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भारत और ईरान ने आगे बढ़ते हुए आपसी सहयोग के जिस मसौदे पर अभी हाल में ही हस्ताक्षर किये वो है चाबहार बंदरगाह को विकसित करने हेतु भारत को स्वीकृति .
जब इस मसौदे पे हस्ताक्षर हुए तो न केवल ईरान बल्कि अफगानिस्तान की उपस्थिति यह बताती है की भारत किस तरह पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया के देशो के बीच आपसी व्यापारिक विकास के मुद्दों पे रिश्तों को आगे बढ़ाने में सक्षम है . और यही सही तरीका भी है . जब बात पडोसी देशो की हो और अगर हर देश शांति के मार्ग का अनुसरण करते हुए विकास के मुद्दों पे बात करे तो चीजें अपने आप आसान होने लगती हैं . लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब आपने शांति के मार्ग खुले रखे हो किन्तु सामने से आपको कूटनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़े जो कुछ इस प्रकार का माहौल सृजित करती हैं जहाँ एक पक्ष को अपना लाभ वहीँ समझ आता है जहाँ दुसरे पक्ष को नुक्सान हो रहा हो . लेकिन फिर भी कूटनीति यही कहती है की शांति के मार्ग अपनी तरफ से बंद नहीं करने चाहिए और उन विकल्पों की तलाश अवश्य करते रहना चाहिए जो मन मुटाव को टालते हुए आपसी सहयोग की भावना को विकसित कर सकें . और ऐसा ही प्रयास है भारत ईरान सबंधो को नयी शुरुआत . तो असल में भारत सरकार का यह कदम एक पंथ दो काज वाली कहावत को चरितार्थ करता है क्योंकि भारत न केवल ईरान के साथ व्यापारिक सहयोग साझा करने में सक्षम बना है बल्कि इसे पाकिस्तान और चीन की आपसी सांठ गाँठ को भारत की ओर से एक उचित कूटनीतिक जवाब की तरह भी देखा जा सकता है.
इस समझौते के साथ ही भारत के लिए चहुँ ओर जमीन से घिरे अफगानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता मिल गया है क्योंकि अब जबकि चाबहार बंदरगाह अरब सागर के रास्ते भारत की पहुंच में आ गया है , वही भारत को अब जमीन के रास्ते पाकिस्तान होते हुए अफगानिस्तान जाने के लिए पाकिस्तान का मुंह नहीं देखना होगा. पाकिस्तान सदैव ही जमीन के रास्ते भारत और अफगान को जुड़ने नहीं देने के किसी भी प्रयास में कोई कमी नहीं छोड़ने वाला. इस समझौते के साथ यह समस्या भी जाती रही और अफगानिस्तान तक हमारी पहुंच ईरान के रास्ते बन गयी है . अफगानिस्तान की स्थिति एशिया में महत्त्वपूर्ण है . हार्ट ऑफ़ एशिया के नाम से जाना जाने वाला यह देश कई मामलो में भारत के महत्त्वपूर्ण है जिसकी चर्चा पृथक रूप में की जा सकती है .
अफगानिस्तान के साथ ही साथ अब भारत किर्गिस्तान और अन्य मध्य पूर्वी एशियाई देशो तक पहुंच जाएगा और साथ ही यूरोप का रास्ता भी खुल गया है .
अब अगर कूटनीति पे नजर डालें तो भारत अपनी सूझ बूझ का परिचय चीन और पकिस्तान की जोड़ी को दे रहा है . सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है की चाबहार बंदरगाह ग्वादर से केवल सत्तर किलोमीटर की दूरी पे है . ग्वादर पाकिस्तान और चीन के बीच वैसे ही है जैसे भारत और ईरान के बीच चाबहार.
चीन की स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल की नीति पे गौर करें तो ग्वादर उस स्ट्रिंग का एक मोती है . स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल वो नीति है जिसके तहत चीन ने भारत को समुद्र के रास्ते चारो ओर से घेर रखा है और यह हमेशा ही भारत को आशंकित करने वाली नीति रही है . अब इस समझौते के बाद भारत कूटनीतिक दृष्टि से भी एक अच्छी स्थिति में है और उसने पश्चिमी एशिया का मार्ग खोलते हुए अपनी स्थिति एशिया महाद्वीप में सुदृढ़ करने की पहल की है . अब कुछ बचा है तो वो है योजनाओं का बिना देरी क्रियान्वयन . वैसे भारत ने समझौते के साथ ही क्रियान्वयन की दिशा में तेजी भी दिखाई है . जैसे नालको ने एल्युमीनियम स्मेल्टर को ईरान में स्थापित करने के लिए ज्ञापन समझौते पे हस्ताक्षर कर लिए है .
सबसे सही बात इस समझौते की रही :- उचित समय का चुनाव . भारत अच्छी तरह जानता था की जब तक अहमदीनेजाद ईरान पे काबिज है तब तक इस मामले को लंबित रखना ही ठीक है . यह सर्वविदित तथ्य है की अहमदीनेजाद के होते हुए अमेरिका से ईरान के रिश्तों में कभी मिठास नहीं आई लेकिन हसन रूहानी के आते ही ईरान की नीतियों ने न केवल अमेरिका से उसके रिश्ते ठीक किये बल्कि भारत को भी एक सही मौका मिला जिससे कई वर्षो से लंबित पड़े चाबहार मामले को एक सुखद मोड़ दिया जा सके .
चाबहार समझौता इस घटना को देखते हुए और भी महत्त्वपूर्ण है की चीन के इच्छा जाहिर करने पे भी ईरान ने चीन को चाबहार की पहुंच से दूर रखा . जो भारत के लिए ईरान की तरफ से रिश्तों में सुदृढ़ता की बुनियाद की ओर इंगित करता है .
कुल मिलाकर इस समझौते को मोदी सरकार के कार्यकाल का मील का एक पत्थर कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी !
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