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अभिव्यक्ति की आजादी बनाम देशद्रोह

चैतन्य
चैतन्य
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जेएनयू में देश विरोधी नारों के बाद गिरफ्तार छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के समर्थन के नाम पर हो रहे प्रदर्शनों में लग रहे कश्मीर की आजादी के नारों से साफ जाहिर है कि जेएनयू की घटना कुछ छात्रों की भूल नहीं बल्कि देश की एकता और अखण्डता के खिलाफ एक सुनियोजित षड़यत्र है। जेएनयू में लगे नारों का तो किसी भी राजनैतिक दल ने समर्थन नहीं किया लेकिन जिस तरह से सरकार पर छात्रों की आवाज को दबाने का आरोप लगाते हुए ये लोग सरकार पर हमलावर हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि वे देश विरोधी नारों को अभिव्यक्ति की आजादी का एक अंग मानते हैं।

अफजल गुरू की बरसी के नाम पर आयोजित कार्यक्रम में भारत की बर्बादी और कश्मीर की आजादी के नारों से साफ जाहिर है कि इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करने वाले देश विरोधी विचारधारा से पोषित हैं। संसद पर हमले के मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश पर अफजल गुरू को फांसी की सजा दी गई। हो सकता है कि कुछ लोगों को फांसी की सजा से सहमति न हो लेकिन जब ऐलान किया जाता है कि कितने अफजल मारोगे, घर घर से अफजल निकलेगा। तब इस तरह के नारे लगाने वालो को जवाब देना ही होगा कि अफजल ने संसद पर हमला करने वालों की मदद करके कौन सा क्रांतिकारी काम किया था जिसके लिए हर घर से अफजल पैदा करने की ख्वाहिश है। अगर इन्हें देश के संविधान में विश्वास है तो उन्हें यह भी स्पष्ट करना होगा कि क्या वे फांसी की सजा को ज्यूडिशियल किलिंग’ बताकर लोगों का न्यायिक व्यवस्था से विश्वास डिगाने का कुचक्र नहीं रच रहे।

संतोष है कि जेएनयू की घटना के बाद हरकत में आयी कंेद्र सरकार ने दिल्ली पुलिस को सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए। कुछ समय पहले मोदी सरकार को निशाना बनाने की फिराक में बैठे एक वर्ग ने देश में बढ़ती असहिष्णुता का बहाना बहाना बनाकर अवार्ड बापसी का अभियान चलाया। यह अभियान सुनियोजित तरीके से बिहार चुनाव तक चला। संयोग से बिहार में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की हार भी हो गई। यह एक अलग विषय है कि इसमें अवार्ड बापसी का ज्यादा योगदान था या यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोट बैंक की लामबंदी का। इस चुनाव के दौरान आरएसएस के सर संघचालक मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान का भाजपा को कितना नुकसान हुआ यह भी विश्लेषण का बिन्दु है। लेकिन बिहार में करारी हार से भाजपा और उसके नेता दबाव में जरूर आ गए है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित बेमुला को दलित बताकर भाजपा का दलित विरोधी सिद्ध करने का जोरशोर से अभी तक प्रयास किया जा रहा है। जबकि रोहित के पिता के बयान से साफ जाहिर है कि वह दलित वर्ग से नहीं था। उसने फर्जी प्रमाणपत्र का इस्तेमाल किया था। खुद को दलित साबित करने मात्र के लिए वह अम्बेडकर छात्र परिषद का सदस्य बना था। नही ंतो जिस प्रकार के बीफ पार्टी और याकूब मेनन की फांसी का विरोध किया वह बाबा साहब से ज्यादा वामपंथी विचारधारा से मेल खाते हैं। लेकिन दलित विरोधी छवि बनने के डर से घबराई केंद्र सरकार इस मुद्दे पर सुरक्षात्मक मुद्रा में आ गई उसने भी रोहित के मामले में कोई पड़ताल नहीं की कि आखिर उसने फर्जी प्रमाण पत्र का प्रयोग करके आपराधिक कार्य कैसे किया। दलित वोटों के छिटकने के डर से घबराई केंद्र सरकार के रोहित बेमुला मामले में आक्रामक न होने से देश और सरकार विरोधी मानसिकता वाले लोगों के हांैसले बुलंद हो गए। नतीजा जेएनयू में देश विरोधी नारों के रूप में हम सबके सामने है।

छात्र विरोधी छवि बनने का भी सरकार को भय सता रहा है। इसी का नतीजा है कि कार्रवाई करते करते इतनी देर हो गई कि सांस्कृतिक संध्या का मुख्य आयोजक उमर खालिद फरार होने में कामयाब हो गया। इसके बाद गिरफ्तार किए गए जेएनयू छात्र यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ पुख्ता सुबूत होने का दिल्ली पुलिस दावा कर रही है तो आखिर कौन से कारण है कि देशद्रोह के एक आरोपी की जमानत का अदालत में पुलिस विरोध नहीं करेगी। और अगर कन्हैया को बिना किसी सुबूत के गिरफ्तार किया गया है तो ऐसा करने वाले अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन किसी भी मुद्दे पर भाजपा और केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश में जुटी कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार फिर इस मामले में अति सक्रियता दिखाते हुए जेएनयू में छात्रों के समर्थन में एक सभा की। राहुल गांधी देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाले राजनैतिक दल के प्रमुख नेता हैं। उन्हें भी स्पष्ट करना होगा कि जब विडियो फुटेज से साफ जाहिर है कि जेएनयू में आयोजित कार्यक्रम के दौरान देश विरोधी नारे लगे तो ऐसे समय में छात्रों के बीच जाकर वे किस अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन कर रहे हैं। उनके तमाम नेता एक ओर तो देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ कार्रवाई का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ सरकार पर छात्रों की आवाज दबाने का आरोप लगाकर उसे कटघरे में भी खड़ा कर रहे हैं। वामपंथी दलों की अपनी मजबूरियां हैं भारत में उनकी राजनीति ही संघ और भाजपा के विरोध पर आधारित है। वे हर उस घटना और कार्रवाई के समर्थन में खड़े हो सकते हैं जिससे कि भाजपा और संघ को घेरा जा सके। लेकिन कांग्रेस और वाम दलों को समझना होगा कि दुश्मन का हर दुश्मन दोस्त नहीं होता। पृथ्वीराज चैहान के खिलाफ मोहम्मद गौरी का सबसे बड़ा सहार बने जयचंद को चंद महीने बाद ही गौरी के हाथों मौत का स्वाद चखना पड़ा था। अगर भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला इंशा अल्ला। कहने वाले अपने मंसूबों में कामयाब हो गए तो किस अखण्ड भारत में वो राजनीति कर पाएंगे। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी को भी देशद्रोह की इजाजत नहीं दी जा सकती है। हालांकि कुछ लोगों ने अदालत में पेशी के दौरान कन्हैया कुमार और उसके साथियों से धक्का मुक्की की ऐसा करना भी किसी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन पटियाला हाउस कोर्ट में घटित इस घटना को जेएनयू में लगे देश विरोधी नारों के समान संविधान विरोधी बताना भी न्यायोचित नहीं है। देशभक्ति के नाम पर भी अराजकता की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती लेकिन यह भी देखना होगा कि यह अराजकता देश विरोधी नारे लगाने वालों के समर्थन में कुछ राजनेताओं और संगठनों के सक्रिय होने के बाद विकसित हुई। इसलिए इस प्रतिक्रियावादी अराजकता को देशविरोधी मानसिकता से ग्रस्त जेएनयू में नारेबाजी करने वालो की अराजकता के समतुल्य नहीं ठहराया जा सकता। देश में संवैधानिक संस्थाओं के खिलाफ अविश्वास का माहौल तैयार करके देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को भंग करने का कुचक्र रचा जा रहा है जिसके खिलाफ लोगों को जागरूक होने की जरूरत है।

विकास सक्सेना

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