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आये दिन लगातार धरती डोल रही है। प्रत्येक कुछ दिनों के अंतराल पर विश्व के किसी न किसी भू-भाग पर भुकंप के झटके महसुस किये जा रहे है। ऐसा कोई साल नही गुजरता, जब दुनिया के कुछ हिस्से , भीषण भुकंप से पैदा होने वाले विनाश को न झेलते हों। खासकर, पिछले आठ-दस वर्षों में जिस प्रकार भुकंप की घटनाओ में वृद्धि हुई है, वह निश्चित तौर पर पूरे विश्व और प्राणी जगत के लिये चिंता का विषय है। पिछले दस साल के आंकड़ो पर गौर फरमाया जाय तो साफ प्रतित होता है कि हम किस विभिषिका की ओर आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढा रहे हैं। पिछले दस साल यानी वर्ष 2006 से 2015 तक के आंकडे देखें ,तो इस बीच कुल 392 बार पृथ्वी को भुकंप का दंष झेलना पड़ा। 2016 का ग्राफ भी इस मामले में पीछे नही दिखता है। इस वर्ष अब तक 15 बार धरती डोल चुकी है। लेकिन चिंता की बात यह है की इन पंद्रह भुकंपो में से सात भुकंप सिर्फ इसी अप्रेल के माह में आये हैं। 2016 को छोड़ कर अगर पिछले 10 वर्षों का औसत निकला जाए तो प्रतिवर्ष लगभग 39 भुकंप आये हैं। सोचने वाली बात यह भी है कि अब तक के कुल 407(2016 के भुकंप को भी जोड़ने पर) भुकंपों में 238 ऐसे हैं जिनकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.5 से 6.9 के बीच मापी गई। जबकि 151 ऐसे हैं जिनकी तीव्रता 7.0 से 7.9 के बीच रही। 17 ऐसे हैं जो 8.0 से 8.9 के बीच रहे और एक बार भुकंप ने सारी हदों को पार करते हुए रिक्टर पैमाने पर 9.0 से भी अधिक उंचाई हासिल की.
वैज्ञानिकों की माने तो ये चारों स्केल तबाही लाने के लिये पूर्णतः योग्य हैं। विस्तार से समझा जाए तो वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर भुकंप 0 से 1.9 रिक्टर के बीच हो तो उसका पता केवल सिस्मोग्राफ को ही चलता है। 2 से 2.9 रिक्टर के भुकंप में हमें हल्के कंपंन महसूस होते हैं। 3 से 3.9 रिक्टर में ऐसा लगता है मानो कोई ट्रक हमारे नजदीक से गुजर गया हो। 4 से 4.9 में खिड़कीयां टूट सकती हैं, दीवारों पर टंगी फ्रेम गिर सकती हैं। 5 से 5.9 के भुकंप में फर्नीचर हिल सकता है। 6 से 6.9 रिक्टर में इमारतों की नींव दरक सकती है, उपरी मंजिल को नुकसान हो सकता है। 7 से 7.9 रिक्टर के भुकंप से इमारते गिर सकतीं हैं। 8 से 8.9 रिक्टर में इमारतों साहित बडे पुल गिर सकते हैं। 9 और उससे अधिक रिक्टर का भुकंप हो तो पुरी तबाही होना निश्चित है। इस स्थिति में समुद्र नजदीक हो तो वहां सुनामी आने की पूर्ण संभावना है।
पिछले वर्ष 25 अप्रेल को नेपाल में आया भुकंप, हाल के दिनों का सबसे विनाशकारी सिद्ध हुआ। इसमें हजारो लोग मारे गये और न जाने कितने ही लोग जख्मी और बेघर हुए तथा कितनों को दाने-दाने के लिए मोहताज होना पड़ा। यह भुकंप हमें यह बताने के लिये काफी था की आनेवाले दिनों में अगर और भी ऐसे भुकंप आये तो वह निश्चित तौर पर ही हमारे लिये बहुत प्रलयंकारी होगा। मुख्यतः अगर भारतीय ऊपमहाद्वीप और हिमालय क्षेत्र की बात की जाए, तो दुनिया भर के भुगर्भशास्त्री अनेक अवसरों पर हिमालय क्षेत्र में उंची तीव्रता वाले भुकंप की भविष्यवाणी करते रहे हैं। भुकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालल का आशय सिर्फ नेपाल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर ही नही है बल्कि इसमें दिल्ली और बिहार जैसे विशाल आबादी वाले उत्तर-पूर्व के अनेंक राज्य भी शामिल हैं। भूगर्भशास्त्रियों के मुताबिक हिमालय आज भी चलायमान है और यहां हमेसा हलचल होती रहती है। एक प्लेट दूसरी प्लेट को नीचे की तरफ धकेलती रहती है। एक प्लेट उठेगी तो दूसरी धसेगी ही। यह एक स्वभाविक प्रक्रिया है। इससे हिमालय में भुस्खलन होते रहते हैं और भुकंप का खतरा भी ज्यादा होता है। भुगर्भविज्ञानी यह भी कहते हैं कि भारतीय ऊपमहाद्वीप शेष एशिया की तरफ प्रति वर्ष दो सेंटीमीटर की रफ्तार से बढ़ रहा है। मध्य हिमालय क्षेत्र का भीतरी भू-भाग कुल 13 सेंटीमीटर से ज्यादा का दबाब नहीं झेल सकता। इसलिये इस दबाब के फलस्वरुप चट्टानों के अंदर उत्पन्न हुई घनीभूत उर्जा धरती के भीतर से फूट कर निकलने को तैयार बैठी है, जिसके चलते हिमालय क्षेत्र में लगभग नौ रिक्टर स्केल की तीव्रता का भुकंप कभी भी आ सकता है। पिछले वर्ष नेपाल में आये भुकंप ने कुछ हद तक वैज्ञानिकों की इस भविष्यवाणी को सही साबित कर दिया है। लेकिन प्रश्न यह उठता है की क्या हम उस दिन के लिये तैयार है जब ऐसा प्रलय हमें दुबारा देखने को मिलेगा ? क्या हमारे आपदा प्रबंधन की तकनिक इतनी मजबुत और विकसित है कि इन भुकंपों से कम से कम वक्त में निपटा जा सके और इससे उबरा जा सके ताकि पहले की तरह सब कुछ जल्द से जल्द व्यवस्थित हो.
नेपाल हमारी तुलना में कहीं अधिक छोटा और पिछड़ा देश है। कुछ दिनों पूर्व ही राजशाही से मुक्त होने के कारण वहां लोकतंत्र भी नाम मात्र का है। तो विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन वहां किस स्तर का होगा यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर ऐसी स्थिति में नेपाल के पास भुकंप से निपटने के लिये पर्याप्त संसाधन नही थे तो यह बात समझ में आती है। परंतु अगर कभी भारत में ऐसी स्थिति पैदा होती है और हम उससे निपटने में असक्षम होते है तो निश्चित ही यह निराशाजनक होगा। चुँकी भारत में तो हम वैज्ञानिक दृष्टि से अपने-आप को बहुत आगे मानते हैं। मंगल और चांद जैसे आकाशिय पिंड व ग्रहों पर हम अंतरिक्ष यान भेजने की तैयारी कर रहे हैं और अपनी धरती पर बुलेट ट्रेन दौडाने के सपने को साकार करने से बस कुछ कदम की दूरी पर ही खड़े हैं। लेकिन इतने विकसित होने के बाद भी अगर हम भुकंप जैसे आपदाओं से बचाव करने में नाकाम रहते हैं तो यह विकास भी उस स्थिति में बौना और निर्रथक ही साबित होगा। पहले भी हम 1991 में उत्तरकाशी और फिर 2001 में गुजरात में भुकंप से उपजी आपदा झेल चुके हैं। उस वक्त आपदा प्रबंधन के क्या हालात थे ये हम सभी को पता है। इन सबके बाद भी शायद आज तक न तो हम आपदा प्रबंधन सीख सके हैं, न ही आपदाओं के परिणाम को बढ़ाने वाली विनाशकारी वस्तुओं से परहेज करना सीख पाये हैं। देश में भुकंप से बचाव की तैयारीयों का आलम यह है की गुजरात और उत्तरकाशी के अनुभवों के बाद भी भुकंप से पूर्णतय सुरक्षित इमारतों के निर्माण आज भी नदारद हैं। देश में आज भी ऐसे इमारत धडल्ले से निर्माण किये जा रहे हैं जिनमें भुकंप के झटकों को सहने की क्षमता न के बराबर है।
सवाल बहुत सारे हैं, जिनका जवाब मिलना नामुमकिन सा लगता है। परंतु हमें अब नींद से जाग जाना चाहिये, इससे पहले की बहुत देर हो जाये। कुछ कड़े कदम उठाने होंगे। इन भुकंपों के आगमन का कारण सिर्फ प्राकृतिक बदलाव ही नही है, बहुत हद तक ऐसी परिस्थिति के लिये हम खुद भी जिम्मेदार हैं। हमने अपने स्वार्थ की पूर्ति के प्रकृति से जो खिलवाड़ किया है, आज उसी का फल हमारे सामने इन आपदाओ के रुप में आ रहा है। इस लिये अब हमें चेतने की जरूरत है। हमें वैज्ञानिकों के साथ मिल कर जतन करने होंगे। अगर सरकार और आम जनता चाहे तो दोनों के सहयोग से व्यवस्थायें अच्छी की जा सकती हैं, इन आपदाओं का सामना बेहतर तरीके से किया जा सकता है। हम जापान जैसे छोटे देश से सीख ले सकते हैं जो हर रोज कोई न कोई आपदा झेलने के बाद भी दृढ़ता से खड़ा है। बस जरुरत है की हम इसके प्रति जागरुक हों तथा औरों को जागरूक करें.
•विवेकानंद विमल
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