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भारतीय मीडिया में दलित के लिए कोई जगह नहीं है.वह
तो,क्रिकेट,सिनेमा,फैशन, तथाकथित बाबाओं, सनसनी, सेक्स-अपराध, भूत-पे्रत
और सेलिब्रिटीज के आगे-पीछे करने में ही मस्त रहती है.इसके लिए अलग से
संवाददाताओं को लगाया जाता हैं जबकि जनसरोकार एवं दलित-पिछड़ों सेसंबंधित
खबरों को कवर करने के लिए अलग से संवाददाता को बीट देने का प्रचलन लगभग
खत्म हो चुका है. इसे बाजारवाद का प्रभाव माने या द्विज-सामंती सोच.
मीडिया, सेक्स, खान-पान, फैशन, बाजार, महंगे शिक्षण संस्थान के बारे
मेंप्राथमिकता से जगह देने में खास रूचि दिखाती है. ऐसे मैं दलित के लिए
मीडिया में कोई जगह नहीं बचती ? अखबार हो या खबरिया चैनल, दलित आंदोलनकभी
मुख्य खबर नहीं बनती है. अखबारों में हीरो-हीरोइन या क्रिकेटर पर पूरापेज
छाया रहता है, तो वहीं चैनल पर घण्टों दिखाया जाता है. दलित उत्पीड़न
कोबस ऐसे दिखाया जाता है जैसे किसी गंदी वस्तु को झाडू से बुहारा जाता हो
?
आज हालात यह है कि मीडिया की दृष्टिकोण मेंतथाकथित उच्चवर्ग फोकस में
रहता है.कैमरे का फोकस दलित टोलों पर नहींटिकता. टिकता है तो हाई
प्रोफाइल पर. बात साफ है जो बिके उसे बेचो? अब खबरपत्रकार नहीं तय करता
है बल्कि,मालिक और विज्ञापन तथा सरकुलेशन प्रमुख तयकरते हैं. वे ही तय
करते हैं कि क्या बिकता है और इसलिए क्या बेचा जानाचाहिए.
भारतीय परिदृश्य में अपना जाल फैला चुके सैटेलाइट चैनल यानी खबरिया
चैनलों की स्थिति भी कमोवेश एक ही जैसी है. यहां भी कब्जा सवर्ण हिन्दू
वर्ग का ही है.90प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज हैं. हालांकि हिन्दू पिछड़ी
जाति के सात प्रतिषत, अशराफ मुसलमान तीन एवं महिलाएं 10 प्रतिशत हैं यहां
भी दलित, ढूंढते रह जाओगे. इसे देखते हुए इंडियाज न्यूज पेपर रिवोल्यूशन
के लेखक और लंबे समय से भारतीय मीडिया पर शोध कर रहे राबिन जेफरी ने कहा
कि भारतीय मीडिया जगत में टेलीवीजन ने भले ही सूचना क्रांति ला दी हो
लेकिन उसके अपने अंदर सामाजिक क्रांति अभी तक नहीं आ पाई है.अब वक्त आ
गया है कि टेलीवीजन के न्यूज रूम अपने अंदर बदलाव लायें और दलितों के लिए
अपने दरवाजे खोल दें.
देश की एक चैथाई जनसंख्या दलितों की है और सबसे ज्यादा उपेक्षित और
पीड़ित शोषित वर्ग है. आजादी के कई वर्षों बाद भी इनकी स्थितिमें कोई
विशेष सुधार नहीं हुआ है. अत्याचार की घटनाएं बढ़ ही रही है.कहनेके लिये
कानूनी तौर पर कई कानून हैं.फिर भी घटनाएं घट रही हैं और वेघटनाएं मीडिया
में उचित स्थान नहीं पा पाती. क्योंकि मीडिया, पूजीपतियोंकी गोद में खेल
रही है.
लोकतंत्र की इसी जमीन पर और इसी आईने के सामने हरियाणा के सैकड़ों दलित जो
सिर्फ दलित होने का दंश झेल रहे हैं, जिनको गांव के सवर्णों यानी तथाकथित
ऊंची जाति वालों ने गांव से भगा दिया। भूखे, नंगे, बेघर लोग आज भी
‘न्याय’ जैसे शब्दों के अर्थों में अपना जीवन खोज रहे हैं। सत्ताएं
गूंगी-बहरी हो गई हैं। मीडिया भी देश की तीस करोड़ से अधिक आबादी से जुड़े
मुद्दों पर अक्सर मौन रहता है। वैसे भी इन लोगों का दो-तिहाई जीवन
बेकारी, बेबसी, उत्पीड़न के कारण अनशन में ही गुजरता है, इनको अलग से अनशन
पर बैठने की जरूरत नहीं है। कोई भी पत्रकार और उसका खोजी कैमरा इन तक
क्यों नहीं पहुंचा। सरकार खुद कहती है कि देश के गोदामों में अनाज सड़
रहा है और दूसरी तरफ हर साल लाखों लोग भूख के कारण मर जाते हैं। सुप्रीम
कोर्ट भी इस मामले पर आदेश दे चुका है, पर स्थिति वही ‘ढाक के तीन पात’
वाली ही है।
लेकिन गलती से भी एक भी माइक, कैमरा खाद्य सुरक्षा जैसे गंभीर मानवीय
सवाल पर धरने पर बैठे वामपंथियों की तरफ नहीं मुड़ा। आखिर यह भी तो पूरे
देश से जुड़ा मुद्दा है। फिर, मीडिया ने इतना भेदभाव क्यों किया?
मीडिया की तर्ज पर अण्णा ने भी अपना धर्म बखूबी निभाया, एक भी शब्द पड़ोस
में बैठे दलितों की सहानुभूति में नहीं बोला और न ही सबको रोटी मिले जैसे
राष्ट्रीय मानवीय मुद्दे पर वामपंथियों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन पर कोई
टिप्पणी की। हो सकता है ऐसे मुद्दे ‘लोकपाल’ के दायरे में न आते हों, पर
मीडिया को तो इतना बेगैरत नहीं होना चाहिए।
जाने माने सामाजिक विश्लेषक रॉबिन जेफ़री ने पिछले दिनों दिल्ली में
राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान में भारतीय मीडिया में दलितों की स्थिति
की चर्चा की. उन्होंने बताया कि मीडिया के प्रमुख 300 नीति निर्धारकों से
दलित नदारद हैं.
प्रोफ़ेसर जेफ़री के अनुसार भारतीय संविधान में समानता और सौहार्द की जो
भावना है वह तब तक पूरी नहीं होगी जब तक लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ में
दलित वर्ग के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. वह कहते हैं जब
न्यूज़रूम में विविधता होगी तो वो विविधता समाचार माध्यमों के कवरेज में
भी दिखेगी.
VATSAL VERMA (freelancer journalist cum news correspondent/Bureau Chief) Mob- 8542841018
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