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वीरान आँखे,
मंद मंद मुस्काते होंठ,
कुछ सुनाने को बेचैन कान,
दूसरो में भी ढूढ़ रहे अपनेपन की पहचान !
आज याद दिला रही होगी
ये दुनिया तुझे शायद मेरी,
उन सबके साथ मना रहा होगा
पितृत्व का त्यौहार,
अहसास भी हो रहा होगा,
मेरे हाथो का,
जैसे मुझे हो रहा है
लाल के नाजुक उंगलियों का !
अर्शा हुआ गए तुमको,
कभी तो ख्याल किया होता,
कभी तो याद किया होता,
फिर से जिद मुझसे किया होता,
मै अपने कलेगे को चीर देता !
कहा छुप गए हो,
कब तक तस्सल्ली करू,
अब अधीर मन,
बेबस तन,
बार बार विद्रोह कर रहे है,
तेरा ही नाम ले ले,
भर गयी है आंखे,
तेरे पथ को निहार निहार,
सूख गए ये होंठ,
तेरा नाम पुकार- पुकार !
अब तो दुनियादारी में
तुझे कभी कभी ही
विशेष दिवसों में
ही यादे हमारी आती होगी !
जबहम जीते है हर पल
तेरे ही साथ,
सदा होता है अहसास
दे कोई भी सहारा,
लगता है यही है
लाल हमारा !
अब मैंने भी जाना है,
इस दुनिया को पहचाना है,
फुर्सत ही नहीं
याद अपनों की करने की,
वर्ष में एक बार मना लेते है
संबंधो का त्यौहार !
कभी माँ का तो कभी पिता का,
बस ऐसा ही कुछ रह गया है
अपनत्व का अहसास,
अपनत्व की तिथि,
अपनत्व की विधि,
अपनत्व की निधि !
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