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लोकसभा चुनाव की सबसे हॉट सीट। कुल मतदाता 15,32,438। वोट- तीन लाख व्यापारी व इतने ही मुसलमान, दो लाख ब्राह्मण व इतने ही कुर्मी, डेढ़ लाख भूमिहार व इतने ही दलित, सवा लाख यादव और बाकी अन्य जातियां। मुख्य टक्कर भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी व दिल्ली में तख्ता पलट करने राजनीति में नया अध्याय रचने वाले ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल में। सट्टïा 110 करोड़ रुपये का। चुनावी जंग का यह आंकड़ा वाराणसी सीट का है। राज्य ही नहीं, देशभर के लोगों की निगाहें भी इस सीट पर लगी हैं कि यहां से कौन जीतेगा? मीडिया की कवरेज का केंद्र बनने से वाराणसी वासी भी पूरे जोश में हैं, लेकिन उत्साह के अतिरेक में वह शायद यह भूल गए हैं कि चुनाव के बाद उन्हें क्या मिलेगा? या यूं कहें कि यहां से मोदी जीतें या केजरीवाल, आखिर मंदिरों के शहर को अंतत: क्या हासिल होगा? खैर, 16 मई को यह भी पता चल जाएगा।
शहर के एक प्रमुख साहित्यकार का ‘काशी का अस्सी’ के लेखक ठेठ बनारसी काशीनाथ कहते हैं कि मोदी के बनारस से चुनाव लडऩे के चलते यह शहर देशभर में एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है। अगर मोदी यहां से जीतते हैं तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसका महत्व बढऩा तय है। इकोनॉमिक टाइम्स भी इसे वाराणसी के पर्यटन उद्योग में उछाल के रूप में देख रहा है। दूसरी ओर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक आनंद दीपायन का मानना है कि कोई जरूरी नहीं कि मोदी ही जीतें। यहां से केजरीवाल भी चुनाव जीत सकते हैं, क्योंकि जातीय समीकरण की कसौटी पर देखें तो उनकी झोली वोटों से भर दिख रही है। मुसलमानों, कुर्मियों व दलितों के साथ अधिकतर छात्रों व बुद्घिजीवियों का उनके पक्ष में वोट देना तय है, लेकिन यहां एक सवाल यह है कि इन मतदाताओं का वोट प्रत्याशियों के पक्ष में जाएगा या वाराणसी के? अभी तक के रुझान से फिलहाल तो यही दिख रहा है कि मतदाता इस बारे में कतई नहीं सोच रहे हैं। देखा जाये तो वाराणसी की यह जंग मोदी व केजरी के बीच नहीं है, बल्कि इस जंग में बनारस के मतदाता ही दांव पर लगे हैं। वह एक ऐसे चुनाव के सामने खड़े हैं जिसकी जीत और हार से उनका सांसद तय होगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है। फिलहाल, इस बात की पूरी संभावना दिख रही है कि वाराणसी वासियों को एक बार और वोट डालना पड़ेगा अपने ‘असली संसद प्रतिनिधि’ को चुनने के लिए। मोदी के वाराणसी के साथ बड़ोदरा से भी चुनाव लडऩे पर विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उछाला था कि वह यहां से जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे। मोदी की मुश्किल यह है कि अगर वह दोनों सीटों में से एक पर भी चुनाव हारे तो प्रधानमंत्री पद पर उनके दावे की हवा निकल जाएगी। इसको देखते हुए भाजपाइयों ने यहां से मोदी को जिताने के लिए पूरी ताकत लगा दी है। सवाल यह है कि अगर मोदी वाराणसी व बड़ोदरा दोनों सीट से जीत जाएंगे, तब क्या करेंगे? विपक्ष की चर्चाओं के अनुसार वह बनारस की सीट छोड़ देंगे। हो सकता है कि मोदी बड़ोदरा की सीट छोड़ दें, क्योंकि वह तो अपना ‘घर’ ही है, उन्हें समझाना आसान है। 12 मई को मतदान से ठीक एक दिन पूर्व राजनाथ सिंह का यह बयान ‘उनकी जन्मभूमि मोदी की कर्मभूमि बनेगी’ शायद इसीलिए आया। उन्हें इसका डर अभी से सता रहा है कि अगर यहां से मोदी ने जीतने के बाद इस्तीफा दिया तो वारणसी वासी मोदी को नहीं, भाजपा को भी कभी माफ नहीं करेंगे।
अब बात करते हैं केजरीवाल की। उन्होंने पहले से ही तय कर लिया था कि उन्हें मोदी के खिलाफ लडऩा ही है। वह जहां से भी चुनाव लड़ते, केजरी उन्हें वहीं चुनौती देने जाते। उनकी नजर में लोक सभा सीट की कोई अहमियत नहीं थी, उनका निशाना बस मोदी थे। वाराणसी से उनके चुनाव लडऩे के निर्णय पर लगभग सबने यही कहा कि उनका यहां से जीतना मुश्किल है, दिल्ली की बात और थी। अगर वह यहां से जीते तो तय है कि ‘मुख्यमंत्रियों को हराने वाले माहिर खिलाड़ी’ मान लिए जाएंगे। वैसे भी उन्होंने पहले से ही चुनावी पासा फेंका है कि अगर वह जीते तो दिल्ली की विधायकी छोडक़र बनारस की सांसदी स्वीकार करेंगे। वाराणसी वासियों को लुभाने के लिए मोदी के खिलाफ यह उनका सबसे कारगर हथियार है। दूसरी ओर छात्र आंदोलन के एक बड़े केंद्र बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की यह परिचर्चा भी गौर करने लायक है। एक छात्रा श्रुति का कहना है कि बनारस का विकास अगर जीतने वाला प्रत्याशी नहीं कर पाया तो उसका काफी नकारात्मक प्रचार होगा और कुछ नहीं करने वाले इस बार माफ नहीं किए जाएंगे। कई छात्रों ने सवाल किया कि आखिर बनारस के युवाओं को शहर छोडक़र दिल्ली या मुंबई का रुख क्यों करना पड़ रहा है? छात्रों की परिचर्चा का मजमून यही था कि इतनी बार विकास के वायदों के बाद भी विकास नहीं पाने वाले शहरवासी अब किसी भी प्रत्याशी पर आंखें मूंदकर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। जाहिर है, अगर भाजपा इस क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत मानती है तो यह बात उसके खिलाफ जाएगी। सवाल यह है कि उसका रुझान किस ओर होगा। कहने की जरूरत नहीं कि केजरी ही उन्हें लुभाएंगे। मान लीजिए कि केजरी यहां से वह हार गए, तब क्या होगा? जरा गौर करिए कि अगर मोदी यहां से जीते, लेकिन यह सीट छोड़ दें। यहां चुनाव दुबारा होंगे और केजरी फिर यहां से चुनाव लड़ें तो उनका जीतना एकदम तय है यानी यह चुनाव हारकर भी केजरी के लिए सांसद बनने का अवसर रहेगा। जाहिर-सी बात है कि इसके राजनीतिक स्तर पर बहुत बड़े निहितार्थ होंगे। मतदान से एक दिन पूर्व केजरी के पक्ष में वाराणसी वासियों ने जिस तरह पाला बदला है, संभावना इस बात की भी है कि वह केजरी को जीत भी दिला दे।
बीएचयू की ही एक छात्रा अंशा के शब्दों में कहें तो वाराणसी इन दिनों ‘पीपली लाइव’ बना हुआ है। अभी यहां राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मीडिया का जमावड़ा है, लेकिन चुनाव के बाद सब खत्म हो जाएगा। फिर न यहां प्रत्याशी दिखेंगे और न ही मीडिया होगा या फिर वाराणसी वासी ‘नत्थू’ की तरह ही छले जाएंगे। कुल मिलाकर वाराणसी में कोई भी जीते, लेकिन तमाम सवाल उठना तय है।
Deputy News Editor
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