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ये यादें बचपन की हैं
तब पिताजी, चाचाजी… बाबाजी आदि जिंदा थे
उनके पास एक कंधा होता था
हम बंधु-बहनें… सब बच्चे
जिद कर उन कंधों पर चढ़ जाया करते थे
खूब खेलते, धमाचौकड़ी मचाते थे
तब हम कंधों का बस यही एक उपयोग समझते थे।
जब पिताजी, चाचाजी… बाबाजी आदि मरे
जाने कहां से कंधे का एक औचित्य निकल आया?
जिनके कंधों पर खेला था, उन्हें कंधा देना पड़ा
अब रोने के लिए मुझे एक कंधे की जरूरत थी
लोगों ने एक-दूसरे के कंधों पर सर रखा
मेरे लिए पत्नी का कंधा काम आया
कभी पिताजी, चाचाजी… बाबाजी आदि के कंधों पर हम खेलते थे
आज मेरे कंधों पर मेरे बच्चे, भतीजे-भांजे खेलते हैं
इतने अनुभव तक मैंने यही समझा कि कंधा बड़े काम का है
पर नहीं जानता था कि
इस दुनिया में कंधे के और भी काम हैं
सब एक मजबूत कंधे की तलाश में रहते हैं
जिसके सहारे उनका धंधा चलता रह सके
आज महिलाएं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं
तो कुछ पुरुष भीड़भाड़ में महिलाओं को
कंधा मारने से नहीं चूकते
कभी एक छप्पर उठाने के लिए सैकड़ों
कंधों की जरूरत होती थी
आज उन कंधों पर बंदूकें रख दी गई हैं
प्रगति के दौर में कंधे का काम बहुत बदल गया है
कंधों पर बच्चों को खेलाने की फुर्सत कहां है किसी के पास
दिन-रात काम में लगे कंधों पर अब रोने की फुर्सत भी कहां
कंधों की जरूरत धीरे-धीरे खत्म हो रही है
आने वाले दिनों में हमारे शव कंधों को तरसेंगे
आखिर किसे है इन कंधों की चिंता।
Ravi Prakash Maurya
Feature Editor
Madhy Pradesh Jansandesh
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