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इन्सान से बड़ा वहशी जानवर कोई नहीं है, अगर आप इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं
रखते तो इन्सान के खुशियों भरे त्योहारों, मान्यताओं या फिर खेलों पर नज़र
डाल लीजिये. इन्सान अपने फ़ायदे के लिए वक़्त-वक़्त पर कुदरत के तोहफ़ों को
उजाड़ता रहा है. चाहे फ़र्नीचर बनाने के लिये पेड़ काटने हों या फ़ैक्ट्रियों
के लिये जंगल के जंगल उजाड़ने हों. किसी भी जीव की हत्या करना अधर्म है।
विश्व स्तर पर इस तथ्य को भी मान्यता मिल चुकी है कि यदि लोग मांस का
सेवन नहीं करेंगे तो भूखों मरने की नौबत आ सकती है। इसके अलावा अनेक
लोगों द्वारा ऐसे तर्क भी दिये जाते हैं कि पर्यावरण एवं प्रकृति को
संन्तुलित बनाये रखने के लिये भी गैर-जरूरी जीवों को नियन्त्रित रखना
जरूरी है। उनका कहना है कि यदि इससे लोगों को भोजन भी मिले तो इसमें क्या
बुराई है।
लेकिन, गैर-जरूरी की परिभाषा भी तो ऐसे ही लोगों ने गढी है, जिन्हें मांस
भक्षण करना है।
प्रकृति के सन्तुलन को तो सबसे ज्यादा मानव ने बिगाड़ा है, तो क्या मानव
की हत्या करके उसके मांस का भी भक्षण शुरू कर दिया जाना चाहिये। तर्क ऐसे
दिये जाने चाहिये, जो स्वाभाविक लगें और व्यवहारिक प्रतीत हों।
इस्लाम धर्म में बकरीद के दिन बकरे की बलि जरूरी हो चुकी है। इन सब बातों
को रोकना असम्भव है। फिर भी संविधान प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार
व्यक्त करने की आजादी देता है। इसलिये मैं अपने विचारों को अभिव्यक्ति
देकर अपने आपको हल्का अनुभव कर रहा हूँ।
ऐसा भी नहीं है कि बकरों की हत्या सामान्य दिनों में नहीं होती है,
निश्चय ही रोज बकरों का कत्ल होता है। भारत जैसे देश में इस्लाम को मानने
वालों से कहीं अधिक वेदों और हिन्दु धर्म को मानने वाले मांसभक्षण करते
हैं। यहाँ तक कि जैन धर्म को मानने वाले भी मांस भक्षण करते हैं। श्रीमती
मेनका गांधी द्वारा संचालित ‘पीपुल्स फॉर एनीमल’ संगठन में काम करने वाले
भी मांसभक्षी हैं। यह मुद्दा मुझे गहरे संवेदित करता रहा है .वैदिक काल
में अश्वमेध यज्ञ के दौरान पशु बलि दी जाती थी ..आज भी आसाम के कामाख्या
मंदिर या बनारस के सन्निकट विन्ध्याचल देवी के मंदिर में भैंसों और बकरों
की बलि दी जाती है ..भारत में अन्य कई उत्सवों /त्योहारों में पशु बलि
देने की परम्परा आज भी कायम है . नेपाल में हिन्दुओं द्वारा कुछ धार्मिक
अवसरों पर पशुओं का सामूहिक कत्लेआम मानवता को शर्मसार कर जाता है . बलि
प्रथा के बारे मे सुन कर ही रोंगटे खडे हो जाते हैं,उन निरीह प्राणियों
का चीत्कार जैसे अपने मन से उठने लगता है तो सोच उभरती है कि क्या ऐसी
परंपराओं को मानने वाले इन्सान ही होते हैं? अपने स्वार्थ के लिये एक
इन्सान इतना कुछ कर सकता है? जनजागृ्ति तो फैलाई ही जानी चाहिये। जहाँ
बड़े भैंसों और ऊँट की कुर्बानी दी जाती है …वहां के बारे में बताया
गया कि ऊँट जैसे बड़े जानवर को बर्च्छे आदि धारदार औजारों से लोग तब तक
मारते हैं जब तक वह निरंतर आर्तनाद करता हुआ मर नहीं जाता और उसके खून
,शरीर के अंगों को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है -इस बर्बरता के
खेल को एक बहुत छोटी और बंद जगह में देखने हजारों की संख्या में लोग आ
जुटते हैं .प्रशासन की ओर से मजिस्ट्रेट और भारी पुलिस बंदोबस्त भी होता
है ताकि अनियंत्रित भीड़ के कारण कोई हादसा न हो जाय . “बकरीद पर मासूम
बकरियों का क़त्ल क्या कुर्बानी है ? कहा जाता है कि अल्लाह किसी अपने
अजीज प्रिय की कुर्बानी से खुश होता है. दरअसल इससे यह सिद्ध हो जाता है
कि आप अपने मजहब के लिए क्या त्याग (कुर्बानी) कर सकते हैं.अल्लाह की
आँखों में धूल मत झोंको किसी अपने प्रिय की कुर्बानी दो तब फ़र्ज़ का क़र्ज़
चुकेगा. विडम्बना देखिये कि शाम को एक बकरी खरीदी सुबह तडफा-तडफा कर मार
डाली और कहा कि ‘हो गयी कुर्बानी’. जब यह सम्पूर्ण कायनात अल्लाह की है
तो क्या यह बकरी अल्लाह की नहीं है क्या ? हिन्दुओं के भगवान् हों या
मुसलमानों के अल्लाह इन मजबूर से बेसहारा शाकाहारी ऐसे ही सीधे सादे
प्राणीयों के क़त्ल (बलि / कुर्बानी ) से खुश होते हैं जो किसी का कुछ
नहीं बिगाड़ते, अहिंसक हैं. भगवान् की बलि और अल्लाह के नाम पर कुर्बानी
में ऊँट, बकरी,गाय जैसे सीधे सादे प्राणी ही मारे जाते
हैं,शेर,भेड़िया,कुत्ता,सूअर जैसे प्राणी क्यों नहीं ? न हिन्दू और न
मुसलमान –कोई भी मांसाहारी जानवरों की बलि या कुर्बानी क्यों नहीं देता
? शेर की कुर्बानी क्यों नहीं देते ? हो सकता है कि आप उसकी कुर्बानी /
बलि देने जाएँ और वही आपकी कुर्बानी दे दे. अहिंसक जानवरों का क़त्ल करते
हिंसक जानवर को आदमी मत कहो. . हिन्दू ठहरे कानून से डरने वाले,उन्होंने
हजारों वर्षों की बलि प्रथा को अधिकांश जगहों पर बंद कर दिया.मुसलमानों
को क़ुरबानी देने पर कोई पाबन्दी नहीं है.इस दिशा में न तो सरकार और न ही
पशुप्रेमी ही कुछ करते हुए दिखते हैं.यह इस देश का दुर्दैव है कि यहाँ
हिन्दुओं के लिए एक कानून और अन्यों के लिए अलग कानून रहते हैं.
कानून की बात छोड़ दें तो क्या मुसलामानों को यह नहीं सोचना चाहिए कि
बहुसंख्यक जिस कृत्य को अत्यंत दुखद समझते हैं ,वह नहीं करना
चाहिए?हिन्दू सहिष्णु हैं ,इसका अर्थ यह नहीं होता है कि उनको चिढाने के
लिए कुछ भी करने की इजाजत है.आखिर हिन्दुओं की सहिष्णुता की भी एक सीमा
है .वह सीमा समाप्त होने के कगार पर है.बेहतर है कि अल्पसंख्यक ऐसा कोई
भी कृत्य नहीं करें जिससे बहुसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुँचती हो..मान
लें कि समूचे विश्व में 2 अरब मुसलमान रहते हैं, जिनमें से लगभग सभी
बकरीद अवश्य मनाते होंगे। यदि औसतन एक परिवार में 10 सदस्य हों, और एक
परिवार मात्र आधा बकरा खाता हो तब भी तकरीबन 100 करोड़ बकरों की बलि मात्र
एक दिन में दी जाती है (साल भर के अलग)।
(मैं तो समझता था कि कुर्बानी का मतलब होता है स्वयं कुछ कुर्बान करना।
यानी हरेक मुस्लिम कम से कम अपनी एक उंगली का आधा-आधा हिस्सा ही कुर्बान
करें तो कैसा रहे? बेचारे बकरों ने क्या बिगाड़ा है।)
आखिर पशु भी किसी कि औलाद हैं.उन्होंने भी उसी प्रक्रिया के तहत जन्म
लिया है जिस प्रक्रिया द्वारा हम जन्में हैं.हम आज सभ्यता के विकास के
द्वारा प्रभुता की स्थिति में आ गए हैं और वे बेचारे आज भी वहीं हैं जहाँ
वर्षों-सदियों पहले थे.हमने उन्हें गुलाम बनाया,उन्हें हलों और गाड़ियों
में जोता.उनके दूध पर भी अधिकार कर लिया जो पूरी तरह से उनके बच्चों के
लिए था फिर भी वे कुछ नहीं बोले,विरोध भी नहीं किया.लेकिन प्रभुता का
मतलब यह तो नहीं कि हम उनका गला ही रेत डालें और उन्हें खा जाएँ.यह तो
उनके द्वारा सदियों से मानवता की की जा रही सेवा का पारितोषिक नहीं
हुआ.उन बेचारों को तो यह पता भी नहीं होता कि वे अंधी आस्था के नाम पर
मारे जा रहे हैं.उन्हें तो बस अपने गले पर एक दबाव भर महसूस होता है और
फिर दर्द का,भीषण दर्द का आखिरी अहसास………….
VATSAL VERMA (freelancer journalist cum news correspondent forward
press in Kanpur ) Mob- 08542841018
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