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मालदीव में राजनैतिक स्थिति का भारतीय विदेश नीति से सरोकार

Vikash Blogs
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मालदीव भारत के दक्षिण में स्थित एक प्रवाल द्वीप देश है। कहने को तो ये एक छोटा सा द्वीप समूह है, लेकिन हिन्द महासागर में चीन और भारत जैसी शक्तियों के कूटनीतिक समीकरणों के चर और अचर बिंदुओं को संतुलित करने  में अहम भूमिका निभाता है।  इस छोटे से द्वीपीय देश में पिछले कुछ वर्षों से चला आ रहा सत्ता संघर्ष हाल ही में एक निर्णायक स्थिति तक पंहुचा जब मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी से मोहम्मद नशीद ने चुनावो में भारी विजय हासिल की। इस विजय के साथ ही भारत की स्थिति हिन्द महासागर में स्पष्ट हो गयी और ये स्थिति मालदीव के चुनाव परिणामो पे  निर्भर थी. इस चुनाव के साथ जहाँ मालदीव को अबदुल्ला यामीन के सत्तात्मक शासन से मुक्ति मिली वहीँ भारत इस बात को लेकर निश्चिंत भी हो गया होगा की चीन के प्रति मालदीव की नीति उसके सामरिक हितों को चीन के परिप्रेक्ष्य में सम्बन्धो के एक स्तर के आगे चिंता के किसी बड़े बिंदु तक प्रभावित नहीं करेगी। नयी सरकार भारत की समर्थक है। चीन के उभार के कारण बदलती परिस्थितियों में छोटे देशों के पास एक नया विकल्प खुल गया और वो अब

उस विकल्प में भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धात्मक माहौल को और उग्र बनाने में सहायक सिद्ध हुए। इसीलिए एशिया में भारत की बड़े भाई की भूमिका वाला फार्मूला (गुजराल सिद्धांत, जहाँ भारत को छोटे पडोसी  साथ पारस्परिक संबंधों में देने की भूमिका में रहना है बजाय लेने की भूमिका में )अब और भी प्रासंगिक हो चला है किन्तु केवल कूटनीतिक दृष्टिकोण से क्योंकि हर छोटे देश के साथ (या देशो के समूह जैसे आसिआन के साथ ) एक तरफ़ा लाभ का सम्बन्ध रखा जाए ऐसी कोई विवशता छोटे देशो के साथ नहीं है। फिर भी बड़े लाभ के लिए छोटे लाभ की अनदेखी की जा सकती है। नेपाल , मालदीव और बांग्लादेश जैसे छोटे देशों के लिए चीन के विकल्प को खुला रखना उसके हितों के अनुकूल हो सकता है अगर यह बात पूरी तरह से असत्य हो की चीन इन देशों को कर्ज के जाल में फसा कर उन्हें अपना उपनिवेश बनाने की राह पर जा रहा है। किन्तु ये सत्य है नहीं।  श्रीलंका जैसे देश इस बात को भांपने में देर जरूर कर गए लेकिन बाकी एशियाई देशों को चीन का मंतव्य समझ में आने लगा है। भारत द्वारा पूर्वी एशियाई देशो को चीन की इस कूटनीति के खतरे के बारे में सजग करना एक आवश्यकता बन गया है।

एक महत्त्वपूर्ण बिंदु ये है की चीन की विस्तारवादी नीति के जवाब में भारत का दृष्टिकोण अधिकतर प्रतिक्रियावादी ही रहा। आजादी के बाद के कुछ दशकों में इसकी गुंजाईश थी क्योंकि चीन भी उस समय तक कोई आर्थिक महाशक्ति नहीं बन पाया था और उसके साम्राज्यवादी इरादे इतने स्पष्ट नहीं थे, किन्तु आज जब वो एक एशियाई ही नहीं वरन एक वैश्विक महाशक्ति की तरह उभर रहा है और उसके इरादे भी स्पष्ट है तो भारत को चीन का कुछ करने का इंतज़ार करने के बजाय अपनी विदेश नीति में इस प्रकार बदलाव करना चाहिए की भारत अपने हितों को वैश्विक पटल पे चीन के  परिप्रेक्ष्य में सदैव संतुलित रख सके और उसपर सदैव कार्य होना चाहिए। और यह तभी संभव होगा जब विश्व को ये सन्देश जाए की भारत चीन का पीछा नहीं कर रहा , बल्कि अपने हितों को सुरक्षित कर रहा है और वो भी किसी से प्रतिस्पर्धा किये बिना। इस विषय में वर्तमान सरकार ने ही कुछ हद तक प्रतिक्रियावादी नीति के बजाय विदेश नीति में चीन को एक अलग ही तरीके से संतुलित करने का प्रयास किया।

इस कड़ी में मालदीव का चुनाव परिणाम भारत के लिए एक अच्छा सन्देश देता है। जहाँ एक ओर मोहम्मद नशीद को कैद से मुक्ति मिली वही चीन की और झुकाव रखने वाले अब्दुल्ला यामीन की सत्त्ता से विदाई हुयी। भारत को ऐसे सभी देशों पर जहाँ उनके समर्थन की या विरोधी विचारधारा वाली सरकार बनती है , एक अध्ययन विशेष रूप से करना चाहिए और विशेषज्ञों की एक टीम द्वारा भी ये काम किया जा सकता है जिसमे इन देशों में भारत के राजदूत भी शामिल रह सकते है। कारण ये है की जहाँ भी वोट पड़ेंगे वहां मुख्य विचारधारा जनता की विचारधारा ही होगी और वहां की जनता भारत को वर्तमान समय में किस नजर से देख रही है, वो अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।  पाकिस्तान जैसे देश की बात अलग है क्योंकि भारत का भय दिखाकर अपनी जनता को बरगलाना ही उसकी विदेश नीति का आधार है और लगभग हर पार्टी वहां पे यही करती है तो वहां की जनता भारत भय को एक राजनैतिक कुटिलता की बजाय वास्तविकता समझती है। किन्तु जो हमारे पुराने एशियाई मित्र राष्ट्र है , उनकी स्थिति भिन्न है और चीन को संतुलित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।

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