इंसान के व्यवहार को जानना जटिल क्यों है ?
फेसबुक पर सुनीता जी ने कहा –
किसी भी जानवर के व्यवहार को समझना बहुत आसान होता है बनिस्बत इंसान के व्यवहार के…जानवर तभी खाते हैं जब उन्हें भूख लगती है…तभी सोते हैं जब उन्हें नींद आती है…वे अपने बच्चों की रक्षा और देखभाल भी करते हैं…परन्तु इंसानी व्यवहार को समझना बहुत कठिन है…यह बहुत जटिल है…हम तब भी खाते हैं जब हमें भूख नहीं होती…तब भी पड़े रहते हैं जब हमें नींद नहीं आती….हम ख़ास परिस्थितियों में अपने बच्चे को भी रिजेक्ट कर देते हैं …हम छोटी छोटी सी बात पर भी आक्रमण करने को तैयार रहते हैं…हम लालची भी होते हैं और सामान बेहिसाब जमा भी करते रहते हैं जबकि हमें उनकी ज़रुरत भी नहीं होती…हम दूसरों को मार डालने पर भी उतारू हो सकते हैं सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए…हम अपने पडोसी से सिर्फ इस बात के लिए नफरत कर सकते हैं कि वह किसी दूसरी जाति, धर्म का है या हमसे भिन्न भाषा बोलता है…क्यों? कुछ लोग एक ही बात पर अलग अलग तरह से क्यों रिएक्ट करते हैं? आखिर क्यों?
इस पर आई टिप्पणियों में से कुछ ये हैं-
फेसबुक पर सुनीता जी ने कहा –
किसी भी जानवर के व्यवहार को समझना बहुत आसान होता है बनिस्बत इंसान के व्यवहार के…जानवर तभी खाते हैं जब उन्हें भूख लगती है…तभी सोते हैं जब उन्हें नींद आती है…वे अपने बच्चों की रक्षा और देखभाल भी करते हैं…परन्तु इंसानी व्यवहार को समझना बहुत कठिन है…यह बहुत जटिल है…हम तब भी खाते हैं जब हमें भूख नहीं होती…तब भी पड़े रहते हैं जब हमें नींद नहीं आती….हम ख़ास परिस्थितियों में अपने बच्चे को भी रिजेक्ट कर देते हैं …हम छोटी छोटी सी बात पर भी आक्रमण करने को तैयार रहते हैं…हम लालची भी होते हैं और सामान बेहिसाब जमा भी करते रहते हैं जबकि हमें उनकी ज़रुरत भी नहीं होती…हम दूसरों को मार डालने पर भी उतारू हो सकते हैं सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए…हम अपने पडोसी से सिर्फ इस बात के लिए नफरत कर सकते हैं कि वह किसी दूसरी जाति, धर्म का है या हमसे भिन्न भाषा बोलता है…क्यों? कुछ लोग एक ही बात पर अलग अलग तरह से क्यों रिएक्ट करते हैं? आखिर क्यों?
इस पर आई टिप्पणियों में से कुछ ये हैं-
Shweta Mishra हमारा हर व्यवहार हमारे ब्रेन में ही डिजाइन होता है और वहीँ से संचालित होता है…ब्रेन के विकास और स्वास्थ्य में ज़रा सा भी विचलन किसी भी व्यक्ति के वैयक्तिक व्यवहार में बदलाव ला सकता है…जैसे- ब्रेन में डोपामिन (एक रासायनिक पदार्थ) की कमी अवसाद(dipression ) की स्थिति पैदा कर सकती है जिस से व्यक्ति अत्यधिक उदास रहता है उसमे निराशावादी प्रवृत्ति आ जाति है,वह मरने की बातें सोच सकता है या उसकी कुछ काम करने की इच्छा नहीं होती आदि आदि…वह ख़ुदकुशी भी कर सकता है…टेम्पोरल लोब में electric activities का असामान्य बहाव से व्यक्ति एक ही जगह घूरे जाता है (staring )…कुछ अप्रत्याशित व्यवहार करता है ….ऐसा अटैक पूरा होने के उपरान्त उसे इस बारे में कुछ याद नहीं होता (इसे मिर्गी भी कहते हैं)… ब्रेन के अगले हिस्से में क्षति से व्यक्ति पागलों जैसे भी व्यवहार कर सकता है….विटामिन B1 की कमी से याददाश्त खराब हो जाती है… एड्रिनल ग्रंथि में एड्रीनलीन की अधिकता व्यक्ति को लड़ने या भागने (लड़ाई से) के लिए तैयार करती है…..वह या तो बहुत उग्र हो जाता है या बहुत गुस्से में रहता है या फिर एकदम कायर और डरपोक बन सकता है….
Seema Singh Chandel जाति…धर्म….के नाम पर बँटे लोगो को क्य़ा कहूँ……इनकी मानसिकता इतनी प्रदूषित होती है कि कोई फ्रेशनर काम नहीं करता…
DrAmitabh Pandey सिर्फ यही सोच हमें जानवरों से अलग करती है.मनुष्य तो स्वार्थी होता ही है वो चाहे कोई भी हो.जानवर नहीं होता .हमारा पेट भर जाता है तो नहीं खाते है .जानवर भी नहीं खाते है .लेकिन बसेरा सभी ढूढ़ते है.हा यह बात सही है की आज हम जानवरों की अपेक्षा ज्यादा हिंसक हो गए है .लेकिन यह मानव का स्वाभाव है क्योकि उसका मन स्थिर नहीं होता है.और जब मन स्थिर नहीं होता तभी हम अपनी प्रगति के लिए जायज और नाजायज काम करते है.
Vibhas Awasthi जानवर और इंसान के व्यवहार को समझने से पहले … हमें उस मूल अंतर को ढूंढ़ना होगा…..जो जानवर और इंसान को अलग-अलग खानों में रखती है…..
वस्तुत: हम भी एक जानवर ही हैं पर अन्य की अपेक्षा हममें बुद्धि ज्यादा है और हम उसी का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग भी बेहिसाब करते हैं जिस तत्व का उपयोग अधिक होगा वह मुख्य होगा और तत्व गौड़ हो जाएँगे ठीक अंगों के उपयोग की तरह। उपयोग के बिनाह पर ही एक हाथ कम काम करता है इसी तरह नितान्त बौद्धिक होते जाने के कारण हम संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं निरन्तर। यही भयावह स्थिति सोचकर शायद निदा फ़ाजली साहब ने लिखा कि-
‘सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला’
Vibhas Awasthi जानवर और इंसान के अंतर पर हमने भी कुछ पढ़ा और मनन-चिंतन किया है…. वो आप लोगों से शेयर कर रहा हूं…..असहमति मुझे और अधिक विज़न देगी..
Vibhas Awasthi प्रकृति द्वारा निर्मित हर जीव में दो चीज कॉमन होती हैं…
– जिजीविषा – अंतिम सांस तक जिंदा रहने की इच्छा और उसके लिए संघर्ष की इच्छा
– भुभक्षा – अपने मन और शरीर को आनंद (मानसिक और शारीरिक) में रखने की इच्छा….
लेकिन इंसान में एक तीसरा तत्व भी होता है….
– जिज्ञासा…. उसकी इस इच्छा की पूर्ति जितने आंशिक सत्यों के जरिये होती जाती है….वो ही उस इंसान के व्यवहार का निर्धारण करता जाता है….
एक जैसी जिज्ञासा होने के बावजूद बच्चों को जो उनका समाधान मिलता है…वो उनके तब तक के अर्जित ज्ञान (जिज्ञासा के विविध उत्तरों) के आधार पर अलग-अलग मानसिकता और भाव जगत का निर्माण करती जाती है….इसलिए इंसान का व्यवहार जानवर की तुलना में ज्यादा जटिल और Unpredictable होता जाता है….
Vinay Mishra who r we? According to science we r superior animal coz we have more developed brain….. who says that human & animals r diff.? Ya other animals can be better than us coz they have better feelings than us.
DrAmitabh Pandey हमने इस ग्रह पर जन्म लिया है। अपनी अनगिनत इच्छाओं को संतुष्ट करने के प्रयास में हम जीते हैं और फिर मर जाते हैं। केवल कई जन्मों के बाद हम उस अवस्था तक पहुँचते हैं जब केवल एक ही इच्छा रह जाती है: अपने स्रोत-अपने जीवन के अर्थ, को प्राप्त करने की इच्छा। एक बार जब यह अंतिम और परम इच्छा प्रकट हो जाती है,बाकी सब कुछ अनावश्यक और अर्थहीन लगता है। व्यक्ति अवसाद-ग्रस्त हो जाता है, वह जीवन में भावात्मक और अध्यात्मिक खालीपन अनुभव करता है, मानो इस संसार में कुछ भी नहीं जो खुशी लेकर आ सके। जीवन निरर्थक और उसमें कुछ वास्तविक अभाव लगता है…..”मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?” “मैं क्यों जीवित हूँ?”। यही प्रश्न हैं जो लोगों को कबला में लाते हैं।
जानवरों के सामने भी कोई नयी चीज आती है तो वो अपनी Body language से जाहिर करते हैं – लेकिन हम उन्हें कौतूहल, विस्मय या आश्चर्य जैसी श्रेणियों में रख सकते हैं…
लेकिन जिज्ञासा—- जानने की इच्छा….एक ऐसी मानसिक प्रवृत्ति है…जो इंसान को जानवरों की श्रेणी से अलग करती है…. अर्जित ज्ञान की श्रेणी ही ये निर्धारित करती है कि अपनी जिज्ञासा चाहे तो इंसान अध्यात्म में लगाये या परपंच में…..
DrAmitabh Pandey आज मानवता का इतना असहाय रुप का होना वैसे ही है जैसे मिठाई को मिठाई का रुप तो दे दिया जाये पर उसकी मिष्टाता को नष्ट कर दिया जाये…!! । मनुष्य का शरीर तो हमें नजर आ रहा है पर मनुष्यता नदारद है..!! मनुष्य में मनुष्यता का होना बेहद ज़रूरी हैं वरना उस में और पशु में कोई फर्क ही न रह जायेगा ।
मानव उसी जिग्यासा को शांत करने की क़वायद में इतना मशग़ूल हो गया है, इतने बौद्धिक प्रपंचों में उलझ गया है कि अन्य आवश्यक संवेदनात्मक वृत्तियाँ उसके लिए गौड़ होती होती लगभग समाप्तप्राय हो गयी हैं अत: उन्हें वह तरज़ीह नहीं दे रहा पर एकदम नकारना सम्भव नहीं क्योंकि वे वृत्तियाँ भी व्यक्तित्व का अनिवार्य पक्ष हैं परिणामत: उन्हें गौड़ और अनावश्यक समझने के कारण उसके वीभत्स रूप को अमल में ले आ रहा है
Chandra Bhushan Mishra Ghafil विभास सर! 2+2=4 के जोड़-घटाव में उलझे, नितान्त भौतिक विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहे आज के बौद्धिकों को शेरो-शा’इरी नहीं सुहाती, अनर्गल प्रलाप लगती है और कहीं से यदि सुनाई दे गयी, जैसा कि होना ही है क्योंकि यह भी एक आवश्यक वृत्ति है, तो वश चलने पर या तो वे शा’इर का क़त्ल कर देंगे अथवा बेवश होने पर अपना ही सर फोड़ लेंगे। इसीलिए विकास चँहुमुखी हो इसका विशेष प्रयास अपेक्षित है मानव-समाज को। चँहुमुखी से तात्पर्य भौतिकता, आध्यात्मिकता, बौद्धिकता और भावनात्मकता अथवा संवेदनात्मकता से है।
(मेरे शेरो-शा’इरी के उद्धरण को मात्र उदाहरण स्वरूप स्वीकार किया जाय तात्पर्य भावात्मक, संवेदनात्मक वृत्तियों के प्रतिफल से है)
Virendra Pratap Singh itani charcha ke bad sayad yahi niskarsh nikalata ha ki baudhik vikas me antar hi karan hai,to kya baudhik vikas hona achchha nahi hai?
Chandra Bhushan Mishra Ghafil वीपी सर प्रणाम! आपका सवाल वाज़िब है। सर! बौद्धक विकास बाधक नहीं है यह बौद्धिकता के ही दम पर केवल और केवल मानव ही जान सकता है कि विकास प्रत्येक दिशा में संतुलित रूप से हो। और केवल मानव के लिए ही विकल्प उपलब्ध है कि वह अपना सर्वांगीण विकास करता है या केवल एक पक्ष का। वह एक हाथ कुशल बनाना चाहता है या दोनों तदनुरूप उसे प्रयत्न करना होगा। वर्ना एक हाथ रफ़्ता रफ़्ता नकारा हो जाएगा। यही विकल्प चुनने की स्वतन्त्रता ही शायद मानव-जीवन को जटिल और विसंगतिपूर्ण बनाती है वर्ना जानवरों के पास विभास सर का शब्द ‘आश्चर्य’ से ज्यादा और कोई विकल्प नहीं है अत: वहाँ कोई जटिलता और विसंगति नहीं है।
Shailendra Pratap Singh मैं
Chandra Bhushan Mishra Ghafil की बात से इत्तेफाक़ करता हूँ.
Shweta Mishra, आपने जैसा पोस्ट में लिखा है कि जानवरों में एकत्रित करने की प्रवृत्ति नहीं होती, मेरे विचार से पूर्ण सत्य नहीं है. जानवरों और कीटों में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है, चींटियाँ, मधुमक्खी के अतिरिक्त अनेक मांसाहारी जानवर आदि भी भोजन संचय करते हैं. ऊँट तो अपने शरीर में ही जल का संचय करता है. कहने का तात्पर्य यह कि ईश्वर ने सबको उसके survival के लिए पर्याप्त बुद्धि दे रखी है और सब उसके उपयोग से जीवित रहते हैं. मनुष्य को उसने कुछ अधिक बख्शी है इसलिये उसे इसका तुलनात्मक रूप से अधिक उपयोग करना पड़ता है. और शायद इसीलिये मनुष्य को “जीवधारियों में सर्वश्रेष्ठ” या “अशरफ-उल-मख़लूक़ात” कहा गया है.
आदिम काल में मनुष्य भी भविष्य की न सोच कर पशुओं की भाँति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता था पर कालान्तर में विकास के क्रम में और बुद्धि को अधिक विकसित कर सकने के कारण मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं को कम प्रयास में पूरा करना सीखा और सीख रहा है. मनुष्य की इस बुद्धि के कारण पशुओं को भी लाभ होता है, यथा – पशुओं को स्वास्थ्यवर्द्धक आहार तथा चिकित्सा आदि.
पर यह भी सच है कि व्यक्तियों में स्वार्थपरता तो निश्चित रूप से उनके स्वयं के कथित पशुवत सोच के कारण ही होती हैं.
Chandra Bhushan Mishra Ghafil एक बात और वीपी सर! व्यक्ति कौन सा अथवा कौन-कौन सा अथवा सभी में कौन सा विकल्प चुनेगा यह बहुत कुछ उसकी प्रकृति, परिस्थिति, अनुवांशिकता, संस्कार, शिक्षा और सामाजिक तथा पारिवारिक परिवेश आदि आदि पर निर्भर करता है
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