड़ों तक जाना होगा, यदि आपदाओं को रोकना है तो उसकी जड़ में मानव रचित त्रासदी को रोकना होगा.! किन्तु विडम्बना यह है कि त्रासदी को हमने विकास का नाम दे रखा है। विकास मानवीय सभ्यता के हितसाधन का माध्यम होना चाहिए, उसे मौत के मुंह में धकेलने का तरीका नहीं.! किन्तु दुर्भाग्य से यही हो रहा है। अंधाधुंध काटे जा रहे जंगल, पेड़-पौधों के बिना वीरान होते जा रहे गाँव, पर्यावरण की कीमत पर संवर रहे शहर और लुप्त होती जा रहीं प्रजातियाँ मानवनिर्मित त्रासदी का भयानक चेहरा हैं जिस पर विकास या आधुनिकीकरण के नाम का मेकअप किया जा रहा है। प्रकृति की कीमत पर विकास भारत समेत किसी प्राचीन परिपक्व सभ्यता की संस्कृति नहीं रही, इसकी शुरुआत जंगलों के अंधाधुंध कटान के साथ अंग्रेजों ने की थी। उत्तराखंड समेत पर्वतीय क्षेत्रों की वनसंपदा पर अंग्रेजों की पूंजीवादी दृष्टि पड़ी थी और परिणामस्वरूप फॉरेस्ट एक्ट 1865 और 1878 पास करके वनसंपदा का निर्बाध दोहन शुरू किया गया। अंग्रेजों के पास इसके अपने कारण थे क्योंकि वे अपने उपनिवेशों में चौतरफा आर्थिक शोषण करने ही आए थे किन्तु दुर्भाग्य से अंग्रेजों की उन्हीं नीतियों को स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात देश में पूरी श्रद्धा के साथ और अधिक गति से संचालित किया गया। यह एक वैचारिक त्रासदी थी।

वनों के अनियंत्रित कटान व प्रदूषण की तपन का असर हिमालय पर साफ दिखने लगा है। पर्वतीय भ्रमण पर आप जाएँ तो जगह जगह पर आपको पथरीली नदियां व नहरें दिखाई देंगी! ये सभी कुछ वर्ष पूर्व तक जल की सतत प्रवाह हुआ करती थी। पहाड़ों पर पानी की भयानक होती समस्या को सरकारी दस्तावेजों के आंकड़ों में समझने की बहुत आवश्यकता नहीं है, इसके लिए आप एक महंगे और रिहायशी टूर के स्थान पर एक सामान्य यात्री के रूप में हिमालय की यात्रा करिए, दुनिया की भागदौड़ से दूर पहाड़ों पर एकांत में बसे छोटे-छोटे गांवों तक पहुंचिए, वहाँ के मूल निवासियों से बात करिए जिनकी मुख्य जीविका खेती व पशुओं पर ही निर्भर होती है। वे आपको पर्यावरण की बदलती हुयी तस्वीर का सरल भाषा में वास्तविक दर्शन कराएंगे। वे आपको बताएँगे कि गाँवों तक पानी पहुंचाने वाले झरने, जो पीढ़ियों और सदियों से बह रहे थे, किस तरह पिछले एक दशक में एक एक करके सूख गए। बदलते मौसम की अनिश्चितता व खतरों को वहाँ सरलता से समझा जा सकता है। सूखी हुयी नदियों को देखकर भविष्य की भयावह दस्तक को आप आसानी से समझ सकते हैं। पूरे भारत में शुद्ध उपयोगी जल का 69% हिमालय से ही मिलता है। किन्तु समस्या यह है कि हिमालय पर खड़े होकर हिमालय की पीड़ा को समझने का समय व श्रद्धा ही किसी के पास कहाँ है?? मनुष्य ने पहले गांवों पर्वतों को पिछड़ा करार देकर प्रकृति को ठेंगा दिखाते हुए अपनी सुख सुविधाओं के लिए आधुनिक शहरों का निर्माण किया, किन्तु अब शहरों के जीवन से त्रस्त मनुष्य जंगलों और पर्वतों की ओर भागता है- सुख आनन्द की तलाश में.! किन्तु आदतों से मजबूर लालची मनुष्य ने वहाँ भी प्रकृति की कीमत पर आधुनिकीकरण की इमारतें खड़ा करना शुरू कर दिया। प्रकृति से मुठभेड़ के इस दुस्साहस के दुष्परिणाम अब दिखने लगे हैं और उत्तराखंड जैसी आपदाएँ हमें मानव रचित त्रासदी को लेकर सचेत कर रही हैं। सूखती छोटी नदियों के कारण एक बड़ी जनसंख्या पर अन्न-जल का संकट छा चुका है तो वहीं बड़े ग्लेशियरों के पिघलने से बाढ़ की तबाही देश के एक बड़ा भूभाग की दहलीज पर हर समय खड़ी है। हाँलाकि पूंजीपति कंपनियों ने वहाँ भी अपनी संभावनाएं तलाश ली हैं और 18 रुपए लीटर पानी आकर्षक पैकिंग के साथ हमारे हाथ में है।

उत्तराखंड की आपदा पहली नहीं थी, और डरावना सच ये है कि प्रकृति का ये कहर आखिरी भी नहीं है..!!! महाविनाश के बाद नीति-निर्माताओं का आचरण तो कम से कम यही आश्वासन देता है। निश्चित रूप से प्रकृति के कहर को एकाएक रोक पाना किसी सरकार के वश में नहीं था किन्तु नीतियों को यदि पहले से ही सही रास्ते पे रखा गया होता तो शायद ये अवसर ही आने से बच जाता.! किन्तु आश्चर्यपूर्ण दुर्भाग्य ये है कि सरकार इसरो समेत देश की शीर्ष मौसम विज्ञान संस्थाओं की ओर से बार बार जारी की गयी चेतावनियों के बाद भी सोती रही, या यूं कहें कि हजारों लोगों की मौत का इंतजार करती रही। उत्तराखंड सरकार की “स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज” रिपोर्ट 2012 में भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि GLOFs (Glacial Lake Outburst Floods) अर्थात पिघलते ग्लेशियरों से झीलों के फटने व उससे भयानक तबाही का राज्य पर बड़ा खतरा है और केदारनाथ में ठीक यही हुआ क्योंकि जानकारी के बाद भी सरकार ने ऐसे स्थानों पर न तो निर्माण कार्य रोका और न ही कोई बचाव व्यवस्था ही की। यह मानव रचित त्रासदी ही थी।

विडम्बना यह है कि अपनी इन गलतियों को स्वीकारने व उनकी छतिपूर्ति के स्थान पर सरकार और नेता बेशर्मी से राजनीति कर रहे हैं। यह आपदा के बाद की त्रासदी है जोकि एक और आपदा को आमंत्रण दे सकती है। यही कारण है कि मानव स्वार्थ और लोलुपता के चक्कर में जो त्रासदी रच रहा है उसे रोके बिना आपदाओं से बचना असंभव ही है। आवश्यकता है कि हमारा ध्यान त्रासदी पर हो और बेहतर बात ये है कि इसे रोकने में हर व्यक्ति अपना योगदान दे सकता है। इस लेख को 16 जून के इतने दिनों बाद मैंने इसीलिए लिखा क्योंकि उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा पर कलम चलाने से कोई निष्कर्ष नहीं निकलने वाला था, आवश्यकता है मनुष्य निर्मित त्रासदी पर बहस छेड़ी जाए.! लेकिन हमें बेहद बुरी आदत है आग लगने पर बहुत शोर मचाने की और लपट कम होते ही खुद भी ठंडे पड़ जाने की.! हम बुझी आग के ढेर में न तो आग के कारणों को खोजने का कोई गंभीर प्रयास करते हैं और न ही ये देखने की जरूरत समझते हैं कि कहीं कोई चिंगारी बची तो नहीं जो कल कुछ और घरों को तबाह कर दे.! यही सबसे बड़ी त्रासदी है, हमें सबसे पहले इसी से निपटना होगा.!!!

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-वासुदेव त्रिपाठी

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