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जाने भी दो यारो

फाकामस्ती
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जिस दिन रवि वासवानी की मौत हुई, संभवतया उसी दिन सेंट्रल विजिलेंस कमीशन की दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े निर्माण कार्य के बारे में रिपोर्ट पर हंगामा मचना शुरू हुआ, जिसमें बेहद घटिया क्वालिटी के कंस्ट्रक्शन और यहां तक की सीमेंट में मिलावट के बारे में कहा गया था। रवि वासवानी को हम लोगों ने ‘जाने भी दो यारो’ फिल्म में उनकी एक्टिंग से ही जानना शुरू किया। फिल्म जब पहली बार आई (1983 में) तो अपुन बहुत छोटे थे। उस उम्र में तो केवल उसका रामायण के मंचन वाला प्रसंग ही याद रहा था और उसी को याद करके हम लोट-पोट होते रहते थे। यकीनन वह हिंदी फिल्म इतिहास की सबसे शानदार हास्य फिल्मों में से एक थी। लेकिन हमारे समाज में कदम-कदम पर फैले भ्रष्टाचार पर उस फिल्म का व्यंग्य तो उम्र के पक्के होने के साथ ही समझ में आया। उसके बाद उस फिल्म को न जाने कितनी बार देखा। हर बार उसके कुछ दृश्य आज के दौर के हिसाब से बहुत बचकाने तो लगते लेकिन व्यवस्था पर उतनी ही गहरी चोट भी करते।
खैर, रवि वासवानी, जाने भी दो यारो और दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों को इस दिमागी उथल-पुथल में जोड़ने का काम किया सीवीसी की उस रिपोर्ट ने। ‘जाने भी दो यारो’ में तमाम भ्रष्ट कारनामों में से एक सीमेंट में मिलावट का भी था। ठीक वैसा ही जिसका जिक्र सीवीसी की रिपोर्ट ने दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के सिलसिले में किया। अब सीमेंट कम और रेत ज्यादा होने के कारण स्टेडियम या पुल वगैरह फिल्मी सीन की तरह गिरेंगे या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता। न ही मणिशंकर अय्यर की तरह यह कहा जा सकता है कि अगर वे सब नहीं गिरेंगे तो मुझे बड़ा अफसोस होगा क्योंकि तब घटिया निर्माण की पोल उस तरह नहीं खुल पाएगी, जिस तरह खुलनी चाहिए। तब हो सकता है कि कलमाड़ी एंड टीम यह कहे कि देखो, फिजूल सब बकवास कर रहे थे, कुछ तो न हुआ। इस तरह की ख्वाहिश करने में खतरा यह भी है कि ऐसी घटना होने में कई लोगों की जानों को भी खतरा हो सकता है। अब दिल यह तो नहीं चाहेगा कि इतने लोगों की जान को खतरे में डाले जाने की ख्वाहिश करे। लिहाजा यह ख्वाहिश वाकई नहीं की जा सकती कि किसी फिल्मी सीन की तरह राष्ट्रमंडल खेलों के लिए तैयार हुई इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढह जाएं।
लेकिन फिर भी कहीं न कहीं भीतर से दिल यह तो चाहता ही है कि राष्ट्रमंडल खेलों में कुछ तो ऐसा हो जो सुरेश कलमाड़ी व शीला दीक्षित एंड टीम को मुंह की खानी पड़े। अब देखिए न, मणिशंकर अय्यर ने इतनी बड़ी बात कह दी लेकिन कलमाड़ी के अलावा कोई उन्हें राष्ट्रविरोधी कहने वाला नहीं मिला। इसलिए अगर दिल कहीं न कहीं भीतर से यह चाह रहा है कि राष्ट्रमंडल खेल कामयाब न होने पाएं तो उसकी एक वजह यह भी है कि सुरेश कलमाड़ी को चिरकुट जैसी विजयी मुस्कान के साथ देखते बरदाश्त करना मुश्किल है। पत्रकारिता और खास तौर पर खेल पत्रकारिता में कुछ समय बिताने के बाद किसी खेल संगठन के मुखिया के तौर पर सुरेश कलमाड़ी जैसे लोगों को देखना बड़ा यातनादायक लगता है। अब यह कोई भी आसानी से कह सकता है कि भारत में खेलों का बेड़ा गर्क करने में सबसे बड़ा योगदान कलमाड़ी जैसे लोगों का है जो खेल संगठनों के मुखियाओं की कुर्सी से जोंक की तरह चिपके हुए हैं और आगे भी जमे रहने की कितनी शर्मनाक कोशिश कर रहे हैं।
खैर मौजूदा साजिश में तो सब शामिल लगते हैं, चाहे वह कलमाड़ी का गैंग हो या शीला दीक्षित की बटालियन और मनमोहन की सरकार। आखिर अब तक तो ये सारे ही सोए हुए थे। वरना कोई वजह नहीं थी कि खेल दिल्ली को मिलने के सात साल बाद भी ऐन साठ दिन पहले बारिश हो तो सबके दिल से यही आह निकलती है कि हाय, अब क्या होगा। नतीजा तो हम देख रहे हैं। हद देखिए, कि शनिवार को जब कलमाड़ी से एक चैनल में बारिश से रिसते नए-नवेले स्टेडियमों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अभी तो समय है, टाइम से पता चल गया, सब दुरुस्त कर लेंगे। लेकिन मेरे दिमाग में तो सिर्फ यह कौतुहल है कि क्या होता अगर इन दिनों दिल्ली में बारिश न होती और सारे स्टेडियम, सड़कें, पुल जैसे बन रहे थे, बन गए होते और यह सारी बारिश ऐन राष्ट्रमंडल खेलों के समय होती? तब कलमाड़ी क्या कहते? या फिर फिल्म में नसीरुद्दीन शाह और रवि वासवानी की ही तरह मुझे भी आप कहेंगे- जाने भी दो यारो।

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