- 68 Posts
- 1316 Comments
निगमानंद जी को उनकी मृत्यु के बाद ही सही आज आप सभी जान चुके हैं, लोकतंत्र का चौथ स्तम्भ अब आपको नित-नूतन जानकारियों तथ्यों और कई आधारहीन ही सही नए नए तर्कों से परिचित जो करा रहा है..! घटना के बाद सीबीआई का रोल अदा करने की अपनी आदत के मुताबिक हमारा मीडिया निगमानंदजी की मौत पर भी अपनी TRP की रोटियाँ सेकने का कोई अवसर गवाना नहीं चाहता| खबर को सनसनीखेज बनाने के लिए नए नए शब्दों और वाक्य रचनाओं से आम आदमी के मानस की संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास किया जा रहा है|
पूरी मीडिया का जोर रामदेव आन्दोलन को सन्दर्भ बनाते हुए भाजपा, संघ और साधू-संतों की वैचरिक निष्ठाओं और राष्ट्रहित के प्रयासों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करने पर ही लगा है| भावुक भावनाओं, संवेदनाओं से परिपूर्ण शब्दों का ऐसा जाल प्रस्तुत किया जाता है जो आम आदमी को ही नहीं बल्कि प्रबुद्ध वर्ग को भी फंसा लेने में सक्षम है.! तर्क बड़े प्यारे किन्तु वैसे ही जैसे चोर अपनी चोरी छुपाने के लिए थाने पहुँच कर रिपोर्ट बताये.!
निश्चित तौर पर निगमानान्दजी की मृत्यु किसी एक नहीं वरन सभी भारतियों के लिए एक शर्म की बात है किन्तु इस पर राजनैतिक दलों से लेकर मीडिया तक उनके संकल्प को पूर्ण कर उनके बलिदान को सार्थक करने की बात न करके जो अपनी-अपनी रोटियाँ सेकने के के लिए लालायित दिख रहे हैं वह इस राष्ट्रीय शर्म को कई गुना बढ़ा देता है|
जो बातें उठाई या उडायीं जा रहीं हैं उनमे यह कि एक तरफ अरबपति बाबा रामदेव के आन्दोलन में रामलीला मैदान से लेकर अस्पताल तक बड़े-बड़े नेताओं और साधू महात्माओं के डेरे पड़े थे दूसरी ओर उसी अस्पताल में एक सच्चा गंगा-भक्त आन्दोलनकारी मर रहा पड़ा था और कोई उसकी खबर तक लेने बाला नहीं था| खबर की प्रस्तुति इस तरह मानो रामदेव और कुछ की नजर में संघ की पोल ही खुल गयी हो..!
इनकी नजर में नेता और संघ रामदेव के आगे पीछे इसलिए खड़े थे क्योंकि रामदेव के पास पैसा था, पहचान थी, जनाधार था किन्तु यह प्रश्न छुपा लिया जाता है कि यदि एक जनांदोलन के लिए रामदेव के पास यह सब था तो इसमें रामदेव या उनके सहयोगिओं का क्या दोष था.?
रामदेव की लोकप्रियता के कारण उनसे जुड़ने में नेताओं के तो अपने स्वार्थ निहित हो सकते हैं लेकिन आम जनता का इतना बड़ा जनसैलाब क्या उनसे किसी स्वार्थवश जुड़ा था जो निगमानंद जी से नहीं जुड़ा.?
यहाँ मैं रामदेव के आन्दोलन की व्याख्या नहीं निगमानान्दजी घटनाक्रम के माध्यम से मीडिया के पापपूर्ण चेहरे को नंगा करना चाहता हूँ| भारत की करोड़ों की जनता यदि बाबा रामदेव के साथ उठ खड़ी हुई तो इसका श्रेय मीडिया को नहीं बाबा रामदेव की पहचान और उनके संगठन के गत तीन बर्षों के अथक प्रयासों को जाता है| हजारों लाखों स्त्री-पुरुषों के दिन-रात के परिश्रम की परिणित थी ४ जून, भले ही सरकार के कुटिल षड्यंत्रों ने उसे हिंसा का सहारा लेकर उसे कुचल दिया हो.!
यह बाबा रामदेव की लोकप्रियता जनसमर्थन और आर्थिक स्वाव्लंबिता ही थी कि मीडिया उनके आगे पीछे नजर आ रहा था अन्यथा न जाने ऐसे कितने ही बाबा अनशन करके निगमानंद की तरह चल बसते हैं और लोगों को खबर भी नहीं लगती.! यह समझ से परे है कि निगमानंदजी की मौत के लिए मीडिया किसे उत्तरदायी ठहराना चाहती है.? यदि नेताओं को तो उनकी भ्रष्ट गाथा किसी से छुपी नहीं, और यदि किसी और को भी तो किसे.? हिदूवादी संगठनों और आम जनता को.?
वैसे तो निगमानंद जी का हरिद्वार में समर्थन करने वालों में हिन्दू साधू-संत और संगठन ही थे किन्तु यदि व्यापक समर्थन की बात करें तो भारत की आम जनता और संगठन किसी के समर्थन या विरोध में तभी व्यापकता के साथ खड़ी हो सकती जब उसे उसकी पूर्ण जानकारी हो सके और जानकारी संप्रेषित करने का कर्तव्य मीडिया का है| किन्तु संगठनों व जनसमर्थन पर प्रश्न उठाने वाली मीडिया का उत्तरदायित्व तो इस बात से यूँ ही समझा जा सकता है कि सलमान खान की पैंट से लेकर शाहरुख़ खान के कुत्ते तक को ताजा सनसनीखेज समाचार बनाने बाली मीडिया ने निगमानंद जी की मौत से पहले उसे कितनी बार खबर बनाया.? यह भी रामदेव जी के आन्दोलन और अनशन की ही परिणिति मानिये कि मीडिया को उनके हाई प्रोफाइल आन्दोलन से निगमानंद जी की तुलना कर एक लफ्बाजिओं से परिपूर्ण एक जनता का ध्यानाकर्षण करने वाली खबर मिल गयी अन्यथा न जाने ऐसे कितने ही निगमानंद गंगा और गाय के लिए संघर्ष करते और मरते रहते हैं| उन्हें यदि हमारी मीडिया की ओर से कुछ बहुत मिल जाता है तो साम्प्रदायिकता का तमगा बस और क्या.!
प्रश्न यह है कि हमारा मीडिया आखिर दोष किसे देना चाहता है यह जानते हुए भी कि नेता जनसमर्थन से और जनसमर्थन मीडिया से बढ़ता है.? कुछ और भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है तो वह हाथ में स्पीकर लेकर दौड़-दौड़, उछल-उछल कर खबर कम अपनी राय और फैसला ज्यादा सुनाने वाले मीडिया-दूतों की लफ्बाजिओं का नौसिखिये लेखकों पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव जो न केवल उनकी मौलिकता को छीन लेता है वरन हमें एक मुद्दे पर हर जगह मिलने वाले उन्ही घिसे पिटे व्याख्यानों तर्कों से बोर भी कर देता है, जो चुनिन्दा न्यूज़ चैनलों और अख़बारों से चले होते हैं| निगमानंद जी का सहारा लेकर दूसरों की आलोचना कर अपनी प्रबुद्धता प्रकट करने का प्रयास करने वालों को ईमानदारी से स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि वे निगमानंद जी की मौत से पहले उनसे या उनके आन्दोलन से कितना परिचित थे..?
अतः नए लेखकों व पाठकों से भी मेरा विशेष अनुरोध है की मीडिया के ढर्रों से अलग हटकर मुद्दों पर विचारपूर्ण स्वतंत्र राय रखने का साहस दिखाएँ ताकि समाज मीडिया का नहीं मीडिया समाज का दर्पण सिद्ध हो सके और निगमानंद जी जैसे सच्चे क्रांतिकारी राष्ट्रहित में किये गए त्याग के बदले उपेक्षा में गुमनाम मौत मरने के लिए न छोड़ दिए जाएँ| आज उस महान गंगाप्रेमी राष्ट्रपुत्र को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी|
देखना है देशद्रोही कब तलक सोते रहेंगे.!
भारतीसुत! भारती की कोख सूनी है नहीं,
संकल्प तेरा पूर्ण होगा बलिदान या होते रहेंगे..!
आप क्या सोचते हैं.?
BY- वासुदेव त्रिपाठी (२१-०६-११)
Read Comments