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बहुत बदल गई ‘मां’

vakrokti
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‘मां’ शब्द का उच्चारण होते ही जेहन में एक ऐसी औरत की तस्वीर उभरती है, जो बच्चों पर ममता का आंचल डाले, लाज-शर्म का घूंघट ओढ़े, घर के संस्कार, मान-मर्यादा की रक्षा करते और परिवार के दायित्वों को अपनी नियति माने देहरी के भीतर बैठी है, लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू में देख्ों तो मां बिल्कुल बदले हुए रूप में नजर आती है। आज की मां, ममता की प्रतिमूर्ति नहीं, फैशन और आधुनिकता की मूर्ति लगती है। ये मॉडर्न मां खुद तो बहुत बदल ही गई है, और उसी के अनुरूप अपने बच्चों को भी बदल डाला है। आज वह अपने बच्चों को बुद्धिजीवी नहीं बनाना चाहती, बल्कि उन्हें शीला-मुन्नी और सलमान खान बनाना चाहती है। पुरानी मां के बरअक्स आधुनिक मां पर एक रिपोर्ट-
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दुनिया बदल गई है, तो आखिर मां क्यों न बदले? चेहरे पर वही झुर्रियों और पके बालों वाली मां, जिसकी आंख्ों बूढ़ी हैं, जो हर पल-हर क्षण सिर्फ अपने बच्चे की चिंता करती है, आखिर कब तक चलेगी? जब सब कुछ बदल रहा तो मां भी बदल गई। लेकिन शायद हममें से कोई भी यह नहीं चाहता कि मां बदले। बावजूद इसके मां बदल गई और इतनी बदल गई कि ‘मां’ का लबादा भी उतार कर फेंक दिया। आज उसे यह कतई पसंद नहीं कि कोई उसे ‘दो बच्चों की मां’ समझे। इस काम में उसकी मदद करता है ‘संतूर वाला साबुन’ और हमेशा जवां बनाए रखने वाली क्रीमें। देखा जाए तो ‘मां’ में इतने बदलाव आने के बाद भी ‘मदर्स डे’ मनाने के तरीके में कोई बदलाव नहीं आ रहा है। दो-तीन दशकों से लेकर हाल तक मां को याद करने का चलन आज भी बिल्कुल परंपरागत एवं एक-सा ही है। हफ्ते, दस दिन पूर्व से ही भावनात्मक संदेशों, कविताओं-लेखों के माध्यम से मां के नाम पर सबको रुलाई आनी शुरू हो जाती है। औरतों को ‘मजे की चीज’ समझने वालों के लिए भी ‘मां’ इन दिनों बहुत महान हो जाती है। मदर्स-डे के नाम पर कुछ समय के लिए वे भूल जाते हैं कि एक औरत ही मां होती है। मदर्स-डे बीतते न बीतते औरतों पर आधारित झकास आइटम, पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग-फेसबुक तथा टीवी चैनलों की फिर जरूरत बन जाते हैं।
जमाने के मुताबिक बदलता
मां का नजरिया
यह दृश्य है एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में वार्षिक समारोह का। हाल ठसाठस भरा है, उस स्कूल के बच्चों की मांओं से, क्योंकि पापाओं को उनकी व्यस्तताओं के चलते समय नहीं मिलता। रंगारंग स्टेज सजा है और डायस पर एक छोटी-सी बच्ची डांस कर रही है। उम्र करीब छह-सात वर्ष। बैक ग्राउंड में म्यूजिक बज रहा है- ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए…’। गीत खत्म होता है और उस बच्ची के परफॉर्मेंस से पूरा हाल इतना प्रभावित होता है कि इनामों की झड़ी लग जाती है। एक छोटी-सी बच्ची का इतना शानदार प्रदर्शन, लाजवाब! इस गाने पर डांस करने वाली बच्ची की मां तो इतनी खुश है कि जैसे उसने जग जीत लिया हो। रंगारंग कार्यक्रम की महफिल ‘मुन्नी’ नाम की इस बच्ची ने लूट ली। हाल में मौजूद अन्य बच्चियों की मांएं सोच रही हैं कि काश! उनको भी बच्ची इस ‘मुन्नी’ जैसी होती।
मदर्स-डे के बहाने यह घटना बरबस ही याद आ गई। यह वाकया हमें बताता है कि आज मां का स्वरूप कितना बदल गया है, साथ ही उसकी परिभाषा भी। आज वे खुद को कल्पना चावला, किरण मजूमदार, चंदा कोचर आदि की मां कहलाने के बजाय शीला, मुन्नी, ब्यूटी पेजेंट व किसी हीरोइन की मां कहलाना पसंद करती हैं। वे अपनी बेटियों को आइटम डांस करते या संजते-संवरते देख ज्यादा खुश होती हैं, और इन्हीं की तरह उन्हें बनाना भी चाहती हैं। वहीं बेटियां भी चाहती हैं कि उनकी मां ऐसी ही विचारधारा की हो। उदाहरणार्थ- आज राखी सांवत की मम्मी अपनी बेटी के साथ हैं। राखी की तमाम ओछी हरकतों पर आज उन्हें बड़ा गर्व होता है, क्योंकि ग्लैमर की दुनिया में ये सब चलता है। वहीं ऐसी भी मांओं की कमी नहीं है, जिन्हें अपनी बेटी के फैशन एंड मॉडर्निटी की हद तक चले जाने पर फक्र होता है और वे स्वयं उसके लिए ऐसा रास्ता भी तैयार करती हैं।
कितनी बदल गई मां
मेरे ख्याल से मदर्स-डे पर मां की ममता और महानता पर बात करने के बजाय इस पर बात क्यों न की जाए कि आज की मां कितनी बदल गई है? पुरानी वाली मां वह रही या फिर नहीं रही?? आज की मां क्या सोच रही है, क्या चाह रही है, क्या कर रही है, इसको आधार मानकर क्यों न मां की नई परिभाषा लिखी जाए??? देखा जाए तो आज की नई मां काफी हद तक उस इंग्लिश मीडियम स्कूल के वार्षिक समारोह की मुन्नी की मां की तरह है। आज की मां उन मुन्ने-मुन्नियों की मां है, जो लोरी नहीं सुनाती, बल्कि गाने सुनाती है। बच्चों के लिए अपने को मिटा नहीं देती, बल्कि अपने फिगर की फिक्र करती है, जो टींस-टॉप पहनती है और पार्लरों में सजती-संवरती भी है। उसके बच्चे आंचल की छांव या मां की ममता नहीं जानते, मां के दूध का स्वाद उन्हें नहीं पता, वे ‘अमूल छाप बच्चे’ हैं।
कवियों-शायरों की मां हमेशा बूढ़ी झुर्रियों वाली ही रही है, लेकिन आधुनिक मां बिल्कुल वैसी नहीं है। आज की मां की त्वचा ऐसी होती है कि उससे उसकी उम्र का पता ही नहीं चलता। वह ऐसे तमाम प्रसाधनों का प्रयोग करती है, जिससे वह जवान दिखे, न कि किसी की मां या मां जैसी लगे। दूसरे अर्थों में कहें तो आज की मां को ‘मां’ कहलाना या उस तरह दिखना पसंद नहीं है। उदारीकरण के दो दशकों बाद आज समय थोड़ा ही नहीं, बहुत अधिक बदल गया है। इस काल में मां-बेटी की उम्र में कोई खास अंतर नहीं रहा। कभी-कभी तो शादी-विवाह या पार्टियों-समारोहों में मां-बेटी को पहचानना तक मुश्किल हो जाता है कि कौन मां है और कौन बेटी? अगर मन में आज की मां के इस स्वरूप का ख्याल लाएं तो क्या हम वैसा रो पाएंगे, जैसा कि आज मदर्स-डे के नाम पर रोया जा रहा है।
कहां गई वो मां की ममता
आज से करीब चार साल पूर्व हॉलीवुड की फेसम एक्ट्रेस एलिजाबेथ टेलर की एक खबर सुर्खियों में रही थी। उनकी मृत्यु के बाद एक पत्रकार ने रहस्योद्घाटन किया कि टेलर की एक अवैध बेटी भी थी, जिसे उन्होंने दुनिया से छुपाए रखा। वह बेटी उनकी शादी से पहले पैदा हुई थी। ग्लैमर, शोहरत और रंगीन जिंदगी की खातिर टेलर ने बेटी को लावारिस छोड़ दिया, उसके लिए उनके के मन में रंच मात्र भी ममता नहीं थी। उनकी इस करतूत से उनकी बेटी ताउम्र मां नाम से नफरत करती रही। एक दूसरा उदाहरण भी है- चर्चित टीवी शो ‘कॉफी विद करण’ में जावेद अख्तर के बेटे-बेटी फरहान और जोया अख्तर ने स्वीकार किया कि वह अपनी सौतेली मां शबाना आजमी से नफरत करते हैं। फरहान और जोया के मन को एक पल के लिए अगर हम अपना मन मान लें तो नि:संदेह ऐसे ही अहसास से गुजरेंगे। आज की महिलाओं के लिए रोल मॉडल तमाम शबानाएं हमारी ग्लैमर इंडस्ट्री में मौजूद हैं। वहां शादीशुदा मर्दों से शादी आम बात है। मेट्रो समाज में भी यह कल्चर काफी देखने को मिल जाता है। यह कल्चर जितना बढेèगा, मां की ममता उतनी ही कम होती जाएगी। ऐसी मांओं के बच्चे अपनी मां को भले ही कितना सम्मान दें, लेकिन उनकी मां किसी से नफरत भी पाएगी।
…मगर ऐसी भी हैं मांएं
मदर्स-डे पर हम सभी अपनी मां को तो याद कर लेते हैं, लेकिन क्या कभी यह सोचते हैं कि मां को भी अपनी मां की याद सताती है। हम सबकी राय यही है कि मां तो ऐसी होती है, जो अपनी ममता सिर्फ दूसरों पर लुटाती है, उसे ममता की क्या जरूरत? इस दुनिया में तमाम ऐसी मांएं भी हैं, जिन्हें किसी के सहारे की आस है। ये ऐसी मांएं हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को सीने से लगाकर पाला, लेकिन वे पराए हो गए या जिंदगी के एक मोड़ पर साथ छोड़ गए।
मध्यप्रदेश के चित्रकूट की रामरानी देवी ऐसी ही एक बेसहारा औरत हैं, जिन्हें किसी का सहारा चाहिए। कर्इ साल पहले पति बद्गीनाथ गए थे, लेकिन वहां से नहीं लौटे। बाद में उनकी मौत की खबर आई। उनके तीन बेटे हैं, तीनों कमाऊ लेकिन बहुओं का व्यवहार ऐसा है कि उन्होंने विधवा आश्रम की राह पकड़ ली। विधवा आश्रम में रामरानी जैसी तमाम महिलाएं हैं, जिन्होंने किसी न किसी कारणवश विधवा आश्रम की शरण ले ली। सतना की शांति देवी, छतरपुर की प्रेमवती शर्मा, माईथान की चंदो तथा फिरोजाबाद की रामरत्ती सभी का आश्रय स्थल विधवा आश्रम है। इन सभी मांओं की अपनी दुखभरी कहानी है। मदर्स-डे की बावत बात करने पर उनके चेहरे का रंग उतर जाता है। अपने परिवार नहीं सिर्फ आश्रम की बात करना पसंद करने वाली ये महिलाएं अपने बचपन के दिनों की याद कर बहुत खुश हो जाती हैं। जैसे ही यह सवाल होता है कि आप एक मां हैं, क्या आपको अपनी मां की याद नहीं आती? तो आंखों में खुशी लिए झट कहती हैं- बिल्कुल आती है… जैसे सबकी मां होती है, वैसे ही हमारी भी मां थी। मां की याद आते ही इन सभी विधवा मांओं की आँखें भर आईं… और उन्हें देखकर मेरी आँखें भी पनीली हो गईं।
मां की दुनिया में ‘सुपरमामो’
अभी तक तो यही लगता था कि मां का स्थान कोई नहीं ले सकता, लेकिन कहते हैं समय सब कुछ बदल देता है। मां की दुनिया में अब ‘सुपरमामो’ की इंट्री हो गई है। पुरुषों के साथ कंध्ो से कंधा मिलाकर चलने वाली तथा कामकाजी होती मां जब अपने कर्तत्व-दायित्वों से विमुख होने लगी तो उसके विकल्प के रूप में सुपरमामो का जन्म हो गया। आखिर एक नारी का क्या काम है? सफाई करना, कपड़े धोना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना और उनके साथ ख्ोलना…। जब मां के पास इन कामों को करने के लिए समय नहीं रहा तो सुपरमामो ने यह काम संभाल लिया। ये सुपरमामो किसी अलग दुनिया के प्राणी नहीं हैं, दरअसल ये सुपर पापा हैं यानी वे ‘नव पापा’, जो अपने पापा होने को बहुत गंभीरता से लेते हैं। इतनी गंभीरता से कि वे मां को कुछ नहीं करने देते और बच्चे के सभी काम स्वयं करते हैं। ये पापा एक तरह से मॉमब्लाकर हैं। बच्चे के बारे में छोटे-बड़े सभी निर्णय ये स्वयं लेते हैं और मां को बीच में दखल देने की अनुमति नहीं देते। ये पापा बच्चे के लिए हर तरह से मां बन जाते हैं। पापा सुपरमामो इसीलिए बने, क्योंकि पुरुष और नारी के एक साथ कामकाजी होने पर घर में जिम्मेदारियों को लेकर अलग-अलग रोल के बारे में बहस बहुत तेज हो गई थी और महिलाएं मां की जिम्मेदारी अकेले निभाने से इंकार करने लगी थीं। बच्चे की नैपी बदलने, दूध पिलाने की बात हो या फिर बड़े बच्चों के लिए नाश्ता तैयार करना और उसे स्कूल छोड़ना, इन कामों के लिए महिलाओं ने यह कहकर पुरुषों पर दबाव बनाना शुरू किया कि यह काम सिर्फ महिलाएं ही क्यों करें? फिर क्या था, पुरुष ने भी समय की जरूरत कहें या मजबूरी, अपना चोला बदल लिया।
पापा के सुपरमामो बनने की एक वजह और भी है। बड़ी उम्र तक शादी न करना फिर जल्द तलाक हो जाना और अकेलपन की आदत। वर्तमान समय में तलाक लेने वालों में कई पापाओं के बच्चे उनके ही साथ रहते हैं, तो उन्हें मजबूरन मम्मी और पापा दोनों बनना पड़ता है। इसके अलावा बिना विवाह के साथ रहने वाले युगल भी बहुत हैं और दिनोंदिन इनकी संख्या बढ़ रही है। इस तरह के परिवार में, जहां अविवाहित युगल रहते हैं, एक अध्ययन यह कहता है कि उनमें पुरुष और स्त्री दोनों का बराबर काम बांटकर करना पड़ता है। यानी स्त्री पर घर के काम का बोझ कम होता है।
ये मदर्स-डे कहां से आया
मां को खुशियां और सम्मान देने के लिए पूरा जीवन भी कम है, फिर भी दुनिया में मां के सम्मान में मातृ दिवस (मदर्स-डे) मनाने का चलन है। मदर्स-डे दुनिया के अलग-अलग भागों में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है, साथ ही अलग-अलग तिथियों को भी। इसके इतिहास में भी भिन्नता है, लेकिन सबसे अधिक महत्व अमेरिकी आधार पर मनाए जाने वाले मदर्स-डे का है, जो मई के दूसरे रविवार को मनाया जाता है। दरअसल, यह मदर्स-डे युद्धों की विभीषिका से जुड़ा है। युद्धों की विभीषिका को देखकर महसूस किया गया कि दुनिया को ऐसे भीषण समय में कोई बचा सकता है तो सिर्फ मां की ममता। इसी में वह ताकत है, जो महायुद्धों से दुनिया को बचाकर उसे सुंदरतम बनाएगी। इस भावना के साथ 19०7 में फिलाडेल्फिया की सुश्री जूलिया वार्ड होव और सुश्री एना जार्विस ने अपनी मां अन्ना मारिया रीव्स जार्विस के नाम पर मदर्स-डे मनाया। उन्होंने तत्कालीन सरकार पदाधिकारियों और व्यवसायियों को 1०० से भी ज्यादा पत्र लिखकर एक दिन मां के नाम करने का निवेदन किया। फिर 1० मई, 19०8 को अन्ना को श्रीमती जार्विस की तीसरी पुण्यतिथ पर उनकी याद में मदर्स-डे मनाया गया। इसके छह साल बाद 8 मई, 1914 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स-डे मनाने और मां के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को मदर्स-डे मनाया जाता है।
-रवि प्रकाश मौर्य (07747018407)

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