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क्या हमें अपना विकास मॉडल बदलना चाहिए ?

Bhavbhoomi
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आर्थिक विकास एक ऐसा विषय है जिसके बारे नें बहुत कुछ लिखने -पढ़ने के बाद भी ऐसा लगता है कि चर्चा अभी अधूरी है । दरअसल विकास की नीतियों कों लेकर हमेशा मत -मतान्तर की स्थिति रहती है । एक लेख में सब कुछ कहना संभव नहीं है , किन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण बातों की ओर संकेत अवश्य किया सकता हैं । 1947 ई० के बाद विकास की जो प्रक्रिया अपनाई गयी , उस पर अब गहन मंथन की आवश्यकता है ।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जिन नेताओं ने अग्रणी भूमिका निभाई , विकास को लेकर उनके विचार बिल्कुल स्पष्ट थे । महात्मा गाँधी ने स्वप्न देखा था कि आजादी के बाद गाँवों का तेज गति से विकास होगा और गाँव आत्म -निर्भर बनेंगे । परन्तु हुआ ठीक विपरीत । स्वतंत्रता के बाद शहरी क्षेत्र ( विशेषकर महानगर ) तेजी से आगे बढ़े , वहीं गाँवों में विकास की गति काफी धीमी रही । गाँव आत्म -निर्भर होने के बजाय शहर पर और अधिक आश्रित हो गये । आज भी गाँवों में नागरिक सुविधाओं का बड़ा अभाव है । इसी का परिणाम है – गाँव से शहर की ओर तथा शहर से महानगर की ओर लोगों का बड़ी संख्या में पलायन । इससे आज कई समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ।
विकास का उद्देश्य होना चाहिए -” सर्वे भवन्तु सुखिनः ” । परन्तु हुआ क्या ? एक ओर देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ी , राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई , कई चमकते -दमकते शहर तैयार हो गये और दूसरी ओर करोड़ों लोग गरीबी और भूख से त्रस्त हैं । एक ओर भारत विश्व की दस महत्त्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है तो दूसरी ओर मानव विकास सूचकांक तथा ग्लोबल हंगर इंडेक्स में इसका स्थान काफी नीचे है । देश में अन्न का विशाल भंडार है , फिर भी करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार हैं । एक अजीब स्थिति कीमतों के मामले में भी देखने कों मिलती है । आवश्यक वस्तुओं की कीमतें विलासिता की वस्तुओं की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ी हैं । पिछले दस वर्षों में टेलीविजन की कीमत घटी है और खाद्य वस्तुओं की बढ़ी है । यह अर्थव्यवस्था का एक दोष है कि कीमतों के उतार -चढ़ाव से गरीब वर्ग के लोग अधिक प्रभावित होते हैं ।
नीति -निर्माण की एक बड़ी कमजोरी यह भी रही कि इसका अधिक ध्यान आर्थिक स्तर ऊपर उठाने पर रहा ,नैतिक स्तर उठाने की बात गौण हो गयी । चारों ओर ऐसा माहौल तैयार हुआ कि लोगों में अधिक -से अधिक अमीर बनने की होड़ तो शुरू हो गयी , किन्तु ‘ सादा जीवन , उच्च विचार ‘ का आदर्श पीछे छूट गया । व्यक्ति का मूल्यांकन आलीशान भवन , महँगी गाड़ी , खर्च करने की क्षमता इत्यादि के आधार पर होने लगा और मानवता , परोपकार की भावना , दया , करुणा , सहिष्णुता जैसे गुण नेपथ्य में चले गये । प्रकृति के निकट रहकर सादा जीवन जीना पिछड़ेपन का पर्याय बन गया और आधुनिक तकनीक तथा उन्नत मशीनों की भीड़ खड़ा कर कृत्रिम , आडंबरपूर्ण जीवन जीना तरक्की की निशानी ।
अब समय है थोड़ा बदलने का । नीति -निर्माता विकास तथा आयोजन की नीतियाँ बनाते समय केवल अर्थशास्त्री न बनें , तनिक दार्शनिक भी बनें । विकास तथा आयोजन की नीतियाँ इस तरह बनाई जाएँ कि जब उपलब्धियाँ गिनाने का वक्त आए तो केवल जी.डी.पी , वृद्धि दर , विदेशी निवेश , करोड़पतियों की संख्या इत्यादि के मायावी आँकड़े प्रस्तुत न करना पड़े , बल्कि यह बताने का मौका मिले कि गरीबी कितनी कम हुई , पोषण का स्तर कितना सुधरा , क्षेत्रीय एवं आय की असमानता कितनी कम हुई , आर्थिक स्तर उन्नत बनाने के साथ -साथ नैतिक स्तर उठाने के लिए क्या -क्या किया गया ?

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