कुछ दिनों से कार्य और सामाजिक चिंतन के बीच जुझने के लिए मुझे अपने लोगों से दूर रहना पड़ा. माफ़ कीजियेगा, ये वो आप की तो ताकत थी जो मुझे कही भी आप से दूर रक्खे हुई थी. आप सब का स्नेह ही था. मेरे इस समय की दूरी के लिए. जहाँ तक है तो मै ये जनता हूँ जो सकूँ मुझे यहाँ लिखने में मिलाता है, वो दूसरी जगह नहीं. भले ही कुछ चंद लोग मेरे को जवाब देते हो, लेकिन वो बात हमेशा दिल से ही करते है. कही पर गलती हो जाने पर अपना समझ कर अपनी सलाह भी नहीं देना भूलते. ऐसे प्रेमी मित्रों से मै दूर चला गया था कुछ दिनों के लिए.
गुस्सा तो आप सभी को लगी ही होगी, लेकिन जब भी कोई विडम्बना अपना मुंह बाती है तो न जाने कहाँ- कहाँ मानव ही नहीं इस प्रकृति को भी खेल दिखाती है. कहाँ ले जाकर पटक दे कोई भी भरोसा नहीं है. आज चारो तरफ लोग एक दूसरे के अधिकारों के साथ- साथ रोटी को हजम करने में कोई भी गुरेज नहीं बरतते तो फिर हम लोग तो इस बालगी दुनिया के लोग है जहाँ कुछ भी सांसारिक सुख न होते हुए भी मानसिक तृप्ति और एक अनुभूति के लिए जुड़े रहते है. कुछ शब्द जो बन जाते है उन्ही को अपना सब कुछ समझ तहे दिल से संजो रख लेते है. इन्ही कृतियो में अगर कोई भी मित्र भूले भटके भी कुछ लिख दिया यानि कमेन्ट कर दिया तो उसे अपनी तकदीर मान बैठते है.
हम सभी को कोई भी शिकायत नहीं कोई भी गिला नहीं, फिर भी प्रसन्न मन से कुछ न कुछ मन की खेती में कुछ पैदा करने के लिए तैयार बैठे ही रहते है, कुछ भी मिल जाए, कैसा भी मिल जाए, सब कुछ गले लगाये ही रहते है. उन्ही अनुभूतियो को फिर से लेकर अपनी बगिया में लौट आय हूँ. समझ ये लेना बन्धुओ ,कुछ पेड़, कुछ प्रजातियाँ भी ऐसी ही होती है जो घुमंतू और सामायिक होती है. यानी कहो तो खूब फुले- फले और कहो कुछ समय के लिए साथ छोड़ जाए. हम कोई बहुत अच्छे तो नहीं थे आपकी इस बगिया में, लेकिन एक कोने में बिना किसी को कुछ भी सताए हुए, बिना मुरझाये हुए, वही अपने में ही रमा रहता था. किसी ने हमारी और देखा तो देखा नहीं तो कोई बात नहीं हम वैसे ही खड़े रहते थे, उसी पुराने कोने में. आज जब पंहुचा हु तो फिर से खो गया हु, उन्ही बीती हुई यादों में. बीते हुए लम्हों में.
कभी- कभी तो लोग मुझे बड़ा ही वेशर्म समझते थे, और देखा करते थे, कहकहे लगाते थे, फिक्र भी करते थे, देखो ये अजीब सा है, इसे न तो कोई लायिक ही करता है और न ही कमेन्ट करता है फिर भी इस बगिया में डाटा हुआ है. शायद ये बगिया आज भी वैसी ही हरी- भरी है जैसी हमने कभी छोड़ी थी. अब कभी कभी सभी से गलतियाँ तो हो ही जाते है, हमसे भी हो जाती रही होगी, लेकिन इस बगिया के मालिक की ही तो दें होगी की उसने कभी भी टोका नहीं किसी दाल को काटा-छाता नहीं. फूल तो थे नहीं, खुसुबू तो थी नहीं लेकिन कुछ तो था, वो ये था हम आप सभी के बीच थे.
हो सकता है कोई कोई समझ रहा होगा देखो भाई ये तो फिर लौट आया, मै कहता था, कही भी इसे ठिकाना नहीं मिलेगा. देखो फिर आ गया, हम सब को उलझाने. खैर अब हम तो फिर से आ ही गए है. आप सभी जो भी कहे, सोचे उससे मुझे कुछ भी नहीं पड़ता, हा इतना जरुर है, जब तक आप सब का स्नेह मुझ पर रहेगा तो मै कही भी जाऊ, बार- बार आऊंगा.
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