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एक आंदोलन की शुरुआत के लिए इस समय जंतर मंतर से बेहतर और क्या जगह हो सकती है? यह स्थान एक नहीं, सैकेड़ों आंदोलनों का गवाह रहा है। हाल ही में यह स्थान इसलिए और हिट हो गया क्योंकि अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल ने भी अपना आंदोलन यहीं से छेड़ा था। दामिनी रेपकांड में न्याय की आवाज भी यहीं से उठी जिसकी गूंज वैश्विक स्तर पर सुनी गई। शायद यही सोचकर भगाना की बलात्कार पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए जेएनयू के आंदोलनकारी छात्र वहां पहुंचे थे, लेकिन उन्हें निराशा मिली। न तो उन्हें मीडिया कवरेज मिली और न ही इस पर नेताओं, समाजसेवियों व बुद्घिजीवियों ने खास गौर किया। नतीजतन एक जरूरी और आवश्यक आंदोलन शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया और इसी के साथ एक बड़ा सवाल भी छोड़ गया।
यह घटना बीते 22 अप्रैल की है। हरियाणा में भगाना की चार कमसिन लड़कियों से बलात्कार के बाद पीडि़त गांव के करीब 100 गरीब दलित परिवारों के पुरुष, महिलाएं व उनके बच्चे न्याय की मांग को लेकर दिल्ली प्रदर्शन करने पहुंचे थे। उन्हें लगा कि यहां का मीडिया दुनिया को उनका दर्द सुनाएगा और दिल्ली उन्हें न्याय दिलाएगी। उनके साथ गैंग रेप की पीडि़त चारों लड़कियां भी थीं। चार दिनों तक जब किसी ने उन्हें नोटिस नहीं किया, तब वे 19 अप्रैल को जेएनयू पहुंचे और वहां के छात्र-छात्राओं से इस आंदोलन को अपने हाथ में लेने की मांग की। दरअसल, उन्होंने यह सुन रखा था कि दिल्ली की दामिनी को न्याय जेएनयू के छात्र-छात्राओं के आंदोलन की वजह से ही मिला। खैर, छात्र-छात्राओं ने उनकी बात सुनी और 22 अप्रैल को अपने पारंपरिक तरीके के साथ जंतर-मंतर पर जोरदार प्रदर्शन किया मगर आश्चर्य कि सूचना देने के बावजूद मीडिया के लोग वहां नहीं पहुंचे। हालांकि इससे पूर्व यह खबर सोशल साइटों पर एक मुद्ïदा बन चुकी थी फिर भी आज तक, एबीपी न्यूज, एनडीटीवी सहित सभी प्रमुख चैनल व हरियाणा के स्थानीय चैनलों ने इस खबर को वो कवरेज नहीं दी जिससे आंदोलन का धार मिलती। यह घटना कई सवाल खड़े करती है। क्या खबर का स्पेस सिर्फ भीड़ और बिकने की क्षमता पर निर्भर करना चाहिए? क्या मीडिया का समाज के वंचित तबकों के प्रति कोई अतिरिक्त नैतिक दायित्व नहीं बनता? अन्ना आंदोलन के पहले ही दिन देश व्यापी कवरेज के पीछे उनकी क्या मंशा थी? जब दामिनी की याद में कैंडिल जलाने वालों से भगाना रेप कांड के आंदोलनकारियों की संख्या अधिक थी, तब भी उन्हें नजरंदाज क्यों किया गया?
अब बात करते हैं घटना की गंभीरता की। हरियाणा में भगाना के चमार और कुम्हार जाति के लोग पिछले दो साल से जाटों द्वारा किये गये सामाजिक बहिष्कार के कारण अपने गांव से बाहर रहने को मजबूर हैं। धनुक जाति के लोगों ने बहिष्कार के बावजूद गांव नहीं छोड़ा था। बलात्कार की शिकार चारों बच्चियां इन्हीं धुनक परिवारों की हैं। उन्हें एक साथ उठा लिया गया और दो दिन तक एक दर्जन लोग उनके साथ गैंग-रेप करते रहे। यह दरअसल सामाजिक बहिष्कार को नहीं मानने की खौफनाक सजा थी। यह घटना दिल्ली की दामिनी से कम दर्दनाक व खौफनाक नहीं हैं, इसके बावजूद इन पीडि़तों की सुनने वाला कोई नहीं है। इस मामले में एफआईआर, धारा 164 का बयान, मेडिकल रिपोर्ट आदि सब मौजूद है फिर भी। आखिर राज्य की सरकार कर क्या रही है? सवाल अरविंद केजरीवाल से भी है जो उसी हिसार जिले के हैं, जहां यह भगाना और मिर्चपुर गांव है। पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की अलख की जगाने वाले अरविंद ने क्या कभी इनके लिए आवाज उठाई? वह लोकसभा चुनाव में यूपी के बनारस से ताल ठोंक सकते हैं, लेकिन क्या उनके पास अपने गांव की इस भीषण समस्या को लेकर सोचने का समय नहीं है? और हरियाणा के मुख्यमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार व आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव भी इन पीडि़तों के लिए क्या कर रहे हैं जिन गरीबों, दलितों और पिछड़ों के वोट से वह सरकार बनाने का सपना पाले हैं। आम आदमी पार्टी की थिंक टैंक में शामिल प्रो. आनंद कुमार भी जेएनयू में 19 अप्रैल को इन लड़कियों को न्याय दिलाने को आयोजित सभा में बुलाने के बावजूद नहीं पहुंचे थे, इसे किस रूप में लिया जाए?
देखा जाए तो यह हरियाणा की बहु़त बड़ी समस्या है। यहां की अगड़ी जातियां खासकर जाट दलितों की बहनों-बेटियों पर अत्याचार को अपना अधिकार समझते हैं। दलितों का विरोध उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। इसी साल अप्रैल में भिवानी जिले के रिवासा गांव में घटी यह घटना यहां के दलितों की दर्दनाक कहानी बयां करने को काफी है। एक दलित महिला अपनी छोटी बच्ची को दूध पिला रही थी कि अचानक आए दबंगों ने उसे दबोच लिया। दुधमुंही बच्ची को उससे छीनकर जमीन फेंक दिया और सामूहिक बलात्कार किया। इसी तरह हिसार में ही फरवरी 2013 में सरसाना में 13 साल की दलित मासूम के साथ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया। यहां बलात्कार किस तरह होते हैं, अखबारों में प्रकाशित 2012 का यह आंकड़ा भी देखिए। इस वर्ष हिसार में 94, करनाल में 92, रेवाड़ी में 89, रोहतक में 87, गुडग़ांव में 34, अंबाला में 31, फरीदाबाद में 28 बलात्कार हुए। इनमें करीब 80 प्रतिशत बलात्कार दलित महिलाओं-लड़कियों से किए गए। बहुचर्चित सच्चाखेड़ा का बलात्कार कांड भी इसी साल अक्टूबर में हुआ जिसने सोनिया गांधी तक को पीडि़तों का हाल जानने गांव पहुंचने को मजबूर कर दिया। यहां गौर करने वाली बात यह है कि लगभग सभी मामलों में पुलिस लापरवाही बरतती है। सच्चाखेड़ा कांड में तो अस्पताल ने भी हद पार कर दी थी। बलात्कार के बाद जिंदा जलाई गई युवती को अस्पताल के डॉक्टरों ने बीपीएल व अन्य कागजातों के बिना इलाज करने से मना दिया था फलस्वरूप उसने दम तोड़ दिया।
यहां सवाल यह उठता है कि इस लोकसभा चुनाव में जब हर पार्टी गरीबों, दलितों व पिछड़ों के हितों की बात कर रही है, तब इन मु्ïद्ïदे की ओर उनका ध्यान क्यों नहीं है? आखिर कहां है दबे-कुचलों के नाम पर राजनैतिक रोटी सेंकने वाले? वे सामाजिक संगठन भी कहां है जो वर्गीय बराबरी की बात करते हैं? आखिर वर्षों से चली आ रही अगड़ों द्वारा दलितों पर अत्याचार की आवाज उन तक क्यों नहीं पहुंच रही है? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर मीडिया किसी पीडि़त की आवाज उठाने से इंकार कर दे तो आंदोलनकारी क्या करेंगे? इसके लिए उन्हें मीडिया पर आश्रित होने के बजाय कोई और आसरा अभी से ढूढ़ लेना चाहिए।
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