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यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से।
अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।।
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।।
उर्दू के अजीम शायर इकबाल ने ये शब्द यूँ ही नहीं कहे थे। सदियों हमारी सभ्यता को अपने बर्बर और क्रूर विचारों से रोंदने के बाद भी विदेशी आक्रमणकारी हमारे देश की मर्यादाओं और संस्कारों को नष्ट नहीं कर सके थे और अन्तत: १५ अगस्त १९४७ को जब पराधीनता के बादल छंटने के बाद हमने स्वाधीनता का सूर्य देखा तो हर खास-ओ-आम को ये आशा थी कि आने वाला समय देश के लिए अद्वितीय होगा।
और एक-एक करके ७१ वर्ष गुजर गये, लेकिन ऐसा हुआ क्या? शायद नहीं……..!
निसंदेह इन वर्षों में देश में औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति हुयी है और जीवन के हर क्षेत्र में हमें विकास देखने के लिए मिल रहा है। यही नहीं वर्तमान में तो हम विश्व की महाशक्तियों के बीच अपना स्थान बनाने के लिए भी प्रयत्नशील हैं। लेकिन आज भी यह एक कटु सत्य है कि जिस स्वर्णिम आजादी का सपना देखा गया था, उसके आस पास तो हम पहुँच ही नहीं सके।
हर परिवर्तन के अच्छे एवं बुरे दोनों ही प्रकार के परिणाम होते हैं। वर्तमान में हमारी विडम्बना यही है कि हमारे कर्णधारों ने सकारात्मक परिणामों का तो बहुत प्रचार किया, लेकिन उनके नकारात्मक पहलुओं के प्रति सहज ही अपनी नजरें हटा ली। बीते ७१ वर्षों में देश की सामाजिक मर्यादायें चकनाचूर होती जा रही है। आज देश के माता-पिता आदर व श्रद्धा के नहीं, बल्कि बेरुखी और दुर्व्यवहार के पात्र बन गए हैं। आज गुरु-शिष्य की परम्परा मात्र धन-आधारित परम्परा बन गयी है, जिसका विकृत रूप भी अक्सर देखने में आ जाता है। किसान को अन्नदाता और भूमि को माँ का दर्जा देना वाला देश आज संबंधों का व्यापार करना सीख गया है। पतन का सबसे अधिक भयावह रूप नारी जाति के साथ होने वाले अत्याचारों के रूप में सामने आ रहा है। बीते दौर की ‘देवी’ आज मात्र उपभोग की वस्तु बना दी गई है।
वस्तुत: ‘आजादी’ के सही अर्थ को हम भारतवासी समझ ही नहीं सके। आज हम आजाद भारत, में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रवासी होने का दम्भ तो भरते हैं लेकिन ये विडम्बना नहीं है तो क्या है कि बीते सत्तर-बहत्तर वर्षों में हमने एक सामान्य सा लोकतांत्रिक आचरण नहीं सीखा। हम अपने अधिकारों के लिए तो सड़कों पर आकर ‘विनाश’ करने से भी पीछे नहीं हटते लेकिन हमारे सविधान में जो कर्तव्य दर्शाए गए हैं, हम उन्हें मानने की बजाय, उनका उपहास उड़ाते हैं। आजाद भारत में जन्म लेने वाली हमारी आज की पीढ़ी शायद अपने संस्कारों को तिलांजली देकर आधुनिक पहनावे और तौर तरीके को ही आजादी समझती है या फिर अपने शिक्षित विचारों के अहम में अपनी परम्पराओं और सामजिक मर्यादायों का उलंघन करना अपनी स्वतंत्रता। और इस कथित आजादी की पराकाष्ठा तो तब सामने आती है, जब इसी जमीन की मिट्टी से पैदा होने वाले युवा अपने वैचारिक मतभेदों के चलते अपनी ही मातृभूमि को नकार देते हैं।
आज आजादी के बहत्तरवें वर्ष पर जरूरत है हमें जापान सरीखें कुछ देशों की ओर देखने की, जिन्होंने सम्पूर्ण विनाश के बाद भी न केवल अपनी परम्पराओं और अस्तित्व को बरकरार रखा बल्कि विश्व के अग्रणी देशों में अपना स्थान भी सुनिश्चीत करवाया। और यदि हम ऐसा कुछ करने में असफल होते हैं तो वह दिन दूर नहीं जब हम विश्व की बड़ी शक्ति बनने में भले ही सफल हो जाएँ लेकिन वैचारिक और सांस्कृतिक आचरणों से हम अपनी ही जन्मभूमि पर गुलाम बनकर ज़ी रहे होंगें।
विरेंदर ‘वीर’ मेहता
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