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दामिनी

अग्निशिखा
अग्निशिखा
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दामिनी बनकर दमकती/

बादलों के बीच|

अब गगन में खो गयी है|

रक्त, मज्जा, मांस –

के टुकड़े –

गगन से गिर रहे हैं|

अश्रु का सैलाब बढ़ता जा रहा है|

भूमि पर उगने लगी है –

चिपचिपी फसलें|

तुम्हारी कोख बंजर नहीं –

पर,

यह क्या हुआ है?

नीम, पाकड़ ही सही,

पर, वृक्ष उगते|

कम से कम,

आतप त्रसित आक्लांत जन को,

एक क्षण तो ठाँव देते|

चिपचिपी फसलों पे टिकते ही  नहीं हैं पाँव –

रावण की सभा में|

बालिसुत बेचैन हैं और अंजनीसुत –

अंजना के भाग्य पर कितने विवश हैं?

यह कहानी,

युग युगों तक,

राजधानी ही नहीं –

सम्पूर्ण जग में,

भारती आख्यान, काला पृष्ठ होगा|

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