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और इक बेसहूर मै……

रिमझिम फुहार
रिमझिम फुहार
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वही कमरा बंद सा
जहाँ रौशनी भी रुकी रुकी
मकड़ी के जालो से लधे झरोखे
और उसमे झाकते कुछ पुराने चेहरे
दीवारें समय की झुर्रियों ओढ़े
न जाने अब किससे शरमाते है
वफाएं उनीदीं से फर्श पे लुढ़की
इंतज़ार दरवाजों सा अधखुला
कभी पूरा बंद होता भी नहीं

वो शख्स कोई खुद से रूठा
साँसों का क़र्ज़ आहिस्ता आहिस्ता
चुकाता हुआ ढूँढता है
अपने आज में
बीता हुआ कल
जो शायद रखा था
इसी कमरे के किसी
बूढ़े से आले में
आला भी आवारा
कमरे में ही कही गुम था

ये सलीकेदार दुनियां भी
कई रास्तों को परखती है रोज
कोई रास्ता इस घर को मगर
कभी आता नहीं

आह
ये सालिकेदार दुनिया……
और इक बेसहूर मै……

विनय सक्सेना
२७ मार्च २०१५

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