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आरएसएस जिसे भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारत से बाहर हिंदू स्वयंसेवक संघ के रूप में जाना जाता है, उसने अपने पोशाक में बदलाव करने का निर्णय लिया है। चुंकि यह संगठन भारत के एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी और वर्तमान में केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से जुड़ा है, इसलिए इस संगठन की गतिविधियों पर सबकी नजर रहती है। लगभग पिछले 90 वर्षों से संघ की पहचान रही ‘खाकी निकर’ अब अलविदा कहने जा रही है। इतिहास में झांक कर देखा जाए तो वक्त के साथ संघ की वेश-भूषा में आमूलचूल बदलाव होते रहे हैं। 1925 से लेकर अबतक संघ अपने गणवेश में कई बड़े बदलाव कर चुका है। सबसे पहला छोटा सा बदलाव 1930 में किया गया, जब खाकी टोपी के स्थान पर काली टोपी को इस्तेमाल में लाया जाने लगा। इसके बाद 1939 में सबसे बड़ा बदलाव हुआ। इस वर्ष पहली बार गणवेश में सफेद रंग की पुरी बांह की कमीज को शामिल किया गया। जबकी इससे पहले गणवेश पुरी तरह खाकी का होता था। तीसरा बड़ा बदलाव 1973 में हुआ जब पदवेश बदले गए। इससे पहले शाखाओं में मिलिट्री जूते का इस्तेमाल किया जाता था। इसके स्थान पर चमड़ी या रेक्जीन के सामान्य काले रंग के जूते शामिल किए गए। इसके बाद सबसे बडा परिवर्तन 2010 में आया जब चमड़े के बेल्ट की जगह कैनवास बेल्ट ने ले ली। तब भले कहा गया था कि सब जगह चमड़े की उपलब्धता नही होने के कारण ऐसा फैसला लिया गया है, लेकिन बदलाव के पीछे जैन मुनि तरुण सागर जी महराज की सलाह का अहम योगदान था। उन्होंने संघ नेतृत्व को चमड़े के इस्तेमाल और अहिंसा के संदेश के बीच विरोधाभास बताते हुए इसे हटाने की सलाह दी थी। और अब अंतिम बदलाव के रूप में खाकी निकर की जगह भूरे रंग की फुल पैंट या ट्राउजर को स्थान दिया जा रहा है। इसके साथ मौजे का रंग भी बदल दिया गया है।
संघ वक्त के साथ-साथ अपने विचारों में बदलाव करने की कोशिश करता रहा है। यह बदलाव भी इसी श्रेणी में एक कड़ी माना जा सकता है। माना जा रहा है कि संघ ने यह बदलाव युवाओं की मांग की वजह से किया है। कहा जा रहा है कि इस ड्रेस कोड को डिजाइन करते वक्त इस बात का पुरा ध्यान रखा गया है कि गणवेश ऐसा हो जिसे पहन कर स्वयंसेवक संघ और शाखा के सारे कार्यक्रमों और गतिविधियों में आसानी से हिस्सा ले सकें और जो व्यायाम, मार्शल आर्ट्स या फिर जो ड्रील करने के दौरान भी आराम देह रहे। साथ ही साथ यह आधुनिक और ट्रेंडी भी होगा। कहा भी जाता है कि वक्त के साथ जो अपने-आप को नहीं ढालता, उसका अस्तित्व मिटना लगभग तय होता है। इसलिए शायद अपने को भारतीय संस्कृति और स्वदेशी के वाहक कहने वाले आरएसएस ने कभी धोती, कुर्ता व पगड़ी सरिखे भारतीय परिधानों को अपनी पोशाक में शामिल नहीं किया। भारतीय एवं हिंदू समाज में बैंड की परंपरा नहीं थी लेकिन अनुशासन के लिए संघ ने परेड में विदेशी वाद्य यंत्रों को भी शामिल किया। अब निकर की जगह फुल पैंट को शामिल करना वक्त के साथ अपने को बनाए रखने और युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने का यह एक प्रयास हो सकता है। दरअसल, संघ वर्ष 2004 के बाद से ही नई पीड़ी के साथ कदम ताल करने का प्रयास कर रहा है। नए लोगों को कमान सौंपी जा रही है। इसी का परिणाम है आरएसएस अब कुछ कड़े कदम भी उठा रहा है जिसकी पहले उम्मीद नही की जा सकती थी। महिलाओं के लिये मंदिर के दरवाजे खोलने का समर्थन करना उन्हीं में से एक है। वो अब पुरुषों के साथ महिलाओं के समाज में समान भागीदारी और दोनों की सामानता की जरुरत को समझ रहा है। ऐसी सोच और बदलावों के कारण ही शायद आज युवाओं का रुझान भी संघ की ओर बढा है। यह विचार उन रुढ़ीवादी और तकियानुशी सोच के बिल्कुल विपरीत है जिसने इस संगठन को कटटरपंथी संगठन के रुप में स्थापित कर दिया था।
बहरहाल, अब सबकी नजरें आगमी विजयादशमी के पर्व पर टिकीं हैं, जब स्वयंसेवक नई पोशाक के साथ कदमताल करते नजर आयेंगे। गौरतलाब है कि दशहरा संघ के प्रमुख छह उत्सवों में से एक है। संभवत यही कारण है कि संघ की नई गणवेश के प्रदर्शन के लिये विजयादशमी के पर्व को चुना गया।
उधर, जहां एक तरफ संघ के समर्थक इस बदलाव को लेकर उत्साहित है। वही दूसरी तरफ ड्रेस में बदलाव की खबर ने विरोधियों को मुंह खोलने का मौका दे दिया है। आलोचक कह रहे हैं कि संघ ने नब्बे साल बाद अपना चोला बदल लिया है। तो वही आरएसएस और भाजपा के धूर विरोधी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने अपने ही मजाकिया अंदाज में चुटकी लेते हुए कहा है कि बीजेपी के सत्ता में आने से आरएसएस अपटूडेट हो गया है और वो भाजपा को सत्ता से बेदखल कर के दोबारा उसे हाफ पेंट में पहुंचा देंगे। अब देखना दिलचस्प होगा की आने वाले वक्त में इस नई ड्रेस का विरोधियों और समर्थकों पर क्या असर पड़ता है।
•विमर्या
मो-8235616320
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