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कुमार राधारमण said…
आचरण पर विचारों का जितना प्रभाव पड़ता है,उससे कहीं ज्यादा प्रभाव विचारों पर आचरण का पड़ता है क्योंकि आचरण की शुरूआत बहुत छोटी उम्र से होती है जबकि विचार बहुत बाद में बनने शुरू होते हैं।
जब तक ईश्वर के बारे में मान्यताएं बनाने का काम जारी रहेगा,न ईश्वर की प्राप्ति होगी,न जीवन से चोरी,झूठ और भ्रष्टाचार जाएगा। पवित्र लोक का दिव्य जीवन उन्हीं को मिलना संभव है,जो स्वयं को सही ठहराने की ज़िद से भी दूर रहें। सही और ग़लत बाह्य जगत की बातें हैं। ईश्वर भीतर है।
DR. ANWER JAMAL said…
सही रास्ते के चुनाव में ही इंसान की भलाई है
@ कुमार राधारमण जी ! जब आदमी के अंदर भले बुरे में अंतर करने की समझ पैदा हो जाए तब उसे यह ज़रूर देख लेना चाहिए कि उसका कौन सा विचार ग़लत है ?
हरेक किसान अपनी फसल की रक्षा के लिए खरपतवार को खेत से छांटकर निकालना ज़रूरी समझता है। मन की भूमि में भी ऐसे बहुत से विचार होते हैं जिन्हें निकालना ज़रूरी होता है।
सही-ग़लत की समझ पैदा होने से पहले आदमी जो भी आचरण करता है, उसका विश्लेषण भी इंसान को समझ पैदा होने के बाद अवश्य करना चाहिए।
ईश्वर तो अपनी जगह पर ही है लेकिन उसका अहसास हमें अपने अंदर ही हो सकता है और होता भी है। इसीलिए कह देते हैं कि ईश्वर हमारे अंदर है।
अपने आप को हर हाल में सही ठहराने की ज़िद ठीक नहीं होती लेकिन सही बात को भी सही न कहना भी ग़लत है।
मन क्या है और ‘अ-मन‘ की दशा कैसे प्राप्त करें ?
इस पर हमेशा से दार्शनिक बहसें होती आई हैं। इस तरह की बहसें हमेशा आम जनता की बुद्धि से ऊपर रही हैं।
जब तक मन है तब तक मान्यता बनाना इंसान की मजबूरी है। इसलिए लोगों को यह ज़रूर देख लेना चाहिए कि उनकी मान्यता सही है या ग़लत ?
इंसान इस बाह्य जगत में ही रहता है इसीलिए उसे सही-ग़लत का फ़ैसला करना पड़ता है और करना भी चाहिए कि सही रास्ते के चुनाव में ही इंसान की भलाई है।
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