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युवा और आत्महत्या

विमर्यांजलि
विमर्यांजलि
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कहा जाता है दूसरो के प्राण लेने वाला बुरा होता है। लेकिन एक सत्य यह भी है की जीवन की परिस्थितियों से हार कर अपने प्राण लेना भी सही नही है। हम दूसरो को मारते हैं तो वह खुद को बचाने की कोशिश भी करता है। अपने रक्षण के लिये वह जतन कर सकता है। हम किसी को युं ही नही मार सकते उसके लिये योजनाएं तैयार करनी पड़ती है। संघर्ष करना पड़ता है। परंतु खुद को मारने में ऐसी कोई परेशानी नही है। कोई अड़चन नही है। हम जैसा चाहें वैसा जुल्म अपने उपर कर सकते है। हमें कोई रोक नही सकता। शायद यही कारण है की जब इंसान सारी दुनिया से हार जाता है। तब वह खुद पर ही विजय प्राप्त कर लेना चाहता है। जो दूसरो को हरा नही सकता वह खुद को ही हरा देना चाहता है। शायद ये बातें किसी को भी गलत लगें पर सत्य है। अपने जीवन और परिस्थितियों से हारे हुए लोग ही आत्महत्या करते हैं। जब जीवन की सारी उम्मीदें धुमिल हो जाती है, तब मौत में ही इंसान को उस अस्थायी समस्या का स्थायी समाधान दिखता है।
आज की वैश्विक स्थिति भी इसी ओर इशारा करती है। जैसे-जैसे हम प्रगति और कामयाबी की सीढ़ीयाँ चढ़ कर आधुनिक होते जा रहे है वैसे-वैसे ही हमारे अंदर खालीपन और अकेलेपन की एक गहरी खाई खुदती जा रही है। कंधो पर उम्मीदों और आकांक्षाओ का बोझ लिये युवा पीढ़ी कामयाबी के सपने देखती हुई इस मशीनी दुनिया में भागती चली जा रही है। जाना कहां है और रुकना कहां है शायद सटिक पता नही, पर एक दौड़ अनवरत चल रही है। तेज विकास के इसी दौड़ ने व्यक्तिगत होड़ को बढाया है, जिसका शिकार सबसे अधिक आज का नौजवान है। अपने देश में हर साल लगभग एक लाख से ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं। नेशनल क्राइम रिकांर्ड ब्यूरो के नये आंकड़ो के मुताबिक 2014 में 1,31,666 लोगों ने आत्महत्या की। इसमें 18 से 30 साल आयुवर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा(44,870) थी। अगर इनमें 14 से 18 साल की उम्र में आत्महत्या करने वाले किशोरो की संख्या(9,230) को जोड़ दें तो नजर आयेगा की 2014 में आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में युवक-युवतीयों की तदाद करीब 40 फिसदी रही। इस चिंता जनक रुझान की पुष्टि एक नई शोध रिपोर्ट से भी हुई है। प्रतिष्ठित लैंसेट जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुतबिक 2013 में भारत में आत्महत्या करने वालों में 60 हजार से भी अधिक लोग महज 10 से 24 साल के थे। रिपोर्ट के अनुसार भारत में आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह युवाओ में गहराते अवसाद को माना गया है। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना और यह समझना बहुत कठिन है कि एक नौजवान जिसके सामने पुरा जीवन पड़ा है, वह सब कुछ भूल कर मौत का रास्ता क्यों चुन लेता है। आखिर यह फ़ैसला लेते वक्त उसका दिमाग किन परिस्थितियों से गुजर रहा होगा या कैसी गहन पीडा में पहुंच कर उसने अपने खात्मे का निर्णय लिया होगा। शायद हम आम जन उस इंसान की मानसिकता को समझने लायक न हों, लेकिन हमें ये समझना चाहिये की कोई भी इंसान मरना नही चाहता, परिस्थितियां उसे मरने पर मजबुर करती हैं। वह केवल उस पीड़ा को मारना और उससे छुटकारा पाना चाहता है जो उसे एक आम जीवन नही जीने दे रही।
अक्सर आत्महत्या करने वाला इंसान अकेला होता है। उसके चारों ओर भीड़ तो होती है पर उस भीड़ में कोई उसे ऐसा नही मिलता जो उसे और उसकी पीड़ा को समझ सके। उसे सहारे की जरूरत होती है क्योंकि आत्महत्या करने वाले ज्यादातार युवा ऐसे होते हैं जिनके साथ किशोरा अवस्था में अच्छा व्यवहार नही हुआ होता है। ये ऐसे लोग होते हैं जिन्हें अपने किसी प्रिय समान या व्यक्ति के खो जाने, मारपीट या ब्लैकमेल जैसी घटनाओं से गुजरना पड़ता है। समाज भले ऐसे लोगो को कायर और नाकारा कहे परंतु इनकी मनःस्थिति को समझना अनिवार्य है। हर आत्महत्या में जीवन के आखरी क्षण तक खुद को बचा लेने की एक करुण पुकार होती है। सुसाइड नोट पर भले यह लिखा हो की ‘मेरी आत्महत्या के लिये कोई जिम्मेवार नही’, तो भी आत्महत्या करने वाले की जीवन-परिस्थितियां यह संकेत करने के लिये काफ़ी होता है कि जिस पल में किसी ने खुदकुशी का फैसला किया था, उस पल यदि सहारे की उम्मीद जगाने वाला कोई व्यक्ति या व्यवस्था मौजूद होती, तो यह दुखद फ़ैसला शायद बदल सकता था। लेकिन आज हमारे आस-पास ऐसा व्यक्ति या सहारा दुर्लभ हैं। आज हम सिमटते जा रहे है। व्यक्तिगत जरुरतें इतनी अधिक बढ़ रही है की दूसरों के लिये हमारे पास वक्त नही है। हमने पारस्परिक सहयोग की जगह अब आपसी प्रतिस्पर्धा को स्थान दे दिया है। हैरत तो तब होती है जब यह पारंपरिक रुप से सुदृढ़ तथा परिवार के भावनात्मक ताने बाने से बने भारत जैसे अध्यात्मिक देश में खुदकुशी की चाह लोगो में जीवन जीने के साहस को कम कर रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुतबिक देश के साढ़े छह करोड़ मानसिक रोगियों में 20 फिसदी डिप्रेसन के शिकार हैं। ये आंकड़ा इसलिये भी डराता है क्योंकि आत्महत्या का रास्ता भी पहले तनाव और फिर डिप्रेसन से होकर ही गुजरता है। स्थिति ऐसी है की परिवार, मित्र, करीबी रिस्तेदार और स्कूल जैसी संस्थाएं भी आज आत्महत्या को रोकने में असमर्थ प्रतित हो रही हैं। ये सच भी है क्योंकी आज जैसी स्थिति हमारे आस-पास है वैसे में इसका निवारण न तो कानूनी दांव-पेच से संभव है न ही मरते व्यक्ति को समझाने बुझाने से। इससे बचाव के लिये हमें आत्महत्या को प्रेरित करने वाले आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों का गहराई से पड़ताल करना होगा। हमें अपने अंदर भी कुछ बदलाव करने होंगे। अपने आप को मानसिक तौर थोड़ा लचिला बनाना होगा, जिससे हर स्थिति में हम खुद को सम्भाल सकें और उससे निकलने के रास्ते तलाश सकें। इसके अतिरिक्त, आत्महत्या में व्यक्ति बनाम समाज की लडाई बहुत पुरानी है।खास कर प्रेम प्रसंग में मरने मारने की कथा पुरानी है। इसमें सामाजिक माहोल का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में रूड़िवाद अभिशाप है। आत्महत्या रोकने के लिये सामाजिक ताने-बाने में अगर थोड़ा बदलाव कर बीच का रास्ता निकाला जा सकता है तो उस पर हमें अवश्य सोच समझ कर विचार करना चाहिए।
•विवेकानंद वी. ‘विमर्या’

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