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आज हम विज्ञान और तकनिक के युग में जी रहे
है.वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपने शिखर पर है. बच्चे से
लेकर बुढे तक कोई भी इस समय विज्ञान से अछुता
नही है. वैज्ञानिक रुप से प्रगति का अंदाजा इसी
बात से लगाया जा सकता है की आज सूरज,चाद जैसे
आकाशिय पिंड भी हमारे पहुंच से दुर नही है. लेकिन
विज्ञान की इतनी प्रगति के बाद भी एक क्षेत्र है
जहां वह नही पहुंच सकता. वह है हमारे अपने भीतर
की दुनिया, अपने आप को जानने का मार्ग.
विज्ञान और तकनिक की बदौलत हमने अपने बाहर
स्थित दुनिया को तो जान लिया पर हम अपने
भीतर नही पहुंच पाये.ब्रह्मांड को जानने के प्रयास
मे हम अपने आप को जानना भुल गये. हम वैज्ञानिक
रुप से तो मजबुत हुए पर हमारा अध्यात्मीक पक्ष
पीछे छुट गया. परिणाम यह हुआ की जिस विज्ञान
के पीछे हम हद से अधिक भागे आज वही विज्ञान
हमारे विनाश का कारण भी बनता दिख रहा है.
हमने वह संतुलन खो दिया जो प्रकृति ने हमें दिया
था. हम विज्ञान और अध्यात्म को अलग-अलग
समझने लगे. अध्यात्म को हमने साधु-संतो तक सीमित
कर दिया और विज्ञान को सांसारिक लोगो तक.
जबकी सच्चाई ठीक इसके उलट है.अध्यात्म और
विज्ञान एक दूसरे के परस्पर शत्रु नही बल्कि मित्र हैं.
इन दोनो की उत्पत्ति सृजन के मुलमंत्र के साथ हुई
है.प्रकृति ने यह विषय बाहरी जगत और अंतरआत्मा
को जोड़ने के उद्देश्य से उपहार स्वरुप मनुष्य को दिये
है. यदि विज्ञान बाहरी दुनिया की खोज है तो
अध्यात्म अंतरआत्मा के सच को जानने का जरिया
है.विज्ञान और अध्यात्म हमारे जीवन के दो पेहलु हैं.
विज्ञान जहां सभ्यता,शिक्षा और जीवन को सरल
बनने की तकनिक देता है, तो अध्यात्म विद्या,
संवेदना, जीने की कला, और सद्गुणों की खेती करना
सिखाता है.ये दोनो एक दूसरे के पुरक हैं, ठीक उसी
प्रकार जैसे शरीर और आत्मा.इन दोनो के मिलन से
ही समाज का उत्थान संभव है.
-विवेकानंद विमल
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