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हर विद्यार्थी को जीवन में एक अहम पड़ाव से होकर गुजरना पड़ता है . और वो पड़ाव है अपने करियर का चुनाव . ऐसा क्या क्षेत्र वो चुने जिसमें उसकी रूचि हो और साथ ही आर्थिक रूप से वो क्षेत्र उसे स्वावलम्बी भी बनाए .
यह यक्ष प्रश्न मूलतः विद्यार्थियों को इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के साथ ही आ खड़ा होता है . कुछ लोगो का विजन बिलकुल स्पष्ट होता है . वो अपने क्षेत्र के चुनाव के प्रति पहले से ही दृढ होते हैं . लेकिन इसमें सबसे ज्यादा भूमिका उनके अभिभावकों की ही होती है .आम तौर पे यह देखा गया है की माता पिता का मार्गदर्शन इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान देता है . लेकिन समाज की विडम्बना यह है की अभिभावक की तरफ से मिलने वाला ये योगदान कई बार सहयोगात्मक होता है और कई बार आदेशात्मक .
सहयोगात्मक योगदान तब संभव हो पाता है जब विद्यार्थी की सोच, समझ और उसकी रूचि को अभिभावक द्वारा उसी दिशा में मोड़ा जाए जिस दिशा में वो उसे ले जाना चाहते है या फिर वो अपने बच्चे के रूचि वाले क्षेत्र से इत्तेफाक रखते है . और यह कार्य बहुत पहले से शुरू हो जाता है . आम तौर पे यह योगदान उसी माहौल में संभव है जब अभिभावक यह समझ सकते है की ज्ञान से बड़ी पूँजी कोई नहीं और ज्ञान से हर चीज प्राप्त होगी . वो बच्चे के दिमाग में और उससे भी पहले अपने दिमाग में आर्थिक सक्षमता से पूर्व ज्ञान प्राप्ति को महत्त्व देते है . आम तौर पे यह अभिभावक आर्थिक रूप से सक्षम होता है और पारिवारिक आर्थिक दशाओं को लेकर विद्यार्थी पे पैसे कमाने का दबाव प्रथम नहीं होता .
आदेशात्मक योगदान वो होता है जब अभिभावक विद्यार्थी के लिए करियर का चुनाव स्वयं करने लगते है और इस चुनाव का आधार आर्थिक स्वावलम्बन लाने की भावना से ज्यादा प्रेरित होता है . ऐसा नहीं की यह उपरोक्त वर्णित अभिभावक के साथ नहीं होता . होता है लेकिन ऐसे लोगो का प्रतिशत कम ही होगा . भारत में उदारीकरण की नीति के फलस्वरूप बहुत सा व्यापार जो संगणक और बी पी ओ के क्षेत्र से आया उसके बाद बहुत से विद्यार्थियों और अभिभावकों का ध्यान भी उससे जुड़े विषयों के चुनाव की तरफ जाने लगा . स्कूल और कलेजो में जूनियर अपने सीनियर्स से यह प्रश्न पूछते नजर आने लगे की किस कोर्स के चुनाव के स्कोप ज्यादा है . मसलन एम बी ए या एम सी ए ?? इन क्षेत्रो में विषयों के चुनाव के बाद कई लोगो के जीवन को उदाहरण की भाँती इस्तेमाल कर विद्यार्थियों ने अपने विषय का चुनाव करना प्रारम्भ किया .मसलन विदेश यात्रा , ऊंची सैलरी आदि . यहाँ पर मै यह स्पष्ट कर दूँ की यह उदाहरण केवल एक दृष्टांत की तरह लिया गया गया है , न की क्षेत्र विशेष की आलोचना हेतु . मुख्य मुद्दा है की किस आधार पर विद्यार्थी अपने करियर का चुनाव कर रहे है . आधार है जल्द से जल्द आर्थिक सम्पन्नता को हासिल करना . न की अपनी स्वयं की रूचि . इस बात का विश्लेषण विद्यार्थी नहीं कर रहा की किसी की सलाह के आधार पर अपने करियर का चुनाव कर वो अपनी रचनात्मकता और सृजनशीलता को कही न कही उसी बिंदु पे समाप्त कर रहा है जहाँ पे वो अपने करियर (या यो कहे की अपने जीवन ) की डोर किसी और के हाथ थमा रहा है . कंप्यूटर या बी पी ओ के क्षेत्र में अपने करियर का चुनाव कोई गलत बात नहीं लेकिन सोचने वाली बात यह है की यह क्षेत्र क्या विद्यार्थी अपने रूचि के अनुसार चुन रहा है या फिर किसी और वजह से जहाँ पे जीवन का केंद्र बिंदु अपनी रूचि के क्षेत्र में ज्ञान अर्जित कर देश और समाज के विकास में अधिकतम योगदान देने का न होके केवल पैसे कमाना है . पैसे से बड़ी कोई चीज आज के समाज में नहीं समझी जाती . लेकिन विद्यार्थी जीवन में कही न कही करियर को लेकर जागरूकता लाने की आवश्यकता है . आर्थिक आधार महत्वपूर्ण है लेकिन जिस तरीके से अपने सीनियर्स से पूछकर अपने करियर का चुनाव किया जा रहा है वो उचित नहीं है . क्योंकि सीनियर भी मुख्यतः उसी विचारधारा का हुआ तो वो काउन्सलिंग करके सलाह देने के बजाय आदेशात्मक अभिभावक की भूमिका में आ जाता है . वो शायद ही यह प्रश्न करता होगा की आपकी रूचि किस विषय में है . यह प्रश्न वही सीनियर करेगा जिसने स्वयं अपने क्षेत्र का चुनाव अपनी रूचि के आधार पे किया होगा .
निष्कर्ष यह है की अपने करियर को चुनाव करने के प्रश्न यदि मन में उठें भी तो विद्यार्थी को किसी भी समस्या का समाधान करने हेतु एक काउंसलर की आवश्यकता ज्यादा है न की उन लोगो की जो संसार को केवल अपने अनुभव के चस्मे से देखते है और उसी को सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत करते है . समस्या गम्भीर तब हो जाती है जब विद्यार्थी अपने करियर के चुनाव को लेके कुंठाग्रस्त हो जाते है .मेरे विचार से विद्यार्थियों के लिए शिक्षा विभाग की तरफ से ऐसे काउंसलर रखे जाने चाहिए जिन्हे भिन्न भिन्न क्षेत्रो और उन क्षेत्रो में विकास की संभावनाओं का अच्छा मूल्याङ्कन कर निष्पक्ष राय देने की क्षमता हो . लेकिन चुनाव फिर भी विद्यार्थी के हाथ में ही हो . विद्यार्थी अपनी बात खुल के अपने काउंसलर से कह सके और अपना प्राथमिक उद्देश्य स्पष्ट कर सके (आर्थिक या रूचि ). विद्यार्थी के ध्यान को उसके मुख्य लक्ष्य की और मोड़ सके . यदि प्राथमिक आधार आर्थिक भी है तब भी कई लोगो को जीवन में अपने मूल स्वप्नों को पूरा करने का अवसर मिल ही जाता है क्योंकी जो अपने सपनो को पालना जानते है वो पुरुषार्थ करना और धीरज रखना जानते है . इसलिए काउंसलर की भूमिका किशोरावस्था के अंतिम पड़ाव में ही विद्यार्थी को स्पष्ट हो जानी चाहिए . इससे कुछ मदद अवश्य मिलेगी .
इस विषय पे एक दृष्टान्त महत्त्वपूर्ण है जो एक पौराणिक कथा से लिया गया है जहाँ गुरु द्रोण ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए एक चिड़िया पेड़ पे रख दी और बारी बारी से अपने शिष्यों से पुछा की तुम्हे क्या दिख रहा है . केवल एक शिष्य अर्जुन ने यह उत्तर दिया की उसे चिड़िया की आँख दिख रही है . यह उत्तर केवल उसी विद्यार्थी का हो सकता था जो धनुर्विद्या के ज्ञान को ही अपने जीवन में आत्मसात कर समाज में एक क्षत्रिय की भूमिका के साथ न्याय कर सके . द्रोण ने उसे नहीं बताया की एक कुशल धनुर्धर को सबसे कठिन लक्ष्य पे ही अभ्यास करना चाहिए . वस्तुतः यह परीक्षा भी एक काउन्सलिंग ही थी . जहाँ गुरु ने अपने शिष्य की क्षमता को जाना और शिष्य को आशीर्वाद देके यह संकेत दे दिया की मार्ग यही है जिसपे तू चल पड़ा है . सो, तुम्हे क्या दिख रहा है , इस प्रश्न ने अपनी प्रासंगिकता आज भी नहीं खोई है .
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