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अनुशासनहीनोंकीनिरंकुशअभिव्यक्ति
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं कक्षा दस का छात्र था तो अंग्रेजी की पुस्तक में एक पाठ हुआ करता था ‘रूल्स आॅफ दि रोड’ यह पाठ आज भी इस किताब का हिस्सा है। इस पाठ में एक ऐसे सज्जन व्यक्ति की कहानी भी है जो एक भीड़ भरी सड़क अपनी छड़ी को गोल-गोल घुमाते हुए जा रहे थे। उसी सड़क पर चल रहे एक व्यक्ति ने जब इस प्रकार छड़ी घुमाने पर आपत्ति जताई तो पहले वाले सज्जन ने अपने अधिकारों को बताते हुए कहा कि वह अपनी छड़ी के साथ किसी भी तरह घूमने के लिए स्वतंत्र हैं। इस पर दूसरे व्यक्ति ने जवाब दिया कि निश्चित रूप से आप अपनी छड़ी के साथ कुछ भी करने के लिए आजाद हैं लेकिन आपकी स्वतंत्रता बहां खत्म हो जाती है जहां से मेरी नाक शुरू होती है। कदाचित जेएनयू के कई युवा छात्र-छात्राएं कक्षा दस में सिखाए गए इस सबक को पूरी तरह से भूल गए हैं। विश्वविद्यालय में अफजल गुरू की बरसी के नाम पर आयोजित कार्यक्रम में जिस तरह से देश विरोधी नारे लगे इससे अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा पर एक बार फिर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है।
बीती नौ फरबरी को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी विचाारधार से प्रभावित छात्रों के एक समूह ने संसद पर हमले के मामले में फांसी पर चढ़ाए गए आतंकवादी अफजल गुरू की बरसी पर सांस्कृतिक संध्या आयोजिन किया। विद्यार्थी परिषद के नेताओं की आपत्ति के बाद इस कार्यक्रम की आनुमति रद्द कर दी गई। इसके बावजूद सांस्कृति संध्या का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के दौरान पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी तथा अफजल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं सरीखे देश विरोधी नारे लगाए गए। मीडिया में यह मामला उछलने के बाद कार्यक्रम के आयोजकों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो गया और छात्र यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार भी कर लिया गया। इस मामले में पुलिस और दूसरी एजेंसियां पड़ताल कर रही हैं। अब यह न्यायालय में तय होगा कि इन छात्रों पर देशद्रोह के आरोप सही हैं या गलत। जेएनयू में इस कार्यक्रम के दौरान नारेबाजी का विडियो सामने आने के बाद लगभग सभी राजनैतिक दलों ने इस तरह के प्रदर्शन की निंदा की। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ के विरोध का कोई मौका न छोड़ने की फिराक में बैठे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी छात्रों के समर्थन में जेएनयू पहंुच गए उन्होंने केंद्र सरकार पर छात्रों की आवाज दबाने के आरोप लगाए। देश की सत्ता पर सबसे ज्यादा समय तक काबिज रहने वाली कांगे्रस पार्टी के नेता राहुल गांधी को जवाब देना होगा कि आतंकी अफजल गुरू को शहीद मानने वाले और देश विरोधी नारेबाजी करने के आरोपियों पर कार्रवाई करके पुलिस और सरकार ने किस अभिव्यक्ति की आजादी का हनन किया है। इससे पहले वर्ष 2010 में दंतेबाड़ा में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 73 जवान शहीद हो गए थे। तब इसी जेएनयू में छात्रों के एक समूह ने विजय दिवस का आयोजन किया था। मुजफ्फर नगर दंगों पर आधारित वृत्तचित्र ‘मुजफ्फर नगर अभी बाकी है के प्रदर्शन और बीफ पार्टी के आयोजन के पीछे इन लोगों का उद्देश्य साफ तौर पर बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं को आहत करने का था। जेएनयू में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन करने वाले छात्र सीधे तौर पर वामपंथी दलों से जुड़े हुए थे इसलिए उनके खिलाफ कार्रवाई पर वामपंथियों का उनके समर्थन में खड़े होना स्वभाविक ही है। वामपंथी नेता विडियों से छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए छात्रों पर कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। लेकिन ये छात्र नेता न्यूज चैनलों पर बहस के दौरान इस कार्यक्रम का समर्थन करते हुए साफ दिख रहे हैं। अब जबकि उन पर देशद्रोह के गंभीर मामलों में मुकदमा दर्ज हो चुका है तो उनके स्वर बदले हुए हैं। नहीं तो आज भारतीय संविधान की बात बात में दुहाई देने वाले युवा चंद रोज पहले तक अफजल गुरू की फांसी की सजा को ज्यूडिशियल किलिंग करार दे चुके हैं। कैसे यकीन कर लिया जाए कि कल अगर इन युवाओं पर न्यायालय में देशद्रोह के आरोप साबित हो गए तो ये उसको न्यायालय का अपने खिलाफ षड़यंत्र नही बताएंगे।
कंेद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के गठन के बाद से वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एक समूह लगातार शोर मचा रहा है कि देश में असहिष्णुता बड़ रही है। उत्तर प्रदेश के दादरी में एक मुस्लिम अखलाक के घर में गोमांस पकाने की सूचना से गुस्साए लोगों की एक भीड़ ने हमला करके उसकी हत्या कर दी। यह घटना निंदनीय है। लेकिन इस घटना को आधार बनाकर बुद्धिजीवियों के एक समूह ने इस प्रकार का माहौल बनाने की कोशिश की कि जैसे पूरे देश में मुसलमानों के खिलाफ बहुसंख्यक हिन्दू समाज हमलावर हो गया है। उन्होंने साहित्य अकादमी और दूसरे अवार्ड लौटाकर अपना विरोध दर्ज कराया लेकिन कितने 125 करोड़ जनसंख्या वाले इस देश में कितनी जगह इस आधार पर बहुसंख्यकों के समूह ने मुसलमानों या दूसरे समुदाय के लोगों पर हमले किए कि वे अल्पसंख्यक हैं। किसी अराजक भीड़ को बहुसंख्यक समाज की असहिष्णुता के रूप् में परिभाषित करके बुद्धिजीवियों ने इस देश के तकरीबन सौ करोड़ शांतिप्रिय बहुसंख्यक समाज के लोगों की भावनाएं आहत नहीं कीं, जिनके दम पर इस देश का लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप विकसित हो रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आए दिन हो हल्ला मचाने वाले इन बुद्धिजीवियों को बताना होगा कि मकबूल फिदा हुसैन के बनाए हुए देवी देवताओं के नग्न चित्रों का पुरजोर समर्थन करने के बाद तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ पर प्रतिबंध का उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया। इस उपन्यास में तो बंगाली युवक सुरंजन दत्त अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है तो मुसलमान युवक बहुसंख्यक समाज का। अगर ये उपंयास बंगलादेश के अलावा किसी दूसरे देश में लिखा जाता तो इन पात्रों के नाम बहां के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदाय के आधार पर तय किए जाते। लेकिन इसके बावजूद तसलीमा नसरीन को वामपंथी सरकार ने पश्चिम बंगाल में नहीं ठहरने दिया। मकबूल फिदा हुसैन के बनाए देवी देवताओं के नग्न चित्रों को अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा मानने वाले वामपंथी कभी मोहम्मद साहब का साधारण सा चित्र बनाने का विरोध करने वालों के खिलाफ मुंह नहीं खोलते, एनसीईआरटी की पुस्तकों से मोहम्मद साहब का रेखाचित्र हटवाने तक उसका विरोध करने वालों में उन्हें असहिष्णुता नजर नहीं आती।
किसी व्यक्ति को क्या खाना है यह तय करना उसका निजी अधिकार है लेकिन क्या इस अधिकार का प्रयोग वह दूसरे की भावनाओं को आहत करने के लिए कर सकता है, इस पर भी चर्चा शुरू करने का यह सही वक्त है। जेएनयू, हैदराबाद और देश के दूसरे कई विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार बीफ पार्टी का आयोजन किया गया उसका साफ उद्देश्य बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को भड़काना था। आज भी जिस गली में एक दो परिवार भी शाकाहारी होते हैं उनके बच्चों को शुरू से ही यह सिखाया जाता है कि घर के बाहर यह मत बताना कि घर में चिकन बना है। हालांकि बड़े बच्चों को यह झूठ बोलना सिखाते हैं लेकिन इसका मकसद सिर्फ दूसरों की भावनाएं आहत होने से बचाना है। राष्ट्रध्वज के क्षतिग्रस्त हो जाने या फट जाने पर उसको जलाने के बाद बची हुई राख को गाढ़ने का प्रावधान है लेकिन इसके साथ यह शर्त भी है कि ध्वज को बिलकुल अकेले में जलाया जाएगा ताकि उसे कोई अन्य न देख सके। इसके अलावा भी तमाम चीजें कानून की परिभाषा में अपराध नहीं होती हैं लेकिन सामाजिक परिस्थितियों और मर्यादा के अनुरूप उनका पालन किया जाता है। आज भी भारतीय समाज में बड़ों की उपस्थिति में पति पत्नि एक साथ बैठने तक से कतराते हैं। यह उनके किसी अधिकार का हनन नहीं अपितु सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल एक व्यवहार मात्र है। अभिव्यक्ति की आजादी की एक सीमा होनी चाहिए जिससे की दूसरे की भावनाएं आहत न हों लेकिन यह एक ऐसी बारीक रेखा है जिसे किसी कानून से नहीं बांधा जा सकता इसके लिए लोगों को स्वानुशासन का ही प्रयोग करना होगा। इसके अलावा अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की संवैधानिक संस्थाओं का मखौल उड़ाने की कोशिश करने वालों से सरकार को सख्ती से निपटना होगा।
विकास सक्सेना
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